रिश्तों के शहर में निर्मला तोदी

आवरण कथा वाचनसीरिज में आज़ बंगाल की सुपरिचित साहित्यकार निर्मला तोदी जी की पुस्तक "रिश्तों के शहर" कृति मेरे समक्ष है। पुस्तक के आवरण को देखते हुए कृति के शीर्षक में कलेवर की बात तरतीबी से ध्वनित होती हुई जान पड़ रही है। जिस प्रकार निर्मला जी की बहन रेनू छोटारिया ने इस आवरण चित्र की संरचना की है, वह काबिल-ए-तारीफ़ है। संसार में रिश्तों के अंदरूनी और वाह्य दोनों प्रकार के रंग इस चित्र में समाहित है। आवरण चित्र कह रहा है कि आपको रिश्तों के गहरे-हल्के रंगों जैसे-बाफादारी,मक्कारी,ऐयारी,प्रेम,घृणा,भक्ति,त्याग,समर्पण,उदारता और साथत्य के रिश्तों की महागाथा यदि गहराई से देखनी हो तो महाभारत और रामायण को देख कर महसूस किया जा सकता है। ऐसे मानिए कि "रिश्तों के शहर" शीर्षक की आत्मा को चित्रकार ने आवरण चित्र के माध्यम से खोलकर रख दिया है। इसके लिए चित्रकार को शुभकामनाएँ और बधाई! अब कथाकार निर्मला जी की रचनात्मकता,चिंतनशीलता और प्रस्तुतिकरण की बात कहूँ तो अभी तक मैंने इस संग्रह की कहानियाँ पढ़ी नहीं है लेकिन आवरण की भाव-भंगिमा से बार-बार ये लगता है कि मानवीय धरातल पर उगे रिश्तों के हर पक्ष की कहानियाँ आपको पढ़ने को मिलेंगी। 

दरअसल रिश्ते; नामक ढाई अक्षर में सामाजिक मानवीय अस्मिता का पर्याय छिपा हुआ-सा लग रहा है। मनुष्य के समाजिक जीवन के मध्य जब रिश्ता दिल बनकर स्पंदित होता है तो रिश्तों का चितेरा मानव कुशलता से अपने जीवन के जलयान में विचरण कर पाता है। रिश्ता नामक दिल अच्छे से धड़क सके शायद हम इसी की उहापोह में अपने दिन-रात खपा देते हैं। हर जीव संसार में अपने द्वारा जुटाए गए आध्यात्मिक सुफल के अनुसार अलग-अलग  समय,दशा और परिस्थितियों में नौ माह माँ के गर्भ में तपस्या में लीन रहकर निचाट अकेला पैदा होता है। लेकिन जैसे ही वह मानवीय ज़मीन पर आता है चारों ओर से रिश्तायी ध्वनियाँ उसके श्रवणरंध्रों को भरने लगती हैं। ये देखते हुए जीव एकबरगी तो चीख ही पड़ता है। क्योंकि उसे उस समय कुछ भी समझ नहीं आता कि किससे कैसा व्यवहार किया जाए। सबसे पहले जीव का रिश्ता हवा और प्रकाश से बनता है। उसके साथ जब वह घुलने-मिलने का प्रयास करता है तो उसके स्वागत के लिए जो लोग प्रसवगृह में मौजूद होते हैं उससे रिश्ते बनने शुरू हो जाते हैं। कहने का मतलब  मनुष्य जन्म के साथ रिश्ते जीना सीखने लगता है।

यहाँ पर यदि ये उद्धृत किया जाए कि रिश्ते सिर्फ़ माता-पिता,भाई-बहन, पति-पत्नी जैसे परिवार तक ही सीमित नहीं होते हैं तो गलत न होगा। बल्कि सजीव जीवों में रिश्तों की महिमा तो अकथनीय है ही, दो निर्जीव वस्तुओं के मेल से भी एक नए रिश्ते का निर्माण होता है। परिणाम के तौर पर हमें कुछ अद्भुत ही प्राप्त होता है। तो जब दो मनुष्य आपस में किसी रिश्ते से बँधे होते हैं उसकी रखा-सुरक्षा करना दोनों की जिम्मेदारी होती है लेकिन आज ये भाव मृतप्राय होता जा रहा है। अब बस अपने को केंद्र में ही रखकर सामने वाले की भावनाओं को आहत करने में भी व्यक्ति संकोच नहीं करता। 

