चिड़िया ऑडर पर नहीं आती है

 


लेखिका : नासिरा शर्मा 
कृति : “रंगीन परों वाला सपना” 
प्रकाशन : वनिका पब्लिकेशन 

अभी हाल ही में वनिका पब्लिकेशन से हिंदी की वरिष्ठ लेखिका नासिरा शर्मा जी का बालकहानी संग्रह "रंगीन परों वाला सपना" छपकर हमारे हाथों में आया है। ये कहानी संग्रह सोलह कहानियों का एक खूबसूरत गुलदस्ता है। कृति में लेखिका की अपनी बात से लेकर सोलहवीं कहानी तक हर एक कहानी का मूल उद्देश्य बच्चों विकास की ओर उन्मुख बालपीढ़ी को अपनी चुकती जा रही संस्कृति, तहजीब की  हरी-भरी संवेदनाओं,गाँव,खेत-खलिहान,भूले बिसरे फल और पेड़-पौधों से रू-ब-रू करना है। नासिरा जी की कहानियों के बच्चे मानवीय संवेदनाओं से लबालब भरे हुए दिख रहे हैं। विकास की ओर अग्रसर समय के बीच रहते हुए भी कहानियों के किरदार मशीनी नहीं है। तभी तो जंगली मादा सुअर को कम्बल ओढ़ाने के लिए नन्हा बच्चा मचल पड़ता है।

दरअसल हमारे इर्दगिर्द यदि बच्चे न होते तो शायद हमारी दुनिया बेहद नीरस और मौन ही रह जाती है। यदि दुनिया बच्चों से रहित हो जाए तो हमारे पास न इच्छाएँ होगीं और न ही कुछ पा लेने की आशाएँ। हमारी कोमल-कान्त परंपराओं के संवाहक बच्चे ही होते हैं। अहेतुक प्रेम लुटाने वाले अबोले जीवों के बाद यदि स्वाभाविक स्नेहिल दानी के रूप में कोई आता है, तो वे हमारे बच्चे ही हैं। बच्चों की दुनिया सौहार्द से भरी दुनिया होती है। आपा खोल कर प्यार लुटाने वाले बच्चे किसी फरिश्ते से कम नहीं होते। लेखिका के शब्दों में,”सुनो बच्चो! यह मेरी सारी  कहानियाँ तुम्हारे लिए ही नहीं हैं बल्कि तुम पर लिखी कहानियाँ है। इसमें पूरा माहौल है जिसमें हम रहते हैं। तुम्हारे बचपन की यादें जब बड़े होने पर तुम्हें याद आती हैं या फिर कूई उसका जिक्र करता है तो तुम्हारे होंटों पर हल्की सी मुस्कान तैर जाती है। प्राक्कथन में लेखिका की बातें पढ़ते हुए मेरे मन की बच्ची भी मचल पड़ी। जब बच्चों के हाथ में ये संग्रह जाएगा तो उनका मन भी समृद्ध हो सकेगा। कहानियाँ पढ़ते हुए न जाने कितने भूले दृश्य यादों के झूले पर एक साथ झूलने लगते हैं। लेखिका के मन का गिलास पीयूष से भरा-भरा कहानी दर कहानी छलकता चलता है। सपनों की शहज़ादी जंगल जलेबी कहानी में बालमन की जद्दोजहद खूब महसूस की जा सकती है। कृति के पिछले आवरण पेज़ पर बच्चों के बीच लेखिका की मुस्कुराती तस्वीर देखकर लगता है कि उन्हें बच्चों की ज़द में रहना अच्छा लगता है। जब बच्चे कहानियाँ पढ़ेंगे तो स्नेह सिक्त हुए बिना नहीं बचेंगे। 

नासिर शर्मा जी ने बाल कहानियों के माध्यम से हाशिये पर पड़ी लेकिन प्रकृति की गोद में हँसते बोलते-बतियाते गाँव-देहात के नन्हें बच्चों की दुनिया से आज की उस नगरीय बालपीढ़ी का परिचय करवाया है जो आसमान छूने की होड़ करने वाले सन्नाटेदार टावरों में रहने के लिए मजबूर है। बच्चे तो आज भी बच्चे ही हैं लेकिन वे पराश्रित हैं; उनके संरक्षक अपनी विकास की अंधी दौड़ में अपने बच्चों की पुलक भरी ज़मीन कहीं खोते जा रहे हैं। बस उसी बालपीढ़ी को लेखिका का अपनी कहानियों के माध्यम से ज़मीन दिखाने का आवाहन है। लेखिका ने ये पुस्तक उन बच्चों के नाम की है जो कोविड 19 महामारी में लावारिस हो चुके हैं। इस पन्ने को देखते हुए 2021 के मई-जून की अफरातफरी एक बार फिर महसूस होकर प्रत्यक्ष हो गई। लेखिका के इस समर्पण में निश्चित ही उनके हृदय की तरलता महसूस हुई।

