दिन हुए कोयल-कोयल

गाँवों में फागुन ज्यों-ज्यों गुनगुनाने लगता त्यों-त्यों फगुआ बतास हँसी-ठिठोली करती हुई घर-खलिहान एक करने को उतावली होने लगती है। कहने का तात्पर्य ये है कि भारतीय संस्कृति के लिए फागुन सिर्फ एक महीना नहीं बल्कि उत्सव का उल्लास है। इधर सर्दी की विदाई हुई नहीं कि उधर खेतों में फसल का पकना और किसानों के घर कार्यों की बाढ़-सी आना शुरू हुआ। इन दिनों गाँव में किसान जितना अपनी फसलें अगोरने में व्यस्त  दिखते थे, उससे कहीं ज्यादा ग्रामीण स्त्रियाँ अपने देशी दैनिक कार्यों में सिर से पाँव तक डूबी दिखने लगती हैं। मेरी माँ की अपनी तरह की व्यस्तताएँ होती थीं। उनके व्यस्त दिनों में रेडियो पर प्रहसन या आँगन बाड़ी के कार्यक्रम जितना  सुनना जरूरी होता था तो कोई न कोई वे किताब भी पढ़ती थीं। एक ओर चने, अरहर की दालें दली और फटकी जातीं तो एक ओर उनका रेडियो चलता रहता था। एक ओर कढ़ाई-बुने किया करती तो एक तरफ माँ हाथ मशीन पर हमारे कपड़े सिल रही होती थीं तो कभी घर तो घर के बाहर के भी कार्य कर रही होती थीं। हर वक्त अपने आप को व्यस्त रखना मैंने अपनी माँ से ही सीखा है। हालाँकि मेरे बचपन में कभी न खत्म होने वाली माँ की व्यस्तताओं से मुझे बड़ी ऊब होती थी लेकिन अब उसी में चैन का अनुभव करती थीं। माँ का कहना था न मन खाली रहेगा न ही बेकार की बातों के चौरा उठेंगे। 

खैर, मौसम की अँगड़ाई में समस्त प्रकृति डूबकर कुछ अनकहा जादू रचती है। वसंत अपने मादक अट्टहास से चारों दिशाओं को मदहोश बनाने लगता नगर में नर-नारियों के मन में फगुआ गीत झूम उठते थे। महुआ से मन वाले देवर-भावियों की मान-मनव्वल देख आम के मन भी बौरा जाते थे। नीम दिन-रात कर्पूरी आभा वाले फूलों की झर-झर बरसात किया करते। गुझियाँ अहसरे जहर के लड्डू खाकर फागुन ज्यों ही बीतता उसके बाद चैत की नवरात्रियों की धूमधाम व्रत-त्योहारों का खेल शुरू हो जाता। पूजा-पाठ करते कराते चैत बीत ही पाता कि वैशाख बाबू आ जाते। मतलब गरमी का बिगुल बज उठता। गेंदे के मौन पर दसबजिया खिलखिला उठती थी। पुरवा हवा के झोंके लपट का रूप धरने लगते थे। वैशाख के कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष में आने वाले सोमावार को माँ जगन्नाथ जी की विशेष पूजा-साधना किया करती थीं। उस पूजा का नाम हम बच्चे जगन्नाथ बाबा की पूजा के नाम से जानते थे। आम के बागों में अमराई की भीनी-भीनी गंध मौसम को नशीला बना देती थी।कोयल की रसवन्ती कूकें अन्य पंछियों से ज्यादा उत्ताल हो गूंजने लगती थीं। कोयल किसी नीम या आम की डाली पर बैठ ऋतुराज को लुभाने के लिए पंचम स्वर रागनी छेड़कर लुभाती तो सात कोठे के भीतर तक उसके पंचम स्वरों का नाद उदास मनों के माथे सहला जाते। सर से पाँव तक धूल-गर्दा में डूबी गाँव की साध्वियाँ स्त्रियाँ, गाँव की स्त्री को साध्वी इसलिए कहती हूँ क्योंकि वे न जाने कितने-कितने अभावों में रहते हुए भी चिरमुस्कान अपने होंठों पर सजाये पर सेवा में निरत रहती हैं। अपने अभावपूर्ण रूखे-सूखे दिनों की किल्लत भुला मद्धिम-मद्धिम कोयल की कूकों में वे भी अपनी कूक मिलाने लगती थीं।