संसार की संसद में रिश्तों की मीनार की शोभा का बखान करना बेहद दुरूह कार्य है। क्योंकि संसार में कब कौन अपनी धारणाओं के रथ पर सवार होकर सामने वाले की कोमल,अंकुरित भावपूर्ण पौधों को रौंद कर कब यू टर्न ले लेगा; आप को पता भी नहीं चलेगा। सामाजिक पटल पर डॉक्टर का मरीज़ से, सेवक का मालिक से, दुकानदार का ग्राहक से, शिक्षक का विद्यार्थी से, पंडित का पुरोहित से और अंत में यदि कहना चाहे तो मित्रता का रिश्ता भी हमारी अवधारणाओं को खंडित-मंडित करता रहता है। अर्थात् दो व्यक्तियों के बीच आपस में होने वाले लगाव, सुख-दुःख से निपटने के लिए मेल-जोल, प्रसन्नता प्रकट करने के लिए साथी जैसे संबंध या संपर्क ही रिश्ते कहलाते हैं। इन रिश्तों में ज़रा से भी बदलाव की आहट भी एक दूसरे से छिपी नहीं रहती। 

खैर,अब बात आवरण चित्र के ढाँचे को परखते हुए कुछ कहें तो जिस तरह हमारा दिमाग़ होता है उसी तरह चित्रकार ने इस शीर्षक के लिए एक वृक्ष के आकार का चित्र उभारा है। वृक्ष जैसी आकृति को इस शीर्षक के लिए चुनना साधारण नहीं बड़ी सोची-समझी रणनीति लगती है। जिस प्रकार पेड़ के तने पर ही उसके प्राप्य फल, फूल, लकड़ी, दवाई आदि का अस्तित्व टिका होता है। वैसे ही हमारे सारे रिश्ते मानवता के तने पर टिके होते हैं। तने से निकलने वाली मुख्य शाखाओं के माध्यम से कथाकार ने उन कहानियों की रचना की होगी जिनमें बेहद निजी संबंधों की भावनाएँ गुँथी होंगी। अब आते हैं मुख्य शाखाओं को सुंदरता प्रदान करने वाली छोटी-बड़ी नरम डालियों की ओर तो ये हमें बता रही हैं कि लेखिका ने सामाजिक जटिलताओं, क्रूरताओं, मौकापरस्ती और चालाकियों की कथाओं को भी बुनकर इस संग्रह में संग्रहित किया होगा। 

चित्र के पीछे ध्यान से देखा जाए तो रंगों की परतें दिख रही हैं। ये मामूली नहीं हैं। रिश्तों का भी एक आसमान होता है। वहाँ भी संवेदनाओं का सूरज नित्य उगता और डूबता रहता है। वहाँ भी कभी दिन होता है तो कभी घनी काली रात भी आती है। जब जैसा रिश्तों का वातायन खुलता और बंद होता है; धीरे-धीरे मानवीय रंगों की आभा रिश्तों के मन में उतरने लगती है और हम अपने को समेटने और पसारने के लिए मजबूर हो जाते हैं। दुनिया में रंग एक ऐसा घटक है यदि ये न होता तो पृथ्वी उदास भाव में लिप्त ही रह जाती। न आकाश नीला होता,न पेड़ हरे और न ही दूध सफेद। रिश्तों के चेहरों पर समय-समय पर आने-जाने वाले रंगों को पढ़कर हम समाने वाले के मन का हाल जान लेते हैं। इस संग्रह में लेखिका निर्मला जी ने भी तकनीकी तिरियक रेखा पर खड़े मनुष्य की बदलती मानसिक वृत्ति के चटक और फीके रंगों की कहानियाँ कही होंगी। 

