मंगलकारी मन की प्रकाशित शब्द छवियाँ


 


सोच विचारपत्रिका के बहुपठनीय लेखक प्रकाश मनु एकाग्र अंक साहित्यिक अभिरुचियाँ रखने वालों के लिए एक निधि के समान हैं। वैसे भी तमाम साहित्यिक हिंदी पत्रिकाओं के बीच सोच विचार पत्रिका का सामान्य अंक भी विशेष साहित्यिक महत्व के साथ अपना अलग स्थान रखता है। उसमें भी जब बात प्रकाश मनु जी के एकाग्र की हो तो फिर सोने पर सुहागा वाली बात हो जाती है। वैसे तो इस अंक के केंद्र में जो लेखक हैं उन से कभी व्यक्तिगत तौर से मिली नहीं हूँ लेकिन उसके बाद भी अपरिचित जैसा भाव भी नहीं है। क्योंकि जैसे-जैसे हिंदी साहित्य (जो एक असंभावित घटना की तरह मेरे जीवन में घटा) से मेरी नजदीकियाँ बढ़ने लगीं वैसे-वैसे साहित्यकारों को सुनने, समझने और पढ़ने का सिलसिला-सा चल पड़ा। पहली बार मैंने प्रकाश मनु जी की रचनाएँ किसी पत्रिका में पढ़ी थीं। वहाँ से आपके विचारों से अवगत होने का तारतम्य  शुरू हुआ। आपकी कविताओं में एक विशेष प्रकार की पुलक और धुकधुकी महसूस होती है। रचनाओं में निहित शब्द मानों उनके मन की सुन्दरता की गवाही दे रहे होते हैं। कविताओं के साथ लेखक से रू-ब-रू होने के लिए जो चित्र दिया जाता है उसे देखकर मनु जी के प्रति मन में एक सहूलियत भरे अपनत्व की तरलता-सी घुलने लगती  है। प्रकाश जी के चेहरे को जब भी देखा तब यही महसूस हुआ कि उनके चेहरे से एक गाढ़ा भारतीयपने का माधुर्य झरता रहता है। मैं ये सोचती हूँ कि कितने सौभाग्यशाली होंगे आपके बच्चे और पत्नी जिन्हें आप पिता-पति के रूप में मिले। कितने बड़भागी होंगे वे मित्र जिन्हें आपकी मित्रता सहजता से प्राप्त होगी। भारतीय किसानी कद-काठी वाले भव्य और संभ्रांत लेखक को और जानने-समझने का जब मन हुआ तो मैंने आपकी पुस्तकों की खोज करना शुरू की तो पता चला आपके द्वारा रचित तमाम किताबें हैं। इस मामले में गूगल और इंटरनेट की मैं तारीफ़ करती हूँ कि ये टूल सहज ही व्यक्ति के व्यक्तित्व और कृतित्व के बारे में पता बता देता है। खैर, मनु जी की पुस्तकों में से मैंने बालसाहित्य का इतिहास चुनकर मँगवा लिया। अभी तक जिस तरह से मैं लेखक के बारे में सोचती  रही थी उससे कहीं ज्यादा आपके शब्द आपका आपा व्यक्त करते हुए मिले।बालसाहित्य का इतिहासकी भूमिका पढ़ते हुए मैंने आपकी उर्धगामी साहित्यिक चेतना वाली सोच,कर्मठता और आपके नज़दीकी लेखकों के बारे में उदारता को विस्तार से पढ़ा।

अगर मैंसोच विचारके इस अंक की बात कहूँ तो सम्पादिकीय लेख से लेकर अंतिम पृष्ठ तक प्रकाश मनु जी के मंगलकारी मन की प्रकाशित शब्द-छवियाँ बिखरी पड़ी हैं। लेखक के आत्मीय जनों में से जिसने आपके बारे में लिखा उसने अपना शब्द-आपा सहज ही मनु जी के व्यक्तित्व पर न्योछावर कर दिया है। इस अंक में लेखक पर आई सामग्री के शीर्षकों की आत्मीयता आखिर कौन महसूस नहीं करेगा,’सतत बहता सोता’, ‘डॉक्टर मनु, जिन्हें मैं जानता हूँ’,’मुलाकात पत्थरों के जंगल में एक शब्द ऋषि से’,’उनके भीतर पालथी मारे अधकू बैठा था’,’उनकी कलम में बड़ी शक्ति है’,’उनसे मैंने बहुत कुछ सीखा और पाया है’,’हिंदी बाल साहित्य का प्रथम इतिहास’,सदाशय पारदर्शिता’,कथा कहने का निराला अंदाज’,’कुक्कू के प्रकाश मनु बनने की कहानी’,’रंग-बिरंगे खिलौनों जैसे हैं प्रकाश मनु के बाल नाटक’,तुम बेहिसाब कहाँ भागे जा रहे हो प्रकाश मनु’,पंचनद सरीखा प्रकाश मनु का काव्य-संसार’, ‘प्रकाश मनु: आइये पढ़ें खुली किताब’ 

प्रकाश मनु जी के व्यक्तित्व को लिखने व जानने वालों ने अपने-अपने आलेखों के जो शीर्ष शब्द चुने उनको पढ़ते हुए आत्मीयता की निर्झरनी झर-झर बहती हुई जान पड़ती है।प्रकाश मनु: आइये पढ़ें खुली किताबशीर्षक से शकुंतला कालरा लिखती हैं कि,”बेहद संवेदनशील बच्चा, जिसके दिल-दिमाग दोनों दरवाजों से बचपन जो आया, तो आकर बैठ ही गया।  सच ही कहा लेखिका ने आज के चालू समय में ऐसे व्यक्तित्व का मिलना बेहद कठिन और दुरूह कार्य है लेकिन मनु जी की ख्याति देखते हुए असंभव भी नहीं।

यूँ तो भारतीय साहित्य में अनेक स्वनामधन्य लेखक और लेखिकाओं ने साहित्य की फुलबगिया अपने लेखिकीय अवदान से खूब महकाई है लेकिन फिर भी दोहरे चरित्र ज्यादा देखने में आ जाते हैं। जिनकी कलम कुछ और कहती है, व्यक्तित्व कुछ और लेकिन जिस रचनाकार के मन की भव्यता उसके लिखे के साथ एकाकार होने लगती है तो प्रकाश मनु जी जैसी साहित्यिक हस्ती सामने आती है।  ये बात सिर्फ मैं ही नहीं कह रही हूँ बल्कि प्रतिष्ठित साहित्यकार आदरणीय रामदरश मिश्र जी का संस्मरण,’आत्मीयता का स्पंदनपढ़ते हुए अनेक-अनेक प्रकार से मनु जी का साधारण, सुगम व्यक्तित्व निखर-निखर कर सामने आता है। मिश्र जी के आलेख में एकाग्र लेखक के साथ-साथ साहित्यिक राजनीतिक दाँवपेंच, रचनाकार और व्यक्ति आदि का जो खाका खिंचा दिखा उसे पढ़ते हुए विगत समय का रूप देखने को मिला। साहित्य में जो समय आज चल रहा है तब भी था। एक-दूसरे के किये को लीपना, एहसान फ़रामोशी और जान समझ कर किसी के लिखे को नजरअंदाज कर देना जैसी राजनीति के बीचोंबीच रहते हुए हम सबके प्रिय लेखक प्रकाश मनु जी ने अपनी ज़रूरी जरूरतों को पीछे रखते हुए अपने आदमियत को किताबों के भीतर और बाहर बरकरार रखा। एक ऊँचे स्वाभिमान वाला व्यक्ति कैसे विषम परिस्थितियों में भी मानवीय चेतना को बनाये रखता है, मनु जी से सीखा जा सकता है। मिश्रा जी को पढ़ते हुए लेखक मनु जी का जो रेखा चित्र मन के कैनवास पर बनता चला गया वह परिचित-सा ही लगा क्योंकि जब भी प्रकाश मनु के लिखे से गुजरना हुआ तो मुझे उनकी शाब्दिक भाव-भंगिमा बेहद सौम्यतापूर्ण ही लगी। मिश्रा जी लिखते हैं,”आपके सामने एक अजनबी आदमी आकर खड़ा हो जाता है। आप उसे देखते हैं, मन ही मन सोचते हैं- कौन है यह निपट देहाती-सा आदमी। शक्ल-सूरत से  गाँव के वेशभूषा में गाँव का, आँखों में राग-दीप्त ऊर्जा और पूरे अस्तित्व में एक संकुचित शालीनता।यहाँ पर सिर्फशालीनताशब्द का प्रयोग भी किया जा सकता था लेकिन वह शब्द मनु जी के व्यक्तित्व को उतना न कह पाता जितना लेखक नेसंकुचित शालीनताकह कर उजागर किया है। एक व्यक्ति दूसरे को इतनी सहजता से तब ही लिख पता है जब उसका अंतर्मन स्वयं सहज होता है। आदरणीय रामदरश मिश्र जी से मेरा मिलना एक बार ही हुआ है किन्तु आप से जुड़ीं मोहक स्मृतियाँ आज भी  सजीव हैं। खैर, आपने जो कुछ मनु जी को लेकर लिखा है, मानो उसे लिखकर विचारपूर्ण जीवन की सूक्तियाँ हमें पकड़ाते गये हैं। कैसे उथल-पुथल भरे माहौल में प्रकाश मनु जी ने मानवीय तटस्थता को अन्तस् में सहेजकर अपने आपको आदमी बनाने की प्रक्रिया में सुहृदय व्यक्ति बनाकर कैसे पृथ्वी पर प्रस्तुत किया है।