मेरी माँ जीवन को बहुत विधान से जीने वाली एक सुघड़ स्त्री थीं। हर पल आशा से भरीं उनकी दो आँखों में हम बच्चों के उन्नत भविष्य के सपने तैरते रहते थे। अपने जीवन को सुचारु रूप से चलाने के लिए शायद ही उन्होंने कभी संसार के आगे मदद के लिए अपने हाथ फैलाए हों। हाँ, ईश्वर पर उन्हें बेहद आस्था थी। उनका कहना था कि माँगना उससे माँगो जो सब को देता है। जिसके आगे राज-रंक सब अस्तित्वहीन होते हैं। जब तुम ऐसा करोगी तो तुम्हें कभी बेइज्जत होने का अवसर नहीं आएगा क्योंकि ऊपर वाला तुम्हारी कमी का चिटठा किसी के आगे खोल कर बैठेगा नहीं और दिए हुए का गाना गाकर तुम्हें शर्मिंदा नहीं करेगा। या ये कह सकती हूँ कि उन्हें अपने कार्यों पर अटूट विश्वास था। 'कर लो और पालो' वाला मंत्र मैंने उन्हीं से पाया है। पूजा में होने वाले कर्मकांडों को वे इतना महत्व नहीं देती थीं जितना मन्त्रों में ईश्वरीय तत्व को महसूस किया करती थीं। उन्होंने अपने जीवन के प्रत्येक अनुष्ठानों को तपस्या में लीन होकर ही संपन्न किये। वे मानती थीं कि एक स्त्री के लिए संतानोत्पत्ति से बड़ा अनुष्ठान कोई नहीं होता अगर उसे विधि-विधान से किया जाए। माँ बताती थीं जब वे मुझे दुनिया में लायीं उसके पहले उन्होंने एक संकल्प लिया कि वे पूरे नौ माह शिव-पार्वती की मिट्टी की प्रतिमा को स्वयं निर्मित कर पूजेंगी और सांझ को जल प्रवाह करेंगी और जब मेरा भाई उनके जीवन में आया तो उन्होंने दूसरा संकल्प लिया कि पूरे नौ माह वे विष्णु सहस्त्रनाम स्त्रोत शुक्लाम्बरधरं विष्णुं शशिवर्णं चतुर्भुजम्/प्रसन्नवदनं  ध्यायेत् सर्वविघ्नोपशान्तये / यस्य द्विरद्वात्राद्या: पारिषद्या: पर: शतम्। का पाठ करने के उपरान्त ही जल ग्रहण करेंगी। माँ जिस घर में ब्याही थीं वह सात-आठ सदस्यों का परिवार था। सभी सदस्यों से सम्बंधित कार्यों को समाप्त करते, पत्नी, बहू और देवरानी की भूमिका निभाते हुए उन्हें दोपहर हो जाती। उसके बाद शुरू होता उनके जीवन के अपने संकल्पों का विधि-विधान। वे बताती थीं कि जब विष्णु सहस्त्रनाम स्त्रोत का जाप करने बैठतीं तो मारे थकान के उन्हें नींद के झोंके आने लगते। मेरी दृढ़निश्चयी माँ ने एक उपाय खोजा,उन्होंने जमीन में एक गड्ढा खोदा और उसी में पानी भरकर अपने पाँव डुबोकर रखकर जाप करने लगीं। मुझे नहीं लगता इस संसार में कोई साधारण स्त्री अपने बच्चों के लिए इतना त्याग करती होगी शायद मैं भी नहीं कर सकती लेकिन मेरी माँ ने किया था। मैं माँ के प्रति ऋणी हूँ। 


