वस्तुओं की हथेलियों में



हमारी हथेलियों की तरह से ही वस्तुओं की हथेली में समय के दाग़ होते हैं, कुछ अमिट रेखायें और ऋतु चक्र होते हैं। उनका जीवन भी हमारे जीवन से प्रभावित होता है क्योंकि उनकी मुट्ठियों में हमारे जीवन की मिठास और खटास मौन रूप से बन्द पड़ी होती है। जिसे हम काल की चपेट में आकर भले भूल जाते हैं लेकिन वस्तुएँ उन्हें नहीं भूलतीं। समय उनके हृदय से उन बातों को हिलाना चाहता है पर चाहकर भी हिला डुलाकर मिटा नहीं पाता। समय मत्समौला मलंग बनकर अथक बटोही-सा चलता, चलता बस चलता जाता है लेकिन वस्तुयें ऐसे मनमौजी वक्त को भी वैसे ही प्रेम और ममता से अपने अंतर में सहेज लेती हैं, जैसे स्वयं समय अपने हमजोली मौसमों को सहेजता है। दरअसल वस्तुएँ समय से टक्कर लेने का माद्दा रखती हैं। 

वस्तुओं की एक अपनी ही जुबान होती है। इतिहास उसकी भाषा और व्याकरण को समझता है। क्या इतिहास वस्तुओं का सहयात्री होता है? इस बात को प्रख्यात इतिहासकार रामचन्द्र गुहा जी अच्छे तरह से जानते होंगे। वस्तुओं को जब ध्यान से देखो तो वे धीरे-धीरे हमारे कानों में कुछ-कुछ फुसफुसाने लगती हैं। हमें उनकी भाषा अगर आती होती तो न जाने वस्तुओं के माध्यम से हम कितने राज़ जान गये होते। गांधारी महाभारत के मायावी रचाव को  रोक सकती थी। खैर, वस्तुओं की डायरी में कई-कई पीढ़ियों के अनगढ़ संस्मरण ज्यों के त्यों अंकित होते हैं, उन्हें पढ़ा जाना सम्भव होता तो कितनी लड़ाइयाँ समझौते में बदल गयी होतीं। कितनी साज़िशे वक्त के पहले ही खत्म कर दी जातीं। हमारी आँखों से कुछ नहीं बहुत कुछ अनदेखा छूट जाता है लेकिन वस्तुओं की आँखें अनदेखा भी सहेज लेती हैं। वे प्रेम के मौन रूप को भी पढ़कर अपने रोजनामचे में लिख लेती हैं। वस्तुओं का मन हम भेल न पढ़ पाते हों लेकिन वे हमारा मन पढ़ना अच्छी तरह से जानती हैं। उनको छूने पर पता चलता है कि उनकी देहों पर रिश्तों की गहरी खरोंचें मौजूद होती हैं।जिनमें सुख-दुःख का सागर हिलोरें लेता रहता है। 

इस बात को वस्तुओं को छूने पर महसूस किया जा सकता है उनकी देह पर लगी खरोंचों में एक अलग प्रकार का लहकता हुआ गाढ़ा-गाढ़ा रंग भरा होता है। तभी तो वस्तुओं को छूते ही हम किसी बीते हुए रंग में सराबोर हो उठते हैं। भावनाओं के सघन परिदृश्य,वस्तुओं की गिरह में कभी भी टटोले ले जा सकते हैं। पुरानी बातें लिखने पर भले लेखक नॉस्टैल्जिया पीड़ित कहा जाता हो पर क्या वर्तमान, भूत और भविष्य के सहारे अपने को जीवित नहीं रखता? अतीत के कांधे जितने मजबूत-कमजोर होंगे हमारे वर्तमान का मुखड़ा वैसा ही होगा। दरअसल भूत की गोद से उतर कर ही वक्त वर्तमान बनकर जीवन की चौखट पर पहुँचता है और भविष्य की तैयारी करता है। क्या हमारे साधारण से देखने वालेदिनके इर्द-गिर्द अतीत,वर्तमान और भविष्य के चर्चे पर्चे बिखरे नहीं रहते? यह कहना गलत न होगा कि वस्तुएँ हमसे उदार और समझदार होती हैं। वे बिना जजमेंटल हुए अपने हृदय में अनगिनत पीढ़ियों का गुबार बिना थके सहेजे रहती हैं। शायद ये ही जीवन है और इस जीवन से हमें प्यार है।

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