उसके बाद आपकी पत्नी सुनीता जी के द्वारा लिखा संस्मरणकुछ यादें खट्टी-मीठीपढ़कर तो जैसे परेशानियों से निपटने की ताकत-सी मिल गयी। मेरा एक कमज़ोर विश्वास था कि प्रतिभावान व्यक्ति भी तभी सफल हो सकता है जब उसे उसके अनुकूल अच्छा सुव्यवस्थित माहौल मिलता है लेकिन सुनीता जी के संस्मरण में व्यक्तिगत से लेकर विद्यालयी, सामाजिक और साहित्यिक माहौल के मानसिक तथा ज़मीनी अभावों का लेखा-जोखा पढ़कर आप दोनों के प्रति मेरी पलकें श्रद्धानत हो नम हो गयीं। सच कहूँ तो सुनीता जी के व्यक्तिगत अनुभव पढ़कर मुझे मानसिक रूप से ताकत-सी मिली कि अभावों में भी जिजीविषा को कैसे उर में धारण कर एक जुनूनी व्यक्ति समाज में अपनी धारदार उपस्थिति दर्ज करवा लेता है। सुनीता जी का अपने पति के प्रति उदार समर्पण वैदिक कालीन स्त्रियों की तरह बेहद आत्मीय लगा बल्कि ये कहना अतिशयोक्ति न होगा कि आप दोनों की छवियाँ मिलकर एक प्रकाश मनु पुंज के रूप में हमें दिख रही हैं। 

सबसे अंत में मैंने प्रिय लेखक प्रकाश मनु जी का आत्मकथ्य पढ़ा तो वैसा ही महसूस हुआ जैसे भोजन के बाद लोग मीठा खाकर अपना स्वाद बनाते हैं। उनके आत्मकथ्य का शीर्षकमैंने किताबों से एक घर बनाया हैउनके जीवन की कहानी कहता हुआ-सा लगा। अतिथि संपादक वेद मित्र शुक्ल जी को पुनः पढ़ते हुए यही कहूँगी कि आपकी मेहनत सराहनीय है। आप यूँ ही पुनीत साहित्यक कार्य करते रहें। अस्तु! 

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