हाँ तो मैं जगन्नाथ बाबा की पूजा की बात कर रही थी। वैशाख आने पर आम मंजरियों की खुशबू जब हवा में घुल कर घर आँगन सुवासित करने लगती तो मेरी माँ अक्सर कह उठती थीं। चलो आ गये,"जगन्नाथ बाबा के पूजा के दिन।" जब माँ जगन्नाथ बाबा की पूजा का जिक्र करती मुझे शैतानियाँ याद आने लगती थीं। “मज़ा आएगा जो माँ मुझे हमेशा डाँटते रहने वाली माँ मुझसे कहेगीमुझसे ज़रा पाँच बेंत मारना तो मेरी पीठ पर!सोचकर मैं खूब मुस्कुराती। चित्रों में आम्र मंजरियों से लदे पेड़ को देख याद आता है वह समय जब घर-घर नए गेहूं भूनकर कोल्हू से ताज़ा-ताज़ा बनकर आये गुड़ से माँ पूजा के लिए गुड़धानी,सीरा-पुलाकियाँ,कूर की गुझियाँ बनाया करती थीं। जिनके घर के आँगन का फर्श पक्का होता वे लोग उसे धोकर साफ़ करते और जिनका कच्चा होता थावे लोग लाल मिट्टी गाय के गोबर में मिलकर घर का लीपन करते थे। घर के वातावरण में घूपकपूरधूपबत्ती,अगरबत्ती की मोंगरा वाली सुगंध फैली रहती। मुंडेर से झाँकती धूप से बनती हमारी परछाइयाँ मन को अलग से उमंग से भर जाती थीं। जिस दिन पूजा की चौकी सजाई जातीउस दिन का क्या कहना होता था। लोक गीत की धुन में गुनगुनाती माँ कोयल से कम मुझे कभी नहीं लगती थी। पूजा की चौकी पर रखा बौरगेहूँ की कच्ची बालियाँ और पुए और पुरियों के साथ सीरा-पुलाकिया का भोग देख-देख कर मन ललचा उठते थे हम बच्चे के। कच्ची अमियाँ का स्वाद मुँह में पानी भर लाता था। वैशाख के जिस सोमावार को जगन्नाथ महराज की पूजा होती उस दिन बेंत वाला रिचुअल मेरे लिए अलग किस्म का उत्साह भर लाता। पूजा के बाद जगन्नाथपुरी से लाये गये बेतों से बगिया में आमकटहललाभेड़ानीबू आदि पेड़ों में पाँच-पाँच बेंत मारने की रस्म मैं पूरी करती थी। माँ प्रार्थना करना सिखाती थीं। वे कहती थीं,”जब किसी पेड़ को बेंत मारना तो बलभद्रदुर (बलभद्र) जी के भैया जगन्नाथ जी से प्रार्थना करना कि वे इन पेड़ों के फलों की रक्षा करें। 

खूब हम खाएं और खूब राहगीर खाते हुए यहाँ से गुजरें। कभी इसके फलों में कीड़े पड़ने की नौबत न आए।” माँ  के पेड़ और फल हम बच्चे होते थे। वे जगन्नाथपुरी से लाए गए बेंत पूजने के बाद हमारे सिर पर पाँच बार छुआ कर हमारे लिए बुद्धि की समृद्धता माँगती थीं। माँ वह गीत-"ठाकुर भले बिराजे जीउड़ीसा जगन्नाथ पूरी में भले बिराजे जी....।" अब आगे की पंक्तियाँ याद नहीं आती लेकिन तब ये गीत हम बहुत दिनों तक माँ के साथ गुनगुनाया करते थे। माँ कहती थीं एक ये ही पूजा है जिसमें भाइयों के साथ बहन सुभद्रा की भी पूजा होती है। अब न माँ हैऔर न ही उनकी ममतालू प्रार्थनाएँ! बस हम हैं और ये संसार जिसे पार करने को चलना है रोज़ मन से... !

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