शब्द बुनकर.......!

अभी कुछ समय पहले प्रख्यात लेखक डॉ. अमरेंद्र मिश्र जी ने एक पोस्ट लिखी थी। जिसमें साहित्य जो रचता है क्या वह खुद है? या जो साहित्यकार कहलवाना चाहता है, जो सच में साहित्यकार बन चुका है, जिसे साहित्य समाज की स्वीकृति मिल चुकी है। उसके भीतर-बाहर का वातावरण कैसा होना चाहिए........ निश्चित तौर पर आप साहित्य सृजन की मंशा को समझने वाले लेखक हैं। आपका लेख बेहद पठनीय और विचारणीय है।

तदनुसार अभी हाल ही में मैंने भी एक काव्य गोष्ठी में प्रतिभाग किया था। संचालक महोदय स्वयं में नामी कवि वहाँ मौजूद थे। लेकिन जिस प्रकार से वे कविता के रचियताओं से मुखातिब होकर उनको आवाज़ दे रहे थे या उनकी उपस्थिति से वातावरण में जो ऊर्जा विकसित और उत्सर्जित हो रही थी, उससे मुझे न घृणा,नाराज़गी,शर्मिंदगी और न ही क्रोध आ रहा था बल्कि साहित्य के प्रति उनका छिछलापन और आवारापन देखकर मैं आकंठ क्षोभ में डूबती जा रही थी। मुझे लग रहा था कि मेरी तरह से कविता भी मन ही मन ज़रूर कराह उठी होगी। उनके अभद्र कहकहों से उसकी भी देह नीली पड़ गई होगी लेकिन कौन जानने वाला बैठा है, कविता के मनोभावों को.......। मंच छोड़ कर इसलिए नहीं भाग सकी क्योंकि आमंत्रण देने वाले की और भाषा के मंच की अपनी गरिमा थी।

क्या सच में हम सिर्फ़ छपने के लिए लिख रहे हैं? या लिखना फैशन में आ चुका है?

क्या जिन रूढ़ियों का खंडन-मंडन हम अपनी रचनाओं में करते रहते हैं, क्या उन रुढियों से धीरे-धीरे ही सही बाहर आ पा रहे हैं? हम जो रच रहे हैं क्या अपने भीतर भी उतार रहे हैं? क्या हमारे द्वारा रचे गये साहित्य से अगली पीढ़ी में प्रेम, सद्भावना, भाईचारा आदि सद्गुणों का विकास होगा? क्या उनमें भारतीयता बच पायेगी? या हमारे साहित्य को सिर्फ संपादक, प्रकाशक और लेखक ही पढ़कर ख़ुशी मनायेंगे? जितनी साहित्य में शुचिता होनी चाहिए क्या उसके रचियता में उस शुचिता की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए? इसी प्रकार के न जाने कितने ही प्रश्न हैं जो मुझे साहित्य की चौखट से मोह भंग की सीमा तक ले जाते हैं।

वैसे भी साहित्यिक क्षेत्रों में एक अवहेलना की स्थिति बनती जा रही है। पहले मुझे देखो, पहले मुझे पढ़ो, पहले मुझे छापो का एक बेजान रेला रचनाकार को धकेलता जा रहा है। हम कागज़ रंग-रंगकर पोथियों पर पोथियाँ अपने नाम निकलवाते जा रहे हैं। उससे साहित्य संरक्षण का तो पता नहीं लेकिन वृक्षों के घरानों में दहशत ज़रूर महसूस की जा सकती है।

वैसे देखा जाए तो आजकल की सृजन धर्मिता देखकर माँ शारदे कितनी प्रसन्न होती होंगी....अपने पुत्रों और पुत्रियों की सृजन क्षमता पर क्क्योंया वे निहाल न होती होंगी।किसी ने सही कहा कि साहित्य सृजन का ये अमृत काल है। आज पाठक से ज्यादा लेखक पैदा हो चुके हैं। लेकिन क्या कोई बुनकर अभद्र होकर भद्र कपड़ा बुन सकता है? और यदि बन भी लेता है तो क्या उससे कसी का भला हो सकेगा? क्या हथकरघे पर प्रस्तुत होने के उसके अपने कुछ मानदंड नहीं होने चाहिए? आख़िर हैं तो हम भी शब्द बुनकर ही! फिर इतनी अनभिज्ञता क्यों....?अस्तु 

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Comments

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार(०६-०१ -२०२२ ) को
    'लेखनी नि:सृत मुकुल सवेरे'(चर्चा अंक-४३०१)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  2. कल्पना जी आपके लेख के हर शब्द से मैं पूरी तरह सहमत हूंँ या कहूँ की ऐसा ही मिलता जुलता कई बार अपनी डायरी में लिख फाड़ चुकी हूँ।
    कभी भी सार्वजनिक नहीं लिख पाई।

    आपका ये लेख हर लिखने वालों को चिन्तन तो जरूर देखा।
    साधुवाद ।

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  3. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति

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