अपना अखरोट

 




मुगल गार्डन में बहुत पुराना  एक बरगद का विशाल वृक्ष था। उसकी बड़ी-बड़ी डालियों पर कोयल, कौआ और एक गिलहरी का परिवार बहुत समय से रहता आ रहा था। गिलहरी की बेटी का नाम गिल्ली था। गिल्ली सबके साथ घुली-मिली थी। किसी भी प्रकार के खतरे की गंध उनमें से किसी को भी मिलती,वे तुरंत एक-दूसरे को सूचना कर देते। इस प्रकार सभी प्रेमिल सहयोगी थे। कोयल के गीत दिन-रात मौसम में संगीत घोलते तो कौआ भी अपनी काँव-काँव से थके-हारे राही का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर ही लेता। गिलहरी कौए से चेष्टा करना और कोयल से मीठा बोलने की कला सीखकर अपनी बेटी गिल्ली को सिखाया करती थी। 

उन दिनों अमराई से लदे पेड़ बड़े सुहावने लग रहे थे। मौसम की मादकता में जब कोयल अपना पंचम स्वर छेड़ती तो कौआ भी काँव-काँव कर नाच उठता। उन दोनों को जब गिलहरी देखती तो वह भी प्रफुल्लित होकर अपनी बेटी के साथ टिलटिलाने लगती। कुल मिलाकर मुगल गार्डन के सभी बाशिंदे अपनी-अपनी धुन में मस्त रहने वाले जीव थे।  

वक्त के अनुसार कोयल और कौए के घोंसले बनते-बिगड़ते रहते। जब तक बच्चे छोटे रहते तब तक वे अपने माता-पिता के घोंसले में रहते और जैसे ही उनके पंख बड़े और मजबूत होने लगते, अपने-अपने आसमान की तलाश में वे दूर निकल जाते। माता-पिता बच्चों को विदा कर हमेशा ही बहुत दुखी होते लेकिन उनकी उदासी के दिन थोड़े ही होते। जल्द ही उनके जीवन का कालचक्र घूमता और नए बच्चों के घोंसले बुनने का समय आ जाता। पंछी नए घोंसलों की बुनाई में जुट जाते। बंदर इस तरह का कौतुक देखकर उनकी कला पर मुग्ध होता रहता।

एक दिन गिलहरी की बेटी गिल्ली बड़ी उदास थी। वह पेड़ के कोटर में गुमसुम लेटी थी। माँ गिलहरी काम पर गयी थी। बरगद चाहकर भी उसकी उदासी नहीं भगा पा रहा था। थोड़ी ही देर में गिल्ली की माँ दाना लेकर लौटी तो हैरान रह गई। उसने अपने गालों में भरे सारे दानों को निकाल कर एक कोने में जमा कर दिए और बेटी को गोद में उठाकर उसकी उदासी का कारण पूछने लगी। गिल्ली ने माँ को भावुक देखा तो बताया कि जब से कौए और कोयल के बच्चों ने मुगल गार्डन छोड़ा है तब से उसके साथ खेलने वाला कोई भी नहीं है। वह अकेले रहते हुए बहुतबोरहो रही है। उसे खेलने के लिए कोई साथी चाहिए। 

बेटी की बात सुनकर गिलहरी खिलखिला पड़ी। उसने बेटी को बताया कि वह इस बात के लिए बिल्कुल चिन्ता ना करे कि वह अकेली है क्योंकि कौआ और कोयल के घर जल्दी ही नए मेहमान आने वाले हैं। सुनकर गिल्ली ख़ुश हो गई। 

गिलहरी-"अब उठो, जल्दी सेफ्रेशहो जाओ। देखो मैं तुम्हारे लिए क्या लाई हूँ?”

गिल्ली-क्या लाई हो माँ ?”

