निस्सीम गगन के आँचल में
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कुम्हार पंछी- चित्र इन्स्टाग्राम |
मैंने आज तक घौंसले बनाने वाले कई तरह के कमेरे पक्षी देखे। कई प्रकार के उनके घर देखे लेकिन कुम्हार पंछी को पहली बार देखा तो हतप्रभ रह गयी। इस सब पंछियों में से बया से अत्यधिक प्राभावित रहने वाला मेरा मन बचपन में बया बनने की कल्पना में पल-पल खोया रहता था। जिस उम्र में लड़कियाँ सफ़ेद घोड़े पर सवार होकर आने वाले अपने साथी राजकुमार का चित्र देखती होंगी, मैं बया की तरह अपने घर की निर्मित में बहुत-बहुत देर उलझी रहती। उसी की तरह बबूल के वृक्ष की कांटेदार डाली यानि कि काल्पनिक निरे अपने संसार की कल्पना करती रहती जो कठिनायों से भरा तो था ही साथ में सामाजिक नियम, कायदे और कानून की इतनी सघन परिधियाँ कि मेरी सोच भी कभी-कभी हार मानकर सिथिल पड़ने लगती थी किंतु कल्पनाशक्ति ने कभी हार नहीं मानी।
इतना जरूर मुझे
लगता रहा है कि दुनिया बनाने वाले ने एक काम मेरे हित में बहुत अच्छा किया है जो उसने
मुझे मनोरमा जैसी माँ दे दी। दरअसल बया की तरह से ही मेरी माँ जुझारू प्रवृत्ति के साथ कभी हार न मानने वाली महिला थीं। उन्हीं के रचनात्मक सानिध्य ने मुझे हर वह
चीज़ सीखने के लिए उत्सुक बनाया जिसे माँ चैलेंज की तरह लेकर सीखती थीं और यथार्थ में
बनाकर प्रस्तुत कर देती थीं। उन्हीं की नकल करते हुए मैंने मिट्टी की बनाई जाने वाली
वस्तुओं में सिर्फ दीपक और सुराही को यदि छोड़ दिया जाए तो मिट्टी का चूल्हा, चक्की का घेरा, छोटे मटके और मुल्तान की मिट्टी और
कागज़ की काँजी से और घास की टोकरियाँ सिलाई, कढ़ाई और स्वेटर बनाना आदि अपने बचपन में सब कुछ मन से सीखा और बनाया भी।
इन सब कामों में मेरे लिए जो बहुत ही रुचिकर कार्य होता था, वह था सांझ ढले छत पर जाकर दिन की ढलान पर सूरज का फिसलना देखना और निस्सीम गगन के आँचल में उड़ते पंछियों को निहारना जो अपने कुनबे की ओर मुखातिब होते हुए संध्या गीत गुनगुनाते उड़ रहे होते थे। उन्हें देखते-देखते काल्पनिक रूप से बया बना मेरा नन्हा मन नारंगी आसमान की सैर पर घंटों-घंटों के लिए उड़ान पर निकल जाता। आज जब इस कुम्हार पंछी को देखा तो आश्चर्य से आँखें पसर गईं। क्योंकि प्रकृति मुझे हमेशा चकित करती है।
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कुम्हार पंछी- चित्र इन्स्टाग्राम |
मुझे यह कुम्हार पंक्षी
भी बया के समकक्षीय लगा। कुम्हार पंछी सिर्फ तिनके नहीं जुटाता है बल्कि गीली
मिट्टी में तिनकों को गूंद कर किसी ईंट पाथने वाली पथेरी की तरह मिट्टी तैयार करता
है। उसके बाद किसी मजबूत डाली की तलाश कर उस पर सुन्दर सा अपना घर बनाता है।
अब यहाँ अगर अपनी सोच को थोड़ा और विकसित किया जाए तो लगता है संसार में जितनी प्रकार की मादायें हैं, वे सब कलात्मकता से भरी होती हैं। तभी बनाने वाले ने उन्हें अपने समकक्षीय कहा है।ऊपर वह सर्जक धरती पर माँ के रूप में जीव का मादा रूप सर्जक। खैर, पंछी अपना आपा लुटाकर घर का निर्माण करते ही रहते हैं लेकिन इनके बच्चे भी हम मनुष्यों के बच्चों की तरह अपनी माँ का त्याग तुच्छ ही समझते हैं। तभी तो एक दिन कोहरे भरी भोर में चिड़िया जब दाना लेने जाती है, उसके बच्चे अपने लिए दूसरी डाली की तलाश में माँ का घर छोड़कर उड़ जाते हैं। ऐसा नहीं चिड़िया परम मोक्षदायी जीवन को शांत भाव से जीने लगती है, बिल्कुल नहीं। चिड़िया भी अपने खून को याद करते हुए डाल-डाल पर सिर धुनती है और जब किसी भी प्रकार से उसके बच्चे नहीं लौटते तो अपने सामान्य जीवन के गुणाभाग में तत्पर हो जाती है। सुना है कि पंछियों में वैराग्य भाव हम मनुष्यों से अधिक मात्र में पाया जाता है। काश! हम मनुष्य भी इस निर्लिप्तता रूपी औषधि को सहज स्वीकार कर अपने जीवन में आने वाली अवसाद नामक बिमारी से निजात पा लेते। अस्तु!
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