सूर्योदय से सूर्यास्त के बीच संवाद करती कहानियाँ
लेखिका : प्रगति गुप्ता
कृति : स्टेपल्ड पर्चियाँ
प्रकाशन :
भारतीय ज्ञानपीठ
मूल्य : 220/-
हम कितने ही तीन-तोफ़ान क्यों न बाँध लें, जिंदगी से हार ही जाते हैं। और जिंदगी हमारे साथ निहत्था चलकर भी जीत जाती है। हम अपनी परम्पराओं में प्रकृति को बुनना चाहते हैं लेकिन वह अपनी परम्पराओं में स्वतंत्र है,भूल जाते हैं। हमारे और प्रकृति के बीच रस्साकसी का खेल जन्म से प्रारम्भ होकर चार काँधों पर पहुँचने पर भी विराम नहीं लेता। वैसे तो हम जन्म और मृत्यु के बीच वह सब कर लेना चाहते हैं जो हमें समझ आता है। और जब किसी बात को समझने में दिक्कत होने लगती है तब हम उसे लिखकर सहेज लेते हैं। इसी को साहित्य भी कहते हैं और रोज़नामचा भी। जो बातें हम रोज़नामचा में ये सोचकर लिख लेते हैं कि समय मिलने पर समझकर क्रियान्वित करेंगे वे ही बातें अपनी तासीर के अनुसार हमें सुख-दुःख की अनुभूति कराती हैं। ’स्टेपल्ड पर्चियाँ’ कहानी संग्रह की शीर्ष कहानी है। जिसमें नायिका उक्त बातों की व्यनाजनात्मक भूमिका समझने की कोशिश करके भी समझ नहीं पाती।लेकिन इंसान जो की मशीनी भूमिका में आता जा रहा है लेकिन लौह निर्णय नहीं ले पाता।”मशीनों में अद्भुत क्षमता होती है वे बड़ी खामोशी से ना कहकर मुकर जाती हैं और मनुष्य के पास शब्द होते हुए भी उनकी ओढ़ी खामोशी मुकरने के मौके नहीं देती।”
खैर, पंडित विद्यानिवास मिश्र ने अपने एक निबन्ध’लोक की पहचान’ में लिखा है-”इस लोक में मनुष्यों का समूह ही नहीं, सृष्टि के चर-अचर सभी सम्मिलित हैं, पशु-पक्षी, वृक्ष-नदी, पर्वत सब लोक हैं और सबके साथ साझेदारी की भावना ही लोकदृष्टि है, सबको साथ लेकर चलना ही लोक संग्रह है और इन सबके बीच जीना लोक यात्रा।”
पंडित जी का कथन यहाँ इसलिए कहना उचित है क्योंकि एक रचनाकार अपनी कहानियों में उक्त सभी को विषय बनाकर लिखता है। कहानियाँ मनुष्य और प्रकृति के बीच,व्यक्त और अव्यक्त के मध्य एक सहभागिता का संवाद स्थापित करती हैं। इस कहानीकार ने भी मानव-केन्द्रित समाज के द्वन्द्वों को सहर्ष अपनी रचनाओं में स्थान दिया ही है साथ में लोक-परम्परा,पुरातन आदिम परम्परा, जीवित परंपरा,व्यतीत हुई परंपरा अथवा जो निरंतर चल रही है, उस जीवित तरंगित बदलावकारी परंपरा की अंतर्ध्वानियों को भी कहानियों में अंतर्निहित किया है। मैं बात कर रही हूँ उभरती हुई कथाकार प्रगति गुप्ता की। अभी हाल में आपका कथा संग्रह ’स्टेपल्ड पर्चियाँ’ प्रतिष्ठित संस्थान भारतीय ज्ञानपीठ से आया है। इस संग्रह में ग्यारह कहानियाँ संग्रहित हैं। जैसा कि उन्होंने अपने ‘कुछ शब्द….’ प्राक्कथन के माध्यम से बताया भी है कि इस संग्रह की सभी कहानियाँ हिंदी के अनुभवशील संपादकों के हाथों से गुजरते हुए प्रगतिशील और बहुपठनीय पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। एक ये बात इन कहानियों में सारगर्भिता होगी ही, की आश्वस्ति कराती है। दूसरे कहानियों में लेखिका द्वारा जो मुद्दे उठाये गये हैं वे समकालीन यथार्थ के हमारे, तुम्हारे, उसके, इसके बीच से ही लिए गये हैं। इसलिए पढ़ते हुए लगता है कि अरे! ये दृश्य तो देखा हुआ है। दरअसल पाठक जब संग्रह की कहानियाँ पढ़ना शुरू करता है तो वह कहानियों में स्वत: प्रवाहित होने लगता है। ऐसे भी कह सकते हैं कि पढ़ते हुए कहानियाँ ख़ुद हमारे भीतर बहने लगती हैं। क्योंकि कहानियों में लेखक और पाठक का एक पुष्ट तदात्म नज़र आता है।
संग्रह की पहली कहानी ‘अदृश्य आवाज़ों का विसर्जन’ स्त्रीजीवन की बिडम्बनाओं का घटित-अघटित के माध्यम एक दर्दनाक वितान बुना गया है। चूँकि ध्वनियाँ कभी मरती नहीं हैं इसलिए लेखिका सभी प्रकार से मृत बालिका-ध्वनियों को समुद्र के किनारे ले जाकर सूर्योदय से सूर्यास्त के बीच संवाद स्थापित करवाती हैं। स्त्री जीवन का एक रेखीय विषाद और सागर की विराटता को लेखिका ने संतुलित करते हुए बुना है जो हमारी आँखों की कोरें गीली करने में सक्षम है।”उसकी पीड़ाओं से उपजे आसुओं को शब्द शायद समुद्र ही सहृदयता से स्वीकार कर उसे हल्का कर सकता था। लहरों के साथ रात भर बेचैन बिचरने की वजह भी उसकी सहृदयता ही थी। किसी की पीड़ा और बेचैनी को खुद में समेटना छोटी बात नहीं हो सकती।”
‘गुम होते क्रेडिट-कार्डस’ में नायिका पति के बराबर
की कामकाज़ी और धनोपार्जन करने वाली डॉक्टर है लेकिन पति का नज़रिया रुढ़िवादी व
पुरुवादी होने के कारण उसे अपना चमकदार आकाश अवकाश में विलीन करना पड़ता है। हमारे
समाज की ये नियति है कि स्त्री भले काबिल हो उसके हाथों का पैनापन छीनकर उसे
निहत्था बना दो ताकि वह पुरुष के कब्जे में रह सके। जब पीड़िता को उसे होश आता है
तब तक उसकी क्षमताओं के ‘टूल’ बेधार हो
चुके होते हैं। ये एक अच्छी कहानी है। ”तुम संभाल
पाओगे घर की जिम्मेदारियाँ? ना तो तुमने कभी घर का काम किया
है ना ही तुम्हें कोई इंटरेस्ट है। अगर हम दोनों सामने खड़े हो तो माँ और पापा को
भी अपने सभी काम मेरे से ही करवाने होते हैं।”
‘खिलवाड़’ कहानी के माध्यम से लेखिका ने उस बिंदु को छूना चाहा है जिस पर आज का युवा खड़ा है। समय के साथ हमारा उत्त्थान-पतन जुड़ा ही रहता है। जितनी ये बात सत्य है, उतनी ये कि हम मेहनत करके कुछ भी हासिल कर सकते हैं। आज का युवा धन उगाही में तत्पर तो है लेकिन अपनी संस्कृति और धन सहेजने में नहीं। जबकि हमारा धरातल मजबूत है लेकिन उसे उसपर विशवास नहीं। इस कहानी की यही पीड़ा है। ”जानती हूँ बेटा तुम्हारी जिंदगी है- फिर मन ही मन में बुदबुदाती जाती ‘पर तुम भी तो मेरी बेटी हो . मेरे शरीर का हिस्सा मेरी जिंदगी का हिस्सा शायद मेरा बहुत कुछ।”
