शिकायतें हुईं कृतज्ञता में परिवर्तित
भारतीय वायु सेना में कार्यरत पति की
पत्नी होने के नाते भारत के उन तमाम हिस्सों का अवलोकन विस्तार से कर सकी जो आम जन
की पहुँच के बाहर रहते हैं। भिन्न संस्कृतियों और भाषाओं के सरोकारों को नज़दीक से
देख सकी। मैं कहना चाहूँगी कि पति की इस वायु सेना की साहसिक यात्रा में गणमान्य
व्यक्तियों से भेंट और भारतीय अंचलों की यात्राएँ आदि ही मेरे जीवन का हासिल कहा
जा सकता है।
जिस बात का जिक्र मैं करने जा रही हूँ वह काफ़ी पुरानी है लेकिन जीवन के इतने नज़दीक है कि उसे भूल नहीं सकी। मुझे याद आता है, वर्ष 1998 में मैं राजीव (पति) के साथ पूर्णिया बिहार के ‘चूनापुर एयरोड्राम’ से ट्रांसफर होकर गांधीनगर गुजरात के सेक्टर 25 में 258 सिग्नल यूनिट में आई थी। हमेशा की तरह हम नयी जगह के तौर-तरीके अपनाने के वास्ते ढेर सारी चिंताओं और थोड़ी-सी पुलक लिए गुजरात की ज़मीन पर पहुँच चुके थे। वहाँ की आबोहवा हमें रास आने लगी थी। गांधीनगर का भौगोलिक कल्चर हो या मानवीय, अन्य जगहों की अपेक्षा मुझे ज्यादा उन्मुक्त और सराहनीय लगा था। वहाँ की सुबह गौरैया की तरह मद्धिम स्वर में बोलते हुए चुपके से हमारी बालकनी में आ बैठती और शाम खुबसूरत मोरनी की भाँति छतों और पार्कों में पंख खोलकर नाचती तो प्रकृति की भव्यता मेरे भावुक मन को लालित्य से भर जाती।
बदलते सालों के दरमियान वर्ष 2000 को विदाई देकर हमने 2001 नववर्ष को आलिंगनबद्ध कर अपने घर में स्थापित किया था। जनवरी माह गणतन्त्र दिवस की तैयारी में मग्न था क्योंकि भारत के लिए ये 51वाँ गणतंत्र दिवस बेहद महत्वपूर्ण था। वर्ष 2001 जनवरी महीने की 26 तारीख़ सुबह 08:46 बजे, 2 मिनट से अधिक समय तक चलने वाले भूकंप ने अनचाही तबाही मचा दी। भूकंप का केंद्र भारत में गुजरात के कच्छ जिले के भुज तालुका में चबारी गाँव के लगभग 9 कि.मी. दक्षिण-पश्चिम में था। भारत में 51वें गणतंत्र दिवस मनाने की जो तैयारियाँ चल ही रही थीं, उनका रंग देखते-देखते फ़ीका पड़ गया। भारत की गुजराती भूमि पर ऐसा एतिहासिक दैवीय हादसा हुआ कि सभी सरकारी और गैर-सरकारी सारी मुहीमों को रद्द करवा कर रख दिया था। धरती के मौन विचलन ने न केवल भुज-कच्छ में बल्कि लगभग चार सौ किलोमीटर दूर गांधीनगर और अहमदाबाद की ज़मीन को भी हिलाकर रख दिया था। गुजरात के उस भूकंप के झटके उत्तर भारत में भी महसूस किये गये थे। क्रूर भूकंप से भारी जनहानि हुई, हजारों लोग देखते-देखते काल के गाल में समाते चले गए। मेरे लिए ये प्राकृतिक आपदा का पहला वीभत्स अध्याय खुल रहा था। पक्षियों की आवाजों में आकाश जैसा अवकाश महसूस हो रहा था। समय की आहट हमारी धड़कनों में सिमट आई थी और हम निरुपाय ईश्वर से सब कुछ पहले जैसा करने की बात कहे जा रहे थे।
