"चाहना" शब्द सजीव होता है. है न!
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विश्व पुस्तक दिवस पर |
पुस्तकें कभी भी शोर पसंद नहीं करती
हैं। वे अपने इर्दगिर्द सदा ही आर्य मौन चाहती हैं। ये आदत किताबों को लेखन ने
डाली है। जब एक प्रबुद्ध लेखक किताबों के लिए भोज्य इकट्ठा कर रहा होता है तब वह
निचाट अकेला होता है और जब किताबों का मन बुन रहा होता है तब वह संसार के अनुभव को
साथ लेकर लोक की चिल्लाहट से परे एक कोने में डटा होता है। लेखक अपना इतना मानसिक
शोधन करता है कि पुस्तकें इसकी आदी हो जाती हैं। बुद्ध के अनुयायी ये बात जानते
हैं कि सच्ची ख़ुशी आँखों के झरोखे बंदकर आर्य मौन भरकर घटाकाश में बैठने पर ही संभव
हो सकता है। ये बात किताबों ने अपने लेखक से सीखी है इसलिए वह अपने पाठक को बताती
है।
जितना एकांत पुस्तकालय उतनी ही ज्ञान
की ऋचाओं का गुंजन। आपने देखा होगा संसार में जिस घर में बर्तनों और भौतिक वस्तुओं
से ज्यादा पुस्तकें होती हैं, उस घर में
शब्दों की सरगोशियाँ सहज ही वहाँ के वातावरण में महसूस की जा सकती हैं। किताबों
वाले घर के सदस्यों के मुँह में लगाम नहीं लगी होती है। बल्कि वैचारिक रूप से
सदस्य लगाम महसूसते रहते हैं। तभी तो शायद वे
रुककर, सोचकर और चिन्तन-विचार कर अपने
शब्दों को एक दूसरे के समक्ष परोसते हैं। हाँ,
कभी-कभी
उनमें से किसी ने भौतिक भावना में बहकर कुछ तीखा यदि परोस भी दिया होता है तो
किताबों में छिपे वैचारिक "घी" से वे अनभिज्ञ नहीं होते। वे अपनी भूल सुधार
के लिए पर्याप्त समृद्ध होते
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कल्पना मनोरमा की नव प्रकाशित कृति |
किताबें सदैव चिंतन में लीन एक योगी
की भाँती ऊपर से बेहद तटस्थ कदाचित अंदर से बेहद भावुक और सहनशील भी होती
हैं। इसलिए वे अपने पाठकों से भी वही चाहती हैं। पुस्तकें किसी के विचारों को
काटती नहीं और न ही धूमिल पड़ने देती हैं। वे तो पढ़ने वाले के विचारों की तर्ज़ुमानी
को निखारती रहती हैं। किताबों के आवरण को अनदेखा नहीं किया जा सकता क्योंकि किताबी कलेवर का फाटक आवरण ही होता है।
वैसे
देखा जाए तो किताबें हमसे कुछ चाहती नहीं हैं। कभी देखा है किसी कृति को किसी को आवाज़
लगाते हुए किसी ने? किंतु कृति में अंकित लेखक के विचार,अपना आपा पढ़वाने के लिए सदा पाठकों की खोज में लगे
रहते हैं।
वैसे देखा जाए तो "चाहना" शब्द निर्जीव नहीं, सजीव होता है। है न!
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अच्छा लिखा है। अच्छी किताबें पाठकों की मोहताज नहीं होतीं। वे अपने पाठक खुद ढूंढ लेती हैं।
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