गिलहरी-मूँगफली और क्या! आओ इन्हें खाओ और स्वाद का भरपूर आनंद उठाओ।"

मूँगफली का नाम सुनते ही गिल्ली उछल पड़ी। उसने जल्दी-जल्दी पेड़ की दो-चार मुलायम पत्तियाँ चबाकर अपने दाँत साफ़ किए और मूँगफली खाने बैठ गयी। फिर तो हर रोज़ माँ-बेटी की प्यारी-प्यारी बातें यूँ ही चलती रहीं। और एक दिन पहले कौए के घोंसले में नवशिशु आगमन की सुगबुगाहट होनी शुरू हुई और कुछ दिनों बाद कोयल के घोंसले में शिशु-आगमन की हलचल होने लगी। जब ये बात गिलहरी को पता चली तो सबसे पहले उसने अपनी बेटी गिल्ली को ये सूचना दी। गिल्ली की ख़ुशी का ठिकाना न रहा। अब वह अपने मित्रों की प्रतीक्षा में कोयल और कौए की सारी गतिविधियाँ अपने कोटर में बैठकर देखती रहती। और मन ही मन अपना खेल सुंदर होने की कल्पना करती रहती। बेटी गिल्ली को खुश देखकर माँ गिलहरी को भी आत्मसंतोष हुआ। 



एक गुनगुनी शाम को कौए के घोंसले में दो अंडे आ गये। वह मन लगाकर उनकी देखभाल करने लगा। थोड़े वक्त बाद कोयल के घर भी शिशु अण्डों का पदार्पण हो गया। कौआ अपने नवजात शिशुओं को सेयने के लिए बहुत दूर-दूर तक उड़ान भरता और  दाना चुगता। बचे समय में अण्डों पर बैठकर उनको गुनगुनाहट से बड़ा करता रहता। ये बात कोयल अपने घोंसले में बैठी बड़े गौर से देख रही थी किन्तु कोयल को अपने अण्डों की देखभाल करना बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था। वह तो डाली-डाली पर कूकना चाहती थी। पंचमस्वर में प्रकृति देवी को अमराई गीत गा-गाकर सुनाना चाहती थी शायद इसलिए कोयल अपनी उबाऊ दिनचर्या से छुटकारा पाना चाहती थी।  

कोयल ने देखा काला कौआ पूरी तरह स्नेह में डूब चुका है। वह दिन-दिन भर अपने बच्चों के बारे में सोच रहा है, बस ये देखकर कोयल ने निश्चय किया कि वह अपने अण्डों को कौए के घोंसले में पहुँचाकर ही मानेगी। उसके बाद जैसे ही कौआ चुग्गा लेने कहीं दूर गया; कोयल देखा कौए के अंडों में बच्चे सुस्त सोए हुए हैं। उसने दाँव लगा कर अपने अण्डों को कौए के घोंसले में रख दिया और उड़कर बाग़ के दूसरे कोने में गाने-मचलने लगी।

कौआ जब दाना लेकर लौटा तो उसने कोयल के अंडों को भी अपना लिया। उसने प्रेम से सबको पालना शुरू कर दिया। उधर कौआ सुबह से शाम तक मेहनत कर रहा था और इधर कोयल पंचमस्वर में राग-रागिनियों में लिप्त रहने लगी थी। गिलहरी की बेटी गिल्ली को ये बात बहुत बुरी लग रही थी। उसने अपनी माँ से हमेशा सुना था कि किसी को ठगना बहुत बुरी बात होती है। गिल्ली ने देखा थोड़े ही दिनों में कौए के अंडों से बच्चे बाहर आ गये हैं अब कौए की व्यस्तता और बढ़ गई थी।

वह पहले छः घंटे मेहनत करता था; अब बारह घंटे मेहनत करने लगा था। कौआ कभी अपने बच्चों को चुगना सिखाता तो कभी कोयल के बच्चे को पंख खोलना। ये सारे काम करते हुए कौआ खुश भी बहुत रहता था लेकिन कोयल अभी भी दूर आम की डाली पर बैठी अपनी लाल-लाल आँखें मटकाती रहती।

अपनी लगन और साहस से कौए ने एक दिन अपने बच्चों के साथ-साथ कोयल के बच्चों को भी उड़ना सिखा दिया। अब बच्चे घोंसला छोड़कर बाग की ज़मीन पर उतरने लगे थे। खुशहाल कौआ कभी इस बच्चे की चोंच में दाना डालता तो कभी उसके मुँह में; कोयल बाग़ की डालियों पर सिर्फ हवा खाती और अपनी चतुराई पर बलिहारी जातीकोयल की चालाकियाँ देखकर गिल्ली का खून खौलने लगा था। 

गिल्ली-"ममा, कौआ और कोयल के बच्चे बोलते क्यों नहीं?" 