आपकी कहानियों की भाषा भाषण रहित है। बोधगम्य और सरल है। अंग्रेजीमय हो चुकी पीढ़ी को इन कहानियों को पढ़ने में कोई कठिनाई नहीं आएगी। प्राक्कथन में लेखिका ने अपना मत प्रकट करते हुए लिखा है कि जो बातें हम विकास की दौड़ में भूल-से गए हैं, उन बातों को कहानियों के तानेबाने में बुना गया है। वे स्वयं बचपन में बेहद भावुक रही थीं। तभी तो अपने छोटे भाई के गद्दे में बकरी के बच्चे को ओढ़ा कर गोद लिए बैठ जाती थीं। तभी तो चाहे वे पेड़-पौधे हों जिनके नाम बच्चे भूल चुके हैं। या वे फल हों जिनको अंग्रेजी फलों ने पीछे से भी पीछे धकेल दिया है। हम चाहे जितने पंजों के बल क्यों न हो जाएँ उनको अब देख नहीं पाते। कहानियाँ पढ़ते हुएकसेरू” “जंगल जलेबीसे लेकर कई फलों के नाम बच्चों को जानने को मिलेंगे। जो भले अब लुप्तप्राय हो चुके हैं लेकिन लेखिका ने अपने बचपन में उनका स्वाद जरूर चखा होगा।

इन कहानियों में मानवीय पुलक है तो गुस्सा और क्षोभ भी है। बड़ों के आचरण को देखकर अपने संस्कारों से जुड़ने का आवाहन भी है तो बच्चों की भावुक और नीतिपरक क्रिया-कलापों से माता-पिता को पानी-पानी भी होते हुए देखा जा सकता है।

नासिरा शर्मा जी ने जितनी सुंदरता से प्रौढ़ साहित्य मेंसात नदियाँ एक समंदर” “शाल्मली” “कुइयांजानऔरपारिजातआदि आदि उपन्यासों की रचना कर सामाज की गहरी पड़ताल की है और भारतीय साहित्य की ज़मीन पुख्ता की है। उतना ही उनका हृदय बाल साहित्य को रचने में कुशल और तरल दिख रहा है। मुझे लगता है एक लेखक को कभी किसी विशेष खाँचे में नहीं जकड़ना चाहिए। क्योंकि जिस लेखक का मन मानवीय संवेदनाओं का चितेरा होगा वह कुछ भी रचने की कारीगरी अपने अंतर में सहेजकर लिखता ही रहेगा।

इस संग्रह की कहानियों में हर तरह के रंग बिखरे पड़े हैं। "नन्हा पिकासो" कहानी में एक मित्र मित्रता की खातिर जिन्दगी का पूरा जोख़िम उठाता है और मित्र को बचा लेता है। कहानी "दादा जी की लाठी" में एक पिता अपने बेटे के सामने अपने कतिपय स्वार्थी  व्यवहार की वजह से लज्जित हो उठता है। कहानी "छोटी बहन" में लेखिका ने ऐसा तान-बाना बुना है कि छोटे तो छोटे पढ़ते हुए बड़ों को भी धक्क से होगा। वहीं "गौरैया का घौंसला" में दर्शाया गया है कि मन कुछ करने का हो तो आसमान में भी सुराग किया जा सकता है। “हमारी बारी” कहानी से देखिये,”ऐसी पढ़ाई से क्या फ़ायदा? जो यह अहसास ही छीन ले कि कोई बीमार है उसे आपकी ज़रूरत है।“ “दर्द का रिश्ता” कहानी में कैसे एक बच्चे का हृदय धूप में काम कर रहे बढई के लिए पिघल जाता है। जिन कहानियों का मैं उल्लेख कर सकी वे और जिनका नहीं कर सकी वे सभी में वो मंत्र छिपा है कि भई बच्चों को दुनिया में लाने के बाद उन्हें लावारिस नहीं छोड़ना है और न ही उन्हें उनकी जमीन से अलग किया जाए। बल्कि अपना भरपूर जीवंत साथ देकर उनके जीवन को मुख्य धारा से जोड़े रखना है।

यहाँ ये कहना उचित होगा। जिन बेचारों बच्चों के संरक्षक गुजर गए होते हैं उनके प्रति तो अगाध संवेदनाएं हमारे मनों में होनी ही चाहिए। लेकिन जो बच्चे अपनों के बीच रहकर लावारिस कर दिए जाते हैं; उनके प्रति मुझे लगता है ज्यादा नाइंसाफ़ी होती है। वे अपनों के अप्रिय व्यवहार से अवसाद के शिकार होकर एक छत के नीचे रहते हुए दर-ब-दर की ठोकरें खाते फिरने लगते हैं। ऐसे बच्चों के प्रति हमें बेहद सजग रवैया रखना होगा। इस संग्रह की कहानियों में सिर्फ़ बालमन को ही ठैराव नहीं मिलेगा बल्कि बड़े-प्रौढ़ मनों को भी भीतरी-बाहरी दोनों ओर से समृद्धता मिलेगी। 

बच्चे संसार को गति देते हैं इसलिए उनके आस-पास सुरक्षित माहौल का निर्माण हो सके; ऐसी कामना करती हूँ। मैं तो ये कहूँगी एक बच्चे को जब कोई माँ अपनी कोख में स्थान दे तो उस स्त्री के साथ-साथ परिवार के और जनों को भी उस बात से अवगत रहना चाहिए। क्योंकि बच्चा उसी समय से अपने वातावरण में उत्पन्न तरंगों का अनुकरण करते हुए अपनों की बातें सुनने लगता है। यदि ऐसा न होता तो महाभारत में अभिमन्यु ने चक्रव्यूह की संरचना के बारे में न सीख लिया होता। मुझे लगता है इस कृति का ये छिपा हुआ संदेश है। इन्हीं शब्दों के साथ मैं अपनी कलम को विराम देती हूँ। लेखिका को अनेक शुभकामनाएँ!

 

कल्पना मनोरमा
बाल दिवस १४.११.२१  

 

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