एक बात की ओर आपका ध्यान और खींचना चाहूँगी। आवरण पर जो वृक्ष दिया गया है वैसे उसे बिना किसीआउटलाइनके भी बनाया जा सकता था लेकिन बनाने वाला जानता था कि सौंदर्य का सौंधापन उससे छूट जाएगा। पेड़ के चारों ओर जो वृत्त खींचा गया है उसमें रंगों की आवाजाही को तो देखिए। इसे हम रिश्तों के वायुमंडल के इर्दगिर्द सीमा रेखा भी कह सकते हैं। ये हमें बता रही है कि सीमाएँ बन्धन का नहीं खूबसूरती का प्रतीक होती हैं। आप ध्यान से देखेंगे तो परिधि रेखा में जो हरा रंग है उसमें भी कई सेड्स हैं। इससे यही ध्वनित हो रहा है कि कथाकार ने मनुष्य की मानसिक पीड़ा से लेकर शारीरिक पीड़ा और सुख-दुःख के चित्र अपनी कहानियों में सहज ही खींचे होंगे।

"रिश्तों के शहर" की कहानियों के कलेवर में आपको समकालीन आधुनिक समय के बिगड़ते मानसिक धरातल की शिनाख्त करती हुई कहानियाँ भी मिलेंगी क्योंकि आज का समय बेहद क्रूर और चालवाज है। हम अपने कमियों का ठीकरा दूसरे के सर पर फोड़ते हुए अक्सर कहते हैं कि इसने ये कर दिया, उसने ये कह दिए लेकिन सच कहें तो मनुष्य काल के हाथ की कठपुतली है। उसी के नटनी नाच में लिप्त एक बच्चा माता-पिता से, विद्यार्थी शिक्षक से, मित्र, मित्र से मिले सदभावनापूर्ण सहयोगी समर्पण को न तो स्वयं उद्धृत करता है और न ही ये चाहता है कि देनदार कभी भी अपने दैन्य भाव को उसके समक्ष प्रकट करे। सच कहें तो ये सोच भी एक प्रकार की कूटनीति का ही हिस्सा है। इसके बावजूद अगर कोई मूडी समर्पित व्यक्ति अपने अवदान को अपने मानसिक तोष के लिए कहना चाहे तो सामने वाला बिना उसे ख़बर दिए उसके साथ बने घनिष्ट रिश्ते को भी मरने की कगार पर छोड़कर लापता हो जाता है। निर्मला तोदी जी की इस कृति में इस भाव की कहानियों से भी पाठक रू-ब-रू हो सकेगा। अंत में चित्र के एक कोने पर जो सफेद रंग की तितली बैठी है वह मनुष्य की सकारात्मक सोच की पर्याय लग रही है। जब तक हमारी मुट्ठियों में सकारात्मकता बनी रहेगी रिश्तों के शहर गुलज़ार बनें रहेंगे। इसी शुभ भावना के साथ निर्मला जी को अनेक-अनेक शुभकामनाएँ!

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Comments

  1. 👌🏻👏🏻👏🏻👏🏻

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  2. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज रविवार (१३ -०३ -२०२२ ) को
    'प्रेम ...'(चर्चा अंक-४३६८)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  3. बिना पुस्तक पढ़ें सिर्फ आवरण से पूरी पुस्तक की समीक्षा सचमुच गज़ब!
    एक चित्र की छोटी से छोटी रेखा पर विहंगम दृष्टि और विश्लेषणात्मक विवेचना, कोई चित्रकार ही कर सकता है ।
    अद्भुत।

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  4. “आवरण कथा वाचन” सुंदर प्रयोग।
    हमारे शहर की निर्मला तोदी जी को पुस्तक प्रकाशन पर अनंत शुभकामनाएं।
    और रेनु जी को इस शानदार आवरण, जिसमें अद्भुत रंग और गहनता छुपी है के लिए बहुत बहुत बधाई।

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  5. पुस्तक का मुखपृष्ठ उसके विषयवस्तु के बारे में कितना कुछ कह जाता है। बहुत बहुत शुभकामनाएँ व बधाई लेखिका आदरणीया निर्मला तोदी जी को।

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