गिलहरी-"मेरी प्यारी बेटी! तुम इतनी जल्दी में क्यों रहती हो? अभी बच्चों ने उड़ना सीखा है। धीरे-धीरे बोलने भी लगेंगे। लेकिन उनके बोलने से तुम्हारा मतलब क्या है? मैं समझी नहीं।

गिल्ली-माँ,जैसे कोयल और कौए के स्वाभाव में अंतर होता है, वैसे ही इनकी बोलियों में भी अंतर होगा मुझे लगता है जब इनके बच्चे बोलेंगे तो कौआ अपने और कोयल के बच्चों में अंतर खुद-बी-खुद समझ जाएगा और ठगने से बच जाएगा। 

गिलहरी- ”अरे वाह! ये बात तो तूने बिल्कुल सही कही। 

दिन बीते और एक शाम पश्चिम दिशा की ओर लालिमा युक्त सूरज लुढ़कता जा रहा था। धरती पर उतरने के लिए संध्या सुंदरी क्षितिज से झाँक रही थी। हवा डालियों पर सुस्ता रही थी। उसी के बीच गिल्ली ने देखा कि जो कोयल अकेले बाग़ में इठलाया करती थी, आज उसके आस-पास दो काले-सफेद चित्तीदार पंखों वाले दुधमुँहा बच्चे भी बैठे थे। कोयल गर्दन घुमा कर कभी इस बच्चे के पंख सम्हाल देती तो कभी उसके। गिल्ली दौड़कर कौए के घोंसले में देखने चली गई। उसने देखा कौआ बेहद उदास बैठा था। उसके दो बच्चे चुपचाप अपनी माँ को ताक रहे थे। कौआ माँ को बार-बार लग रहा था कि उसके दो बच्चे कहीं खो गये हैं।


 

ओहो! ये तो कितना बड़ा धोखा है। इसका मतलब कोयल के बच्चे अपनी माँ की बोली सीख कर उड़ चुके हैं।" गिल्ली ने सोचा और वह चुपचाप वहाँ से लौट आई लेकिन अपने मन में गहरा दुःख समेट लायी

गिलहरी-"क्या हुआ मेरी गिल्ली रानी को? अब तो बाग़ में कितनी रौनक है 

गिल्ली की माँ ने जब उससे कहा तो उसने कोयल की चालाकी और कौए की भावुकता की सारी बातें माँ को बता डालीं और धीरे-धीरे सुबकने लगी 

गिलहरी-"तुम उदास मत हो मेरी प्यारी बेटी! मैं जानती हूँ उस कुटिला की एक-एक चाल को। उसने हमेशा से अपनी औलाद की परवरिश कौए से करवाई है...?" कहते हुए गिलहरी ने अपना सर पकड़ लिया। 

गिल्ली-"पर क्यों मम्मा! ये तो बहुत बुरी बात है। हमें कभी भी अपने काम का भार दूसरे पर नहीं डालना चाहिए।"

गिलहरी-"तू सच कह रही है गिल्ली! फ़िजूल में किसी की भी मदद लेना बहुत गलत है। अपनी जिम्मेदारी निभाना तो कोई मेरी बेटी से सीखे।” 

गिलहरी ने गिल्ली को दुलराते हुए गोद में उठा लिया। माँ के कंधे से चिपकी गिल्ली सोचने लगी। "बेचारा कौआ! देखने में चालाक और है मन का भोला।

गिल्ली-"माँ, मैं कोयल से पूछकर देखूँ आख़िर वह ऐसा क्यों करती है?"

