"बाँस भर टोकरी" पर डॉ. अजय शर्मा जी की समीक्षा

 

फेसबुक एक ऐसा माध्यम है, जो आभासी होते हुए भी अपना लगता है। यहां कोई किसी को नहीं जानता, लेकिन फिर भी पहचान रखता है। फेसबुक पर आपको अपने भी मिलते हैं, प्रेम भी मिलता है और झगड़े भी देखने को मिलते हैं। जब हम छोटे थे तो पेन फ्रेंड का चलन था। युग बदला और नया दौर आया जिसमें क्रांति के रूप में फेसबुक हमारे सामने है। कल्पना मनोरमा जी कौन हैं, क्या करती हैं, मैं नहीं जानता। लेकिन एक बात अच्छी तरह से जानता हूं कि वह लेखकों की किताब के टाइटिल की ईसीजी बहुत ही बेहतर ढंग से करती हैं। एक रिश्ता फेसबुक ने बना दिया है, जिसका नतीजा है कि उनका कविता संग्रह मेरे हाथ में है। पहले तो उनका दिल से शुक्रिया कि उन्होंने मुझे किताब भेजी।

स्थूल से सूक्ष्म तक की यात्रा करती कविताएं

बात करता हूं कल्पना मनोरमा जी की कविता की नई किताब "बांस भर टोकरी" की। जब फेसबुक पर इसका पहली टाइटिल देखा तो नहीं समझ पा रहा था इसका मतलब। लेकिन पढ़ने के बाद पता चला कि इस टोकरी में जितने भी बांस भरे गए हैं, वे केवल बांस भर टोकरी नहीं, बल्कि वे सभी बांसों को इस तरह से तराशा गया है कि सारे बांस अपना आकार ले गए। कोई बांसुरी बन गया तो कोई सीढ़ी तो कोई बांस का आचार तो कोई कुछ ओर रूप लेकर हमारे सामने है। मैंने पाया है कि हर कविता के माध्यम से एक कथा का विस्तार होता है। वह कथा भले ही देखने में छोटी लगती हो लेकिन उसके भाव विस्तृत हैं। मैं जानता हूं कि कविता के बारे में लिखना मेरी एक सीमा है लेकिन इन कविताओं में कथा-रस भी उसी तरह है जैसे किसी कहानी में होता है। कविता "प्रेमपथ" से गुजरते हुए अहसास होता है कि आप स्थूल से सूक्ष्म की ओर यात्रा कर रहे हैं क्योंकि इसमें स्ट्रीम ऑफ कांशियसनेस की यात्रा भली भांति आंखों में तैरने लगती है। स्वयं से स्वयं तक का सफर तय होता दिखता है। जब हम स्वयं से स्वयं तक का सफर तय करते हैं तो इसका मतलब है कि हम लोग आध्यात्मिक यात्रा की तरफ इशारा कर रहे हैं। स्थूल प्रेमपथ एक भटकन है और उससे सूक्ष्म की तरफ लौटना ही जिंदगी का असल मकसद है क्योंकि वहां इंद्रधनुष के सारे रंग बिखरे पड़े हैं। देखिए इसी कविता की चंद पंक्तियां

निर्मित हुआ घनघोर बारिश के बीच

उसका एक नया प्रेम-पथ

स्वयं से स्वयं तक का

वह निकल गई उसकी मखमली हरी घास से भरे रास्तों पर

कभी न लौटने के लिए

बिना शिकायत किए उससे

जिसने समझा था उसके प्रेम को

देह का व्यपार

जैसे ही देह एक व्यवहार में आकर व्यापार जैसा लगने लगता है तो फिर "बसंत की आहट पर" टोकरी में रखे उस बांस को टुकड़े का एहसास होने लगता है जिसमें कहा गया है कि

वसंत की आहट पर

उम्र के चमकीले मोड़ों पर महकी मंजरियां दस्तक-सी होती लड़कियां

बगिया के उन पौधों-सी

जिन पर आ चुकी हैं तितलियां

चुपचाप आकाश ओढ़े

टूटते तारों को समेटे अपने दुपट्टे में

मुस्कराती हैं लड़कियां

काफी हाउस की चकाचौंध में पसरी

कहवा की भीनी सुगंध में लिपटी सुरमई शाम को

महसूसती हैं अबोले सन्नाटों को

कभी बिखरती हैं तो कभी संभलती हैं

अनचिन्हें सपनों की उड़ान में

खो जाती हैं लड़कियां

बात भले ही यहां लड़कियों की ही की गई हो लेकिन इनके माध्यम से उन्होंने टोकरी के उस बांस की ओर इशारा किया है जो बांस अभी-अभी बड़ा हुआ है और जिस तरफ हवा का रुख होता है उसी तरफ वह मुड़ता है और मुस्कुराता है। कल्पना मनोरमा के पास बिंबों और प्रतीकों में बात कहने की कला भी है। बांस भी एक बिंब है जिसके कई-कई मतलब हो सकते हैं। प्रकृति का अभिन्न अंग हैं बांस और इसी प्रयास में उनकी प्रयास कविता देखने लायक है

धऱती ने जगह दी

पेड़ को

पेड़ ने चिड़िया को

चिड़िया ने आकाश को

मैं भी तलाश रही हूं जगह अपने लिए

मिलेगी कभी तो करूंगी प्रयास

पेड़ बनने का

और मुझे लगता है कि संग्रह पढ़ते-पढ़ते जो पेड़ बनने का अहसास है वह कहीं न कहीं पाठक के मन के भीतर प्रवेश कर जाता है और उस पेड़ के नीचे कोई विश्राम करना चाहे तो विश्राम भी कर सकता है। कोई धूप से बचना चाहे तो धूप से भी बच सकता है और कोई पक्षी बसेरा करना चाहे तो बसेरा भी कर सकता है। मैं कल्पना जी को इतना सुंदर कविताओं का गुलदस्ता देने के लिए उन्हे बहुत बहुत

बधाई

देता हूं। दोस्तो कविता के बारे में मुझे बिल्कुल भी समझ नहीं है जैसे भी मेरे मन के भाव थे मैंने व्यक्त कर दिए। इसे समीक्षा न समझकर एक पाठक की प्रतिक्रिया ही समझी जाए।

डॉ. अजय शर्मा

 

 

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