‘अनुत्तरित प्रश्न’ ऐसे अभिभावक की कहानी है
जो अपना पूरा जीवन ऐसे बेटे के लिए हवन कर देते हैं जो हार्मोन असंतुलन और अपनी
मनमानी के चलते सेक्स परिवर्तन करवाने पर आमादा हो रहता है। कथा में दो स्त्रियों
के मृदुल रिश्तों को इस तरह बुना गया कि मन सुख-दुःख के मिश्रित भाव से भीग जाता
है। कहानी में एक पत्नी,बच्चा,वह
व्यक्ति जो दो मनोभावों को कैरी करता है और एक वृद्ध होते अभिभावक…..के द्वारा
मार्मिक चित्र देखने को मिलते हैं।
’तमांचा’ कहानी में हमारे भारतीय तन-मन वाले युवा जब पाश्चात्य चोला पहन लेते हैं तब वे अपने को भारतीय सड़कों पर चलते हुए भी यूरोपीय समझने की गलती कर बैठते हैं। उनके इस व्यवहार से एक जिन्दगी तबाह नहीं होती बल्कि कई जिंदगियाँ एक साथ दर्द के दलदल में गोते लगा रहीं होती हैं। आज के युवा छलना परम्पराएं बना तो रहे हैं जब वे स्वयं बूढ़े होंगे तो उन्हें पछताने की मौहलत भी नहीं मिलेगी। कहानी का मूल उद्देश इसी में निहित है।
‘सोलह दिन का सफ़र’ में एक स्त्री के संसार
से प्रयाण के पश्चात उसके दूसरे लोक तक जाने की गाथा है। कैसे एक स्त्री पुरुष
सत्तात्मकता का जहर पीती है,कहानी बेहद मार्मिक बन पड़ी है।
कहानी के कई दृश्य रुलाने का माद्दा रखते हैं।
‘गलत कौन’ इस कहानी का शीर्षक अपने आप में आज का शाश्वत सत्य छिपाए बैठा है। इसी बात का तो रोना है कि आज के दुःख, द्वेष, घृणा, असहिष्णुता और अमानवीयता के प्रचार-प्रसार में गलत कौन है? कथाकार ने अपनी कथा में इस प्रश्न का हल तो नहीं दिया, हाँ,अमानवीय स्थितियाँ समझने और समझाने के लिए कई-कई उदाहरण प्रस्तुत किये हैं।जब कोई इसे पढ़ेगा तो ज़रूर सोचने पर मज़बूर होगा।
दरअसल कहानियों में तीनों काल समानांतर गति करते हैं।
जिसकी याददाश्त- संवेदनात्मक समझ जितनी मजबूत होती है, कहानियाँ उतनी ही पठनीय होती हैं। प्रगति गुप्ता के पास भी एक गहरी अवलोकन
क्षमता है। उसी की बागडोर सम्हाले हुए वे कहानी कहती चलती हैं। उनकी कहानी
‘काश’,’बी-प्रैक्टिकल’और ’माँ मैं जान गई हूँ’ हों
या और कहानियों में समकालीन व्यथा को गहराई से शब्द दिए गये हैं। मूलतः
आपकी कहानियों का मूल स्वर रिश्तों से उपजा अवसाद, आदमी के
प्रति आदमी की उदासीनता,स्त्री के प्रति पुरुष का छिछला
नज़रिया,मानवीय जिजिविषा में बाज़ारवाद की ठेस और स्व शक्तियों
की विपन्नता है। इस संग्रह में जितनी भी कहानियाँ है उसमें लेखिका के हृदय की
मानवीयता और बहुत नहीं तो कुछ तो कहीं थोड़ा ही सही,‘ठीक हो
सके’ वाली सहज अभिव्यक्ति हुई है। आप यूँ ही लिखती रहें। इसी
कामना के साथ मैं अपनी कलम को विराम देती हूँ…! अस्तु!
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बहुत बहुत शुक्रिया मनोरमा .. आप कहानियों के मर्म तक पहुंचे। लेखन सार्थक हुआ।
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