प्रेम और दुःख का मिला-जुला संगीत-दयानंद पांडेय जी
प्रेम और दुःख का मिला-जुला संगीत
दयानंद पांडेय
कुछ लोग कथा में
कविता सा लिखते हैं। कल्पना मनोरमा कविता में कथा कहती हैं। कविता में कथा को पगते
हुए , देखना हो तो कल्पना मनोरमा की कविताएं पढ़िए। कल्पना मनोरमा की कविताओं से
गुज़रिए। कविता में कथा के तंतु वह ऐसे रोपती हैं जैसे बारिश में कोई भीगे और अपने
प्रेम को याद करे। याद करे अपना प्रेम और अपनी प्रेम कथा में डूब जाए। प्रेम बरसने
लगे। अबाध प्रेम। मनोरम प्रेम। झूम कर लिखती हैं कल्पना मनोरमा। कोमलता का नमक
चखती उन की कविताएं मांसल भी हैं और दूब की तरह नरम भी। ओस की तरह छलकती हुई लेकिन
पत्ते पर चमकती हुई टिकी हुई। ऐसे की ज़रा सा छूते ही लरज कर गिर जाएं और आप प्यासे
रह जाएं। यह प्यास ही कल्पना मनोरमा की कविताओं में कोयल की तरह कूकती हुई गाती
मिलती है। जैसे दुन्नो का प्रेम पथ रच रही हों और गा रही हों , दुन्नो की दारुण गाथा। पथरीले उरोजों का टटका बिंब रचती कल्पना मनोरमा की
कविताएं दिखने में सादी लगती हैं पर हैं नहीं। गंभीर अर्थ लिए , महीन भाव-भंगिमा में औचक सौंदर्य का रथ लिए प्रेम के सुनसान पथ पर उपस्थित
किसी चंचला नदी की तरह भौंचक कर देती हैं। कल्पना मनोरमा की कविताओं में नदी
चुपचाप नहीं बहती। उछलती हुई , मचलती हुई , मछली की तरह कूदती हुई बहती है। प्रेम की इस पुलक में पपीते की देह पर कौआ
की चोंच की महागाथा अनायास नहीं है। कविता में प्रेम की खटास और कपट की महागाथा भी
है। कल्पना की कविता इसी तरह कथा का तार छूती हुई बताती है कि :
बेटी खोलना
चाहती है मुंह
मां रख देती है
बर्फ़ से भी ज़्यादा ठंडा
अपना खुरदुरा
हाथ
और चंचल नदी के
क़ैद होने की कथा का सांघातिक तनाव और इस तनाव की कथा अपने कठोरतम रुप में उपस्थित
हो जाती है। कल्पना मनोरमा की कविताओं की संरचना और उस का पाठ किसी खांचे में
निबद्ध नहीं है। तोड़-फोड़ बहुत है। ज़मीन की भी और जीवन की भी यह तोड़-फोड़ अपना पाठ
ख़ुद तय करती है। जब वह लिखती हैं :
हम रहें न रहें
इस धरती पर
बनी रहेगी हवा , पानी और हंसी
तो मन में एक
गहरी आश्वस्ति भी जगाती हैं। कल्पना मनोरमा की कविताएं इसी अर्थ में यात्रा बन
जाती हैं। एक अर्थ से दूसरे अर्थ तक ले जाने वाली यात्रा। कई बार अनुभव की यात्रा
तक भी ले जाती हैं इस संग्रह की कविताएं। और लगता है कि अरे यह तो मेरी ही कविता
है। बहुत भीतर तक उतरती हुई :
लौटने लगती है
पृथ्वी
पूरे आवेग के
साथ जीवित लौट रहे लोगों के भीतर
भूलना कविता का
शीर्षक भले भूलना है पर यह कविता बहुत कुछ सहेजती हुई याद दिलाती मिलती है। इस
कविता को पढ़ते समय कई बार लगता है कि इस तरह भूल कर भी याद करना हो सकता है। दुःख
को ऐसे भी याद किया जा सकता है। साझा बनाया जा सकता है।
सड़कें होती रहीं
चंदन-चंदन
बदलती रहीं
सरकारें
चैराहे करते रहे
सभी की सलामती की दुआ
द्वंद्व बहुत है
कल्पना मनोरमा के यहां। इस द्वंद्व का केंद्र बिंदु स्त्री अस्मिता है। स्त्री के
दुःख और दुःख के तार की अलगनी में पसरे हुए वस्त्र नहीं गुस्सा है , क्रोध है। इस दुःख में जैसे एक संगीत भी है। प्रेम और दुःख का मिला-जुला
संगीत। प्रेम और दुःख में डूबे , सितार और सारंगी में डूबे
हुए सुर की आवाजाही भी बहुत है। कहीं-कहीं गिटार का सा वेग भी है। इस दुःख और
क्रोध की आग को अपने गीत-संग्रह कब तक सूरजमुखी बनें हम में वह पहले भी दहका चुकी
हैं। ऐसे जैसे वह गीत रियाज रहे हों और यह कविता-संग्रह गायन की सार्वजनिक
प्रस्तुति। रियासत की क्रूर सियासत में बिंध कर गुलाम देहों की यातना की तलाश
माननीय आज़ादी के तंज में लिपटी कविता को आंटे की तरह गूंथना क्या किसी स्त्री के
लिए ही मुमकिन होता है। कल्पना मनोरमा की कविता का यह दर्पण भी है लेकिन। कल्पना
की कविता में एक विद्रोह भी है। सतत विद्रोह। बहुत आहिस्ता। जैसे किसी कंडे में
छुपी हुई धधकती आग की तरह। कि छूते ही धधक जाए। कोई मूंज , कोई
सरपत , कोई पुआल मिलते ही लहक कर लपटों में तब्दील हो जाए।
पत्थर का ढोलना में वह लिखती हैं :
तुम्हें लाज
नहीं आती होगी
अपने कृत्यों पर
परंतु हमें दया
आती है तुम्हारे ऊपर
और तुम्हारे साथ
बंधे अपने रिश्ते पर
कल्पना मनोरमा
की कविताएं पढ़ते हुए अचानक भवानी प्रसाद मिश्र की कहन याद आ जाती है। उन की बेधक
सामर्थ्य याद आ जाती है। कल्पना मनोरमा जब कि भवानी प्रसाद मिश्र को दुहराती नहीं , अनुगमन नहीं करतीं उन की कविताओं की। न उन की परछाई बनती हैं उन की
कविताएं। पर किसी बटुली में भात के अदहन सी मिलती हैं। सिर गर्म। अंगुलियां जिस की
थाह ले सकें बिना जले। तुम उठो स्त्री /कि हम तुम्हारे साथ हैं। समुद्र का गर्वीला
विस्तार और उन / तमाम पंछियों के उड़ने का हौसला सहेजती मनोरमा कविता के उस मनोरम
नदी के बीच धार में ले जा कर अचानक छोड़ देती हैं। यात्राएं फिर होंगी जैसी कविता
में अनायास छोड़ देती हैं। बेईमान पुरुषों वाली मानसिकता की पड़ताल करती हुई समय की
पोटली खोल देती हैं। रिश्ते के धागों में बंधे पुरुष से पूछती हुई शोहदों की तरह
क्यों झांकते हो/ हम स्त्रियों की आंखों में। संबंधों की सरहद लांघती हुए सवाल
सुलगाती हुई :
गूगल पर बढ़ गई
है ज़िम्मेदारी
घर -गृहस्ती और
विद्यालयों को
संचालित करने की
कोमल भावनाओं
वाला इंसान
पहन रहा है
इस्पाती आवरण
मौन के अंधेरे
कोने में मुस्कुराना सीख लिया अकेले की यातना जब अपना चेहरा की इबारतों में यातना
की दोपहर का पाठ कई बार सर्द कर देता है। लगता है जैसे अचानक कोई स्त्री जिसे
प्रेम और मनुहार की सेज पर सोना था , भरी और कड़ी धूप में
बर्फ़ की सिल्ली पर लिटा दी गई हो। जीवित ही। जिस बर्फ़ की सिल्ली पर लिटाई जाती हो
मृत देह , उस पर जीवित स्त्री का लिटा दिया जाना ही कल्पना
मनोरमा की कविताओं का दाह है , आग है और त्रासदी भी।
सांघातिक तनाव का तंबू बिना किसी चीख़-पुकार के कल्पना मनोरमा की कविताओं में लेकिन
बड़ी कोमलता के साथ दाखिल होता है :
लौट आई थीं तुम
अपने दोनों
हाथों में ले कर
उस का घर जो
तुम्हारा कभी था ही नहीं।
बिना किसी नारे
के , बिना किसी ललकार के , बिना किसी बवाल के बहुत
आहिस्ता से कल्पना मनोरमा की कविताओं में एक चिंगारी फूटती है। और देखते ही देखते
शोला बन कर भड़क जाती है। लपक कर लील जाती है सारी वर्जनाएं ,सारी
फांस और दुरभि संधियां। वंचना को अर्चना नहीं बनाती कल्पना मनोरमा की कविताएं :
क्यों कि
स्त्रियों की शोभा
मौन में है
मन चकरा उठा था
उस का
तो क्यों सिखाई
जाती है भाषा
मनुष्य को
क्या स्त्री
मनुष्य नहीं ?
किसी गिलहरी की
मानिंद चोंच भर चुग्गा के चाव में चमकती इस संग्रह की कविताएं स्त्री मन का आकाश
ही नहीं , स्त्री मन की धरती भी हैं। स्त्री अस्मिता और
स्वाभिमान की चेतना का सरोवर रचती हैं। सागर सी गहराई में डूबी यह कविताएं अपना एक
अलग स्वाद , अलग अंदाज़ और अनूठा भाष्य रचती हैं। कविता के
वितान में एक नई आहट हैं कल्पना मनोरमा की कविताएं। जो सुलगती , सिहरती , सकुचाती स्त्री के सुंदर संसार की तलाश
करती हुई युद्धरत हैं। अपनी ही बात को थोड़ा और सुधार कर , दुहरा
कर फिर से कहूं तो कविता में कथा को पगते हुए , स्त्री को
भात की तरह रीझते हुए , आग में पकते और जलते हुए , देखना हो तो कल्पना मनोरमा की कविताएं पढ़िए। कल्पना मनोरमा की कविताओं से
गुज़रिए। मैं बहुत धीरे से यह भी कहना चाहता हूं कि कल्पना मनोरमा की कविता में
कल्पना कम मनोरमा ज़्यादा मिलती हैं।
[ बांस भर टोकरी की
भूमिका ]
कृति : बांस भर
टोकरी
कवयित्री : कल्पना
मनोरमा
प्रकाशक : वनिका
पब्लिकेशन नई दिल्ली
मूल्य : 190/-
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