खैर, उस बार 26 जनवरी पर पहली बार बेटे ने कहा था कि उसे स्कूल की परेड झाँकी देखने नहीं जाना है। वह तब कक्षा पाँचवी में पढ़ रहा था सो उसको सुला दिया। राजीव तैयार होकर ऑफिस चले गये। उस समय मेरा भाई हर्ष भी मेरे साथ ही रहता था। वह अपनी C.S. की internship अदानी कंपनी में कर रहा था लेकिन ऑफिस जाना उसने भी स्थगित कर दिया था। कुल मिलाकर मेरे लिए पुनः सोने का एक सुयोग-सा उस दिन बन गया था सो ओशो-दर्शन की पत्रिका उठाकर बेटे के साथ चुपचाप सोने चली गयी। अभी मैं अलसाती ही जा रही थी कि मेरा बेड हिलने लगा। कुछ सोचती-समझती कि एकदम से भयंकर शोर से वातावरण गूँजने लगा। बालकनी में आकर देखा तो लोग पागलों की भाँति इधर-उधर भाग रहे थे। भूकंप के झटके अभी भी आते ही जा रहे थे लेकिन उनकी तीव्रता कम हो चुकी थी। बिना सोचे-समझे भाई ने बेटे को गोदी में उठाया और हम दोनों भी दूसरी मज़िल से लुढ़कते-पुढ़कते, घक्का खाते-खाते सड़क तक आ गये। अभी तक मुझे राजीव का ख्याल नहीं था लेकिन जैसे ही हम सुरक्षित हुए, मुझे बेचैनी सताने लगी। तरह-तरह की बुरी आशंकाओं ने मुझे बेकाबू कर दिया लेकिन मेरे पास राजीव की खबर जानने का कोई उपाय नहीं था। सड़क पर जन सैलाब उमड़ पड़ा था चूँकि गांधीनगर की धरती इतनी नहीं डोली थी कि मकान ज़मींदोज़ हो जाते लेकिन दीवारों में गहरी दरारें देखी जा सकती थीं। हाँ,जिनके रिश्तेदार भुज, कच्छ या अहमदाबाद में थे वे लोग बेहाल हुए जा रहे थे। पहली बार मानव पीड़ा का सामूहिक रूप मेरे सामने मुँह खोले पसरा हुआ था।
सुबह से दोपहर हो गयी थी लेकिन कोई भी अपने घर की ओर नहीं मुड़ रहा था। उस समय मेरे पास मोबाइल नहीं था। जो कुछ था बस प्रार्थनाओं में राजीव की कुशल मनाती जा रही थी। जीवन अतुकांत कविता की तरह परिभाषित हो रहा था। भाई ने बहुत दिलाशा दी और बेटे को भूखा देखकर मैंने घर लौटने की हिम्मत जुटाई। तीन बजते-बजते राजीव भी अपनी ड्यूटी से लौट आये थे। उनके चेहरे से भी मुस्कान गायब हो चुकी थी। दरवाज़ा खोलते ही हम सब एक दूसरे को सुरक्षित देखकर फफक पड़े। वे शायद हमारे ख़ुशी के आँसू थे। भयंकर दहशत के बीच मैंने खाना बनाया और हम लोग ने डरते हुए थोड़ा-बहुत खाना खाया। उसके बाद राजीव ने जैसे ही टी.वी. खोला भुज और अहमदाबाद की चीखों से सारे न्यूज चैनल दहला रहे थे। मृत्यु के ज़िंदा नज़ारे हमारे सामने अनावृत हो उठे। जीवन का कठिन दर्शनशास्त्र सहजता से मुझे समझ आ रहा था। कोई किसी से नहीं बोल रहा था क्योंकि भूकंप के झटकों के साथ एक-दूसरे से बिछड़ने की किरचें हमारे सीने में धंसती जा रही थीं। न्यूज में बराबर बताया जा रहा था कि बड़ी रिक्टल स्केल वाला कंपन अभी भी आ सकता है। ये तो सभी जानते हैं कि मौत से बड़ा मौत का डर होता है सो सहमना लाज़मी था। अख़बारों में बस तबाही का मंज़र ही लिखा जा रहा था। मानव और मानवता को इतना सहमा हुआ मैंने कभी नहीं देखा था।
