रंगों का आस्वादी मन

 



 मेरा अर्धशतक पूरा होने वाला है। संसार में आने के नाते लगभग-लगभग सभी प्रकार के त्योहारों और होली-दीवाली के साथ-साथ रिश्तों से प्राप्त खट्टे-मीठे हर तरह के आस्वाद से परिचित मेरा मन ढलान की ओर है। ढलान मतलब मैं किसी पहाड़ से नहीं लुढ़क रही हूँ बल्कि जगत रंग खुद में तिरोहित करने की दिशा में तत्पर है। वह जमाना चला गया जब वानप्रस्थी होकर कर्मण्डल धारण कर घर त्याग दिया जाता था। सच पूछो तो मुझे कबीर वाला त्याग अधिक भाता है। संसार के बीचोंबीच रहते, सूत कातते, गाढ़ा बुनते-बुनते माया की छलना से दो-दो हाथ करते हुए उसे त्यागने की हिम्मत जुटा लेना। कबीर के अनुसार सोचकर देखती हूँ तो यही लगता कि दुश्मन से छिपकर उसे जीतने में जश्न कैसा?

मैं उत्सव की बात कह रही थी। उत्सव माने कुछ क्षणों के लिए ही सही अपना फटा-पुराना झीना और उदास भूलने का एक सघन उपाय लेकिन रंगों का आस्वादी मन मानवीय उत्सव की निर्वात नीरवता को पूरी तरह जान चुका है इसलिए कोई भी रंग मुझ पर उतना ही प्रभाव छोड़ पाता है जितना मैं उसे ग्रहण करना चाहती हूँ। लेकिन मेरे भीतर उल्लासित उर वाली एक माँ भी रहती है। उसने अभी-अभी अपने जीवन का मात्र सत्ताइसवाँ वर्ष पूरा किया है। इस बिना पर वह अभी नयी,जिज्ञासु और बहुत उत्साहित रहने वाली स्त्री है। मेरे अंदर की माँ जब-जब अपने बच्चों के साथ होती है उसे संसार की हर कुरूपता क्षणभंगुर लगने लगती है। समय का सौंदर्य पूर्णरूपेण अनखंडित और संपूर्ण। जैसे तनी हुई रस्सी पर नट का खेला। नट को करतब करते देख ज्यों-ज्यों दर्शकों की धड़कनें बढ़ती हैं, नटी को अपने ऊपर त्यों-त्यों भरोसा थोड़ा और थोड़ा और बढ़ा हुआ लगने लगता है। ठीक उसी प्रकार जब-जब मेरी अंदरूनी स्त्री जितनी ज्यादा उगाहपोह में होती है, तब-तब बच्चों की माँ जिद से या ख़ुशी से उतनी चौगुनी-उत्साहित हो अपने कर्तव्यों में डट जाती है

