नकटौरा-चित्रा मुद्गल

 "आओ आवरण बाँचें" में चित्रा मुद्गल जी की कृतिनकटौराके आवरण और शीर्षक पर कुछ बातें की जाएँ।

जीवन एक खेल है। बचपन में कई-कई बार सुना होगा किन्तु कभी भी उतना समझ नहीं आया जितना जानने की इच्छा थी। लेकिन जैसे-जैसे जीवन गति करता गया, समझ अपने मानक स्थापित करती गयी। नतीज़ा खेल की महिमा थोड़ी-थोड़ी समझ आना शुरू हुई कि खेल कई नियमों एवं रिवाजों द्वारा संचालित होने वाली एक प्रतियोगी गतिविधि है। सामान्यतः खेल को एक संगठित, प्रतिस्पर्धात्मक और प्रशिक्षित शारीरिक गतिविधि के रूप में परिभाषित किया जाताहै,जिसमें प्रतिबद्धता तथा निष्पक्षता होती है। जब और जाना तो पता चला कि खेल के भी कई प्रकार होते हैं। साधारण खेल में हरा थका आदमी बच्चों के खेल देखकर या अपने खेल खेलकर मन हल्का कर सकता है। दूसरा खेल महाभारत में भी खेला गया था, परिणाम सभी जानते हैं। इससे आगे यदि मनोरंजन के तत्व और खोजे जाएँ तो आता हैनाटक’’ ‘अंधेर नगरी चौपट राजाको कौन नहीं जानता सामाजिक यथार्थ के परिपेक्ष में साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र ने  कितनी सुन्दरता से अपनी बात रखी जो सभी को समझ में आई। नकटौरा, नाटक का ही अपभ्रंस रूप है। 

मेरी जानकारी में उत्तर प्रदेश में नकटौरा भी एक प्रकार का खेल है। इस खेल को लड़के की शादियों के में खेला जाता है। जब लड़का अपने बाबा, पिता, चाचा और फूफा को लेकर लड़की के घर चला जाता है तो उस रात उसके घर में महिलाओं के द्वारा पूरी रस्सा कसी से नकटौरा खेला जाता है। 

खैर, आदरणीया चित्रा मुद्गल जी की नई कृति आने वाली है। जिसका शीर्षकनकटौराहै। आवरण की परिकल्पना बेहद प्रभावित कर रही है। जिस प्रकार शीर्षक में स्त्री जीवन का नमक है उसी प्रकार आवरण का रंग कृति के कलेवर की बात कहता हुआ-सा लग रहा है। आवरण की कल्पना जिसने भी की है उसकी दृष्टि बेहद शोधपूर्ण रही होगी।  कहने को आज के इस तकनीकी युग में कलात्मता का बोलबाला है लेकिन 

आवरणकार लक्कड़खाने गया और वहाँ से उसने नीम या शीशम की छाल लेकर आवरण रच डाला। साथ में आवरण पर एक कोने पर जो खिड़की दी गयी है आहा क्या कहने! उसने स्त्री का आकाश ही टांक दिया है। बनाने वाले को शायद ज्ञात होगा कि स्त्री जीवन के लिए प्राणवायु की स्म्वाहिका यही खिड़की हुआ करती थी उन दिनों। इस सबको देखते हुए लग रहा है कि लेखिका ने अपनी कृति में वो सब लिखा होगा जो इस खिड़की से होते हुए स्त्रियों तक जिन्दगी के रूप में पहुँचता होगा।

निर्वसना नीम खड़ी बाहर/जब धारोधार नहाती है/यह देह न जाने कब,कैसे/पत्ती-पत्ती बिछ जाती है/मन से जितना छू लेती हूँ/ बस उतना ही घन मेरा है/ श्रंगार किये गहने पहने/ जिस दिन से घर में उतरी हूँ / पायल बजती ही रहती है/कमरों-कमरों में बिखरी हूँ/ कमरे से चौके तक फ़ैला/ बस इतना ही आंगन मेरा है/जगमग पैरों से बूटों को/ हर रात खोलना मजबूरी/बिन बोले देह सौंप देना/ मन से हो कितनी भी दूरी/ हैं जहां नहीं नीले निशान/ बस उतना ही तन मेरा है/जितना खिड़की से दिखता है/बस उतना ही सावन मेरा है। शीर्षक पढ़कर मुझे कानपूर के यशस्वी गीतकार अवध बिहारी श्रीवास्तव जी का गीत याद हो आया।इस गीत में स्त्री जीवन की पीड़ा सर्वोपांग महसूस की जा सकती है। वही बात मुझे लगता है इस कृति में देखने को मिलेगी। स्त्रियों के धूसर रंग,उनके घुटन भरे अंतराल, सन्नाटों भरा दर्द, मौन पीड़ा,अवहेलना भरे गीत सब को एक साथ सान दिया जाए तो जो रंग बनेगा उसी रंग में समस्त आवरण रंगा हुआ।

 

लड़के को ब्याहने भेजकर एक रात ही सही स्त्रियाँ नकटौरा खेलते हुए पुरुषों का अभिनय करती हैं। उनकी तरह से एक स्त्री दूसरी स्त्री को गालियाँ बकते हुए प्रताड़ित करने का अभिनय करती है। तो मन मौजी होकर हुकुम चलाती है। स्त्री बनी स्त्रियाँ भीगी बिल्लियों की तरह उनके हुकुम बजाती हैं। वे क्षण स्त्री जीवन के हँसी भरे खरगोश सरीखे पल होते हैं। जो उछल-उछल कर एक-दूसरे को गुदगुदी करते हुए रात भर बिहँसते रहते हैं और  स्त्रियाँ अपना सारा दर्द भूलकर खूब हँसती हैं और एक दूसरे पर बलिहारी जाती हैं। 

नकटौरा शीर्षक से मुझे लगता है गयी सदी की स्त्रियों की मर्मान्तक पीड़ा हमारे सामने उजागर होने वाली है। जिसे पढ़कर किसी को माँ, दादी, भाभी, नानी मौसी याद आयेंगी तो किसी को अपना जीवन ही खुल कर सामने पसरा हुआ सा लगेगा क्योंकि लेखिका चित्रा दीदी भावनात्मक तन्तुओं को आत्मीयता का जल छिड़क-छिड़क कर जब बुनती हैं तब कोई भी भीगे बिना नहीं बचता। आपकी कृति नाला सोपारा पढ़ते हुए कितनी बार मेरी आँखे गीली हुईं, गिनती नहीं। अंत में लेखिका को अग्रिम बाधाई!

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