गिलहरी-"जानकर क्या करना तुझे! ये दुनिया बहुत बहुत निराली है। मेरी प्यारी बेटी तुम किसे-किसे समझाएगी! बस तुझे कोयल की तरह कभी कुछ नहीं करना है। अपना काम बनाने के लिए किसी भोले-भाले जीव को कभी ठगना नहीं है।"

गिल्ली- "आप ठीक कहती हो माँ! लेकिन सोचकर देखो कि ईश्वर ने संसार में ज़िंदा रहने के लिए हर जीव को दो हाथ दो पाँव दिए है। फिर भी लोग दूसरे का खून चूसते हैं,वो भी चालाकी से"

गिलहरी-"बिल्कुल सही। अपनी मौज-मस्ती के लिए कोयल ने ये अच्छा नहीं किया। तुझसे बात करते हुए मुझे वो बात याद आ गई जो मैं तुझे बताना भूल गयी थी।

गिल्ली-कौन-सी बात माँ? आप तो मुझे सारी बातें बताती हो।“ 

 


गिलहरी-एक बार मैं दाना खोजते-खोजते हिंदी सभा में जा पहुँची। वहाँ एक नीम के पेड़ के नीचे कई लोग बैठे कविता सुन और सुना रहे थे। मैंने शायर खुर्शीद हैदर का शेर सुना।गैर परों पर उड़ सकते हैं हद से हद दीवारों तक। अम्बर पर तो वही उड़ेंगे जिनके अपने पर होंगे।" मुझे बहुत अच्छा लगा लेकिन ये बात को कोयल को कौन बताए!"

गिलहरी ने अपनी अबोध बच्ची को अनेक प्रकार से अच्छा-बुरा बताया। जिसको सुनकर बेटी गिल्ली और ज्यादा भावुक हो चिंता में डूब गई। 

गिल्ली-"इसका मतलब माँ,कोयल के बच्चों का जीवन तो पहले से ही अनीति के चंगुल में फँस जाता है। बड़े होकर वे भी यही करते होंगे? जो माँ से सीखते हैं। क्योंकि झूठ में रहकर भला सच्चा जीवन जीना वे कैसे सीखेंगे?" गिल्ली ने उबासी भरते हुए कहा।

गिलहरी-"तूने सच ही कहा। अपने भरण-पोषण की जिम्मेदारी हर जीव की अपनी होती है। ये बात हर एक माता-पिता को स्वयं सीखनी भी होगी और बच्चों को सिखानी भी।" गिलहरी ने अपनी बेटी से कहा ही था कि पास की डाल पर छिपी बैठी कोयल गुस्से में बोल पड़ी।

कोयल-"जब कोई स्वयं मूर्ख बनने के लिए तैयार बैठा हो तो उसमें मेरा क्या दोष।"

कोयल की कृतघ्नतापूर्ण बात सुनकर पेड़ों ने एक साथ हिलना-डुलना बंद कर दिया। हवा गुमसुम हो गयी। गिल्ली के कोटर में सघन नीरवता पसर गई। ये देखकर गिलहरी का दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क उठा। उसे अपने बच्चे की चिन्ता सताने लगी।

गिलहरी-"मेरी प्यारी गिल्ली,तुझे याद है न! हमें कलअखरोट वनघूमने जाना है। वहाँ पेड़ों पर लगे ताज़ा-ताज़ा अखरोट ‘यमी’-’यमी आहा!" उमंगित उत्साह से पूँछ उठाते हुए गिलहरी ने अपनी बेटी को बाहों में लेकर झूला झुला दिया। 

गिल्ली-"क्या कहा माँ आपने? अखरोट!

गिलहरी- हाँअपना अखरोट! ख़ुद तोड़ो-खाओ

गिल्ली-आहा! मज़ा आएगा!" याद आते ही गिल्ली का मन खुशी से झूम उठा!

***
बाल किरन में प्रकाशित 


 



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