कभी-कभी सोचती हूँ कि एक शरीर में दो व्यक्ति कैसे रह सकते हैं? कितनी बारीकी से रचा होगा बनाने वाले ने स्त्री को। जब से स्त्री, पत्नी और माँ की तासीर मुझे ज्ञात हुई है तब से मुझे सदैव ये लगता रहा है कि मेरे अंदर की स्त्री सदैव से अपना आपा छोटा लेकर पैदा हुई है। उसकी जरूरतें बेहद सीमित हैं शायद! इसीलिए माँ का अंतर विस्तार बड़ा हो सका है। इसमें मेरी खूबी नहीं अपितु ये गुण मुझमें मेरी माँ से आ मिला है। वे भी जब हमारे साथ होती थीं तो पूरी-पूरी भारी और नयी-नयी हमें महसूस होती रहती थीं। संसार की गहरी दुश्चिंताओं के जलासय में गले तक डूबी खड़ी माँ जब मेरे साथ होतीं तो वे उससे विलग एक पूर्ण नियोजित भव्य माँ! प्रतीत होती थीं अपने बच्चों की शान में चार-चाँद की बात हो या नन्हीं-सी ख़ुशी की वे सभी के लिए खुद को गलाना जानती थींउन्हें बच्चों के हित में कोई कार्य कठिन नहीं लगा और न ही असाद्ध्य। माँ की वह बात सोचकर आज भी रोमांचित हो जाती हूँ- व्यक्तिगत तौर से इंटर मीडिएट तक पढ़ी मेरी माँ ने हम भाई-बहन को कक्षा छटवीं की अंग्रेजी की किताब से स्टोरी पढ़ाने के लिए कितनी मेहनत से ख़ुद अग्रेजी पढ़ना और टूटा-फूटा बोलना सीखा था। उसी प्रकार के अखंडित ममत्व के रंग आज मेरे हृदय में जब उदित होते हैं तो उन्हें देख मैं चकित रह जाती हूँ। किस विधि से माँ के गुण बेटी में निरुपिति हो जाते हैं। कुछ तो ऊपर वाले की युक्ति होगी जो हमारी समझ के परे है। 

इसी दीवाली की बात यदि मैं बताऊँ तो बच्चों के प्रेमिल सामियाने में गत तीन दिनों के मेरे बुखार-ताप को आराम हासिल तो नहीं हो सका लेकिन फिर भी मेरा मन अपने भीतर के भद्देफीके और कमतर रंगों को भूल बच्चों के रंग से खूब ऊर्जावान होता रहा। युवा मन की उत्फुल्लता देख माँ का मन गदगद होता रहा

इसलिए इस दीवाली बस इतना ही कहूँगी कि संवादहीनता हर रिश्ते का रंग फीका करने का माद्दा रखती हैअपनों के बीच मत आने दें। कम से कम बच्चों के साथ तो बिल्कुल नहीं। ताकि वे सदैव भरे-भरे स्नेहिल रस से अघाये से दिखें। उनके मन का घड़ा स्निग्धता से छल-छल छलकता रहे। जब भी कोई उनसे मिले तो सिक्त हो सके।

आपके बच्चे चाहे छोटेबड़े, बूढ़ेजिद्दीमूडी और सनकी ही क्यों न हों आप उनसे संवाद बनाए रखिए। अव्वल तो आप उनके जन्मदाता हैंदूसरे आप उनसे सौ गुना ज्यादा अनुभवशील प्राणी भी हैं। साथ में आपको ये भी याद रखना होगा कि आपके दिए संस्कारी परिवेश ने ही उन्हें ऐसा बनाया है। आपके बच्चे आपका ही प्रोडेक्ट हैं। अच्छे या कम अच्छे या बहुत अच्छे जो भी आपको प्राप्त हैं आपने ही उन्हें रुचि-रुचिकर रचा है।

ऐसा करना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि माता-पिता के द्वारा उपेक्षित बच्चे अपना धरातल पुख्ता कभी नहीं बना पाते और दुनियादार में हर किसी से "स्वयं को" अपनाने की अपेक्षा कर बैठते हैं। मतलब उपेक्षित बच्चों की ख़ुशी का स्रोत उनका अपना आपा नहीं होता अपितु वे संसार के और-और घटकों से अपने लिए ख़ुशी की चाहना रखने लगते हैं। और ऐसा करके वे बार-बार मुँह की ही खाते रहते हैं क्योंकि ये बात सर्व विदित है कि संसार माँगने वाले को कुछ नहीं देता। "बिन माँगे मोती मिलेमाँगे मिले न भीख!" ये बात भी अपने बच्चों को हमें यानी कि माता-पिता को ही सिखानी होगीउसमें भी इस बात को समझना और समझाना एक माँ के लिए बेहद ज़रूरी है। अस्तु!

***

 

Comments

Popular posts from this blog

एक नई शुरुआत

आत्मकथ्य

बोले रे पपिहरा...