गांधीनगर के सेक्टर नौ में मेरा सरकारी आवास था। 26 जनवरी की रात अपनी भयंकरता के साथ आसमान से उतरी थी। जो दीवारें हमारे सुरक्षित होने का पर्याय हुआ करती थीं, वे डराने लगीं। दो-चार स्थानीय दबंग टाइप के लोगों ने निश्चय किया कि कोई भी घर के अंदर नहीं सोयेगा। उस रात नौ सेक्टर छावनी में तब्दील हो गया था। कौन छोटा, कौन बड़ा का भेद सभी के मन से तिरोहित हो चुका था। बिल्डिगों से दूर सड़क के किनारों पर सर्विस वाली चारपाइयाँ, तख्त और फोल्डिंग पलंग निकल आये थे। मच्छरदानियों की दीवारें और चादरों की छतों के नीचे लगभग हम चार-पाँच दिन या इससे भी ज्यादा दिनों तक हमने उसी हालत में अधसोई रातें गुजारी थीं। मैं कल्पना भी नहीं कर पा रही थी जिस व्यक्ति के लिए हमेशा अपनी ड्यूटी सर्वोपरि रहती आ रही थी, वह कर्तव्यनिष्ठ देश के हित में पूर्ण समर्पित व्यक्ति अपने परिवार से भी प्रेम कर सकता है? मेरे लिए ये अचंभे से कम नहीं था क्योंकि भले हमारी शादी को नौ साल बीत चुके थे लेकिन अंतर्मुखी राजीव बाजपेयी को जानना अभी भी बाकी था। वह समय व्यक्तिगत तौर पर हमारे लिए शील का शील से,संकोच का संकोच से और मर्यादा का मर्यादा से मिलने जैसा था। मैं अभी तक उनकी उस बात से चिढ़ती आ रही थी कि सभी के पति ड्यूटी टाइम में अपने परिवार की ‘सिक रिपोर्ट’ करवाने ले जाते हैं लेकिन राजीव हमेशा कहते आ रहे थे कि सरकार मुझे ड्यूटी के पैसे देती है, तुम्हारी देखभाल के नहीं, तुम्हें मैं बाद में भी दिखा सकता हूँ और उनके इतना कहते ही मेरी अनभिज्ञ अपेक्षाएँ उपेक्षाओं में बदल जाती रही थीं लेकिन भुज के भूकंप ने राजीव का वह भावुक पहलू भी नुमाया किया जो मेरी ओर से कभी परखा नहीं गया था। सच कहूँ तो ‘जब बी मेट’ जैसी नाज़ुक फ़ीलिंग से हमारा मन आप्लावित हो गया था। शिकायतों ने चुपके से कृतज्ञता का रूप धर लिया था।
“छाया मत छूना / मन, होगा दुख दूना / जीवन में हैं सुरंग सुधियाँ सुहावनी /छवियों की चित्र-गंध फैली मनभावनी; तन-सुगंध शेष रही, बीत गई यामिनी/ कुंतल के फूलों की याद बनी चाँदनी /भूली सी एक छुअन बनता हर जीवित क्षण/छाया मत छूना / मन, होगा दुख दूना।”
गिरिजाकुमार माथुर की ये कविता मुझे
बेहद पसंद है क्योंकि इसके अर्थ को हर परिस्थिति में ग्रहण किया जा सकता है। अर्थात अतीत की पुरानी खुशनुमा यादों में पुनः जीने
के लिए जिस प्रकार कवि मना कर रहा है, वह निश्चित ही कारगर तरीका हो सकता है,
स्वयं को खुश रखने का क्योंकि कवि के अनुसार जब हम अपने अतीत के बीते हुए सुनहरे पलों को याद
करते हैं, तो वे हमें बहुत प्यारे लगने लगते
हैं परन्तु वर्तमान में यदि उस प्रकार की
अनुकूलता विलुप्त मिली तो तनावपूर्ण परिस्थिति को झेलना हमारे लिए भारी संकट का
कार्य हो जाएगा। इस तरह हृदय में छुपे हुए घाव हरे होकर हमें पीड़ा देकर हमारा दुःख
न बढ़ा जाएँ इसलिए यादों की छाया छूने के लिए कवि मना करता है। लेकिन मेरे लिए
सुख-दुःख दोनों एक दूसरे के पर्याय बन कर कहीं अतीत के डिब्बे में बंद पड़े रहते हैं। किसी एक से रू-ब-रू
होना मेरे लिए कठिन है इसलिए जब भी स्मृतियाँ उस सफ़े को मेरे आगे उजागर करती हैं
सब एक साथ गड्डमड्ड होकर मुझे दूर तक बहाए लिए जाती हैं और मैं सहर्ष शुष्क और
मृदुल भाव छवियों की चित्र-गंध में देर तक भींगती
रहती हूँ।
***
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार(०७-०१ -२०२२ ) को
'कह तो दे कि वो सुन रहा है'(चर्चा अंक-४३०२) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर