क्योंकि जड़ता व्यक्ति को नष्ट कर देती है...

 

भारतीय परिवेश त्योहारों का उत्फुल्ल परिवेश है। यहाँ कुछ अच्छा पाकर जितनी खुशी नहीं मिलती, उससे ज्यादा अपनी खुशियों में अपनों की साझेदारी से लोगों के मन झूम उठते हैं। भारत लोक त्योहारों का देश है। यहाँ बात-बात में अक्षत, रोली, मौली और हल्दी के रुचने का चलन है। भारतीय परम्पराएँ चुनाव की आज़ादी देती हैं फिर चाहे भगवान हों या मित्र। अब देखो न! कोई निरंकारी है तो कोई साकार ब्रम्ह का उपासक। कोई तुलसी को पूज्य मानता है तो कोई कबीर को। यहाँ सबको समान रूप से दुलराया जाता है। यहाँ की मिट्टी सबको अपने अंतर्मन में सुयोग्य स्थान देती है। जो जिसका इष्ट वह उनकी पूजा, अर्चना और वंदना हर्षोल्लास से करे या मौन रूप से, सब मान्य है। वैसे भी कहा जाता है कि किसी भी देश, शहर, घर और परिवार में साझेदारी का भाव ख़ुशी का एक अलग ही रचाव रचता है। पं.विनय चन्द्र मौद्गलय की लिखी कविता की पंक्तियाँ इस विषय में निश्चित ही सार्थक और पथ प्रदर्शक मानी जा सकती हैं,“हिंद देश के निवासी सभी जन एक हैं। रंग रूप वेश-भाषा चाहे अनेक हैं।” 

ऐसे ही नहीं भारत ऋषि-परम्पराओं का देश कहा जाता है।  यहाँ का श्रद्धायुत हृदय बेमिसाल है तो भाईचारा-समर्पण गणनीय और कथनीय है। जैसे अब हम विकास की धुरी पर सवार हो पाश्चात्य सभ्यता अपनाने के लिए लालायित रहते हैं वैसे ही पराये देश के लोग भी हमारे यहाँ की सुसभ्य सांस्कृतिक माटी को अपने मस्तक पर चन्दन की तरह लगा कर सौभाग्य मनाते देखा जा सकता है। गौरव दोनों ओर है। 

इसके बावजूद पृथ्वी लगातार अपने ऊपर बदलाव अंकित करती जा रही है। आसमान में निरंतर बदलावों के तारों को गिना जा रहा है। वैसे तो संस्कृति और प्रकृति के बदलने की गति इतनी मंद होती है कि कोई सुन नहीं सकता लेकिन मानवीय चेतना में जो बदलाव हुआ है उसका शोर चारों ओर सुना जा सकता है। सच कहा जाए तो ये बदलाव अनायास नहीं बल्कि इस बदलाव के लिए बाकायदा हमने मानवीय और मशीनी सभ्यता की कार्यशालाओं में रुचि से प्रतिभाग किया है। और सीखने की सम्प्राप्तियों के रूप में हमारी मानवीय प्रवृत्तियाँ, खान-पान, बोली-वाणी, पहनावा-ओढ़ावा ऐसे बदलता चला गया जैसे वसंती दस्तक पर सूखे-मुरझाये ठूँठ अपना चोला बदल लेते हैं। ये हमारे लिए हर्ष का विषय हो सकता है किंतु चिंता का भी।

वैसे तो बदलना एक शाश्वत प्रक्रिया है। अंतस में त्वरा के भाव रखना जीवित होने की निशानी है लेकिन क्या इसकी भी कोई सीमा रेखा होनी चाहिए, या नहीं? इतिहास कहता है कि हम सिंधुघाटी सभ्यता से बदलाव की गुलाटियाँ खाते हुए ख़ुशी-ख़ुशी बदलते आ रहे हैं।  क्यों? क्योंकि मनुष्यता इसी में निहित है। पत्तों के परिधान और कच्चा मांस खाने वाला सीखते-सीखते आज सभ्य मानव हो चला है। इसी के मद्देनज़र आज मनुष्य, मनुष्य कम भौतिकतावादी सभ्यता के आँगन की तकनीकी कठपुतली ज्यादा लगने लगा है।  

दरअसल जब से मनुष्य ने विकास के पहियों वाला रथ प्राप्त किया है तब से न चाहते हुए भी उसके हाथों से न जाने क्या-क्या फिसलता चला जा रहा है।  जिसकी वह गणना भी नहीं कर सकता। भोला मनुष्य बदलाव की मोहक भूल-भुलैया में भ्रमित होकर भी खुश है। आज के मनुष्य का हाल किसान की उस पत्नी जैसा हो चला है जो साल भर पैसे जुटा-जुटाकर दशहरे का मेला देखने जाती है।  और सोचती है कि वह कुछ भी खरीदेगी किन्तु सोच-समझकर सार्थक ही। साथ में मेले की भीड़ से अपनी देह को भी सम्हाल कर रखेगी। लेकिन जैसे ही वह मेले में प्रवेश करती है, अनचाही चकाचौंध से इस प्रकार प्रभावित होती है कि उसके हाथों से वह सब खिसक जाता है जो वह सोच कर आई होती है। वह धक्का-मुक्की में इतनी अस्त-व्यस्त हो जाती है कि जिस प्रकार का कौतूहल लेकर वह कौतूहल खरीदने आई थी, वैसा कुछ हासिल किये बिना ही सबकुछ लुटाकर खाली हाथों घर लौट जाती है। क्या हमारा हाल ऐसा नहीं होता जा रहा है? सच बताना!

बदलाव के लिए मनुष्य को तैयार रहना जरूरी है।  क्योंकि इस विषय में हमारे महान विचारक भी कहते हैं कि मनुष्य को खुद को मुख्य धारा में रखने के लिए बदलना आवश्यक है। जैसे नदी की धारा से छिटका हुआ जल, जल नहीं रहता। वह काई या खरपतवार बन जाता है। वैसे ही मनुष्य ने अपनी मान्यताएँ यदि नहीं बदलीं तो वह पत्थर की वह शिला बन जाएगा जिस पर धोबी अपने गंदे कपड़े भी नहीं धोएगा। इसलिए भी नवता के प्रति स्वीकार्यता का भाव मनुष्य को रखना ही होगा क्योंकि जड़ता व्यक्ति को नष्ट कर देती है। 

लेकिन हर वस्तु, व्यक्ति और विचार का अपना एक केंद्र बिंदु भी होना ज़रूरी है या नहीं? नाभिकीय केंद्र से हटकर बदलने वाला यदि बदला तो वह सभ्य बनकर ही सामने आयेगा या बच्चों के हाथ की खेल-चकरी, कहना मुश्किल है।  

मेरे कहने का मतलब बस इतना है कि किसी भी तथ्य को उतना ही बदलना चाहिए जितने में उसकेप्राणबचे रहें। लेकिन सबकी अपनी-अपनी प्रवृत्ति होती है। कोई अपनी जड़ता में मंगल मनाता है तो कोई हर पल कुछ नया सीखने और बदलने को आतुर रहता है। दोनों की अपनी मर्यादाएं हैं। इस मामले में दोनों सही भी हो सकते हैं और गलत भी। क्योंकि सबका अपना-अपना निज होता है। यानी कि सब अपनी आत्मिक तासीर के अनुसार संसार में सुख-दुःख के भागीदार बनकर अपनी जीवन लीला खेलते हैं। अपने निजत्व के निमित्त ही हम अपने मित्र, वस्तु और स्थान का चयन करते हैं। 

हमारा देश मध्यमवर्गीय परिवारों का देश है। यहाँ किसानी सभ्यता की जड़ें बहुत गहरी हैं। हम मोटा खा-पहनकर भी सुख का अनुभव कर लेते हैं। जैसा हम खाते-पीते हैं; हमारे भगवान भी उसी तरह का भोग स्वीकारते हैं। जैसे विदुर ने केले की गिरी को फेंक दिया था और केले की छिलके को जगतपिता के आगे बढ़ा दिया था। ईश्वर ने  उसमें भी उतना ही स्वाद लेकर खाया, जितना माखन-मिसरी में लिया होगा। 

खैर, फिर एक दिन हमारे देश के किसान के घर शिक्षा का दीपक टिमटिमाने लगा। उसके उजास में उनके वंशजों ने खुद को देखना शुरू किया और देखते ही देखते तकनिकी ऊँचाइयों को छूते चले गये। हमारे देश का चेहरा बदलने लगा। हमारी जेबों में धन की खनक पैदा होने लगी। हम उत्साह के साथ धनतेरस मनाने लगे। अनाज के ढेर टीन के पीपों में सिमटने लगे। गाँव, शहर की ओर पलायन में लिप्त हो गया और मनुष्य बदलाव की बुलाहट पर पाश्चात्य की नकल करने पर आमादा होता चला गया। "थोड़ा है, थोड़े की जरूरत है" वाले मोड से निकलकर वह लालची बन्दर की तरह बनता चला गया। 

उसकी वरीयता बदलने लगी। वह टोला-पड़ोस और रिश्तेदारों के सुख-दुःख को भूलकर बस अपनों के लिए जी तोड़ सुविधाएं जुटाने लगा। उसने एक बार फिर गांधी और खद्दर को ताक पर रखने का गाढ़ा प्रयास किया। मनुष्य अपने से जुड़ी हर बात में मखमल की खोज करने लगा। धन की उगाही में ईश्वर को महँगी से महँगी चढ़ौतियों से लादना शुरू कर दिया। उसकी पूजा-अर्चना की सीधी-सादी विधियों-गतिविधियों में तकनीकी बदलाव आने लगा। ऐसे करते हुए आज का नागरिक तरक्कीशुदा देश का बाशिंदा बन चुका है। अब मनुष्य दान-धरम भी छिपकर नहीं करता। बाकायदा पहले डुगडुगी बजाकर जनता को जमा करता है फिर तमाशा के रूप में दान करता है। 

जो भगवान गज भर पाट-पटोरे, चुटकी भर हल्दी, कच्चे सूत के जनेऊ और घी-गुड़ से प्रसन्न होकर मनुष्य को शतायु और समृद्धता का आशीर्वचन सहज ही दे देते थे, उनको गोटा किनारी, जरीदार फरिया-ओढ़नियाँ ओढ़ाकर भी आज का पूजक खुश नहीं हो पाता। उसके बाद भी ईश्वर का औदार्य तो जैसा तब था, वैसा ही आज देखा जा सकता है। ईश्वर की संस्कृति नहीं बदली। वह तो अपनी ही रौ में सुख के बाद दुःख देते चले आ रहे हैं।

अंधा बदलाव हमने किया है, ईश्वर ने नहीं।  "पूछ-पूछ कर साधे जोग, छीजे तन और बाढ़े रोग।" ये उक्ति हमारे पुराने लोग कहा करते थे। जिसको हमने पूरी तरह से भुला दिया है। ग्लोबल भीड़ में हम अपने पहनावे-ओढ़ावे से लेकर व्रत-उपवास यानी कि चारों दिशाओं की मृदुलता स्वीकारते चले गए। जिसे अपने देव की शरण में बैठकर अपनी मान्यताओं के अनुसार हम पूजते थे, उसे उसके हाल पर छोड़ इधर-उधर सबके व्रत उपवास अंगीकृत करते चले गये। नतीजा हमारे सामने है। हम ये बिलकुल भूल गये कि दक्षिण का नारियल उत्तर दिशा की बदली हुई जलवायु और मिट्टी में फल नहीं देता। तो हमें ख़ुशी का फल कैसे प्राप्त हो सकता था?

आज गणेश चतुर्थी, दीवाली, दशहरा आते ही धन के मद में अंधे लोग खाँचे भर पूजा-सामग्री बाजारों से लादकर घर लाने लगते हैं। लेकिन ये भूल जाते हैं कि जिसकी स्थापना वे करते हैं, उसको विसर्जित भी करना पड़ता है।  और विसर्जन की विधि कैसे करना चाहिए, न हमें आती है और न ही सीखना है। हम तो विसर्जन के नाम पर भगवान समेत पूजित सामग्री आँखें मींचकर नदियों, पोखरों में बहाने को ही विसर्जन मान लेते हैं। ये क्रिया तब तक तो ठीक थी जब तक नदियों में बहने की ताकत बची थी। लेकिन जल्दी ही देश के समस्त प्राकृतिक जल स्रोत दूषित होने लगे। उनमें पूजा के उपरांत पूज्य सामग्री विसर्जित करना मना हो गया। अब पूजकों पर बड़ा संकट आ गया। 

मूर्तियों पर अपना अगाध प्रेम लुटाने वाला, पूजा के उपरान्त मूर्तियों को सड़क के किनारे, पीपल-बरगद की जड़ों आदि में रात के अँधेरे में छिपकर छोड़ने लगा। वरदान देने वाला देव कचरे में दबने लगा। सड़क किनारे धूल फांकने लगा। सितारेदार देव परिधान सड़क पर उड़ने फिरने लगे। यहाँ आपको याद दिला दूँ तो, अभी भी पूजक बदला है देव नहीं। उसका वरदहस्त कचरे में बैठकर भी पूजक की ओर वरदान की मुद्रा में ही उठा दिखता है। जिस देव की बैठकी मंदिर में होनी चाहिए थी, वह नालियों के किनारे पर साँसे भरने लगा। इस हालत का जिम्मेवार क्या ईश्वर खुद है? यदि मनुष्य से पूछो तो वह भी कहता है,"क्यों दी इतनी मानव को बुद्धि? अब दी है तो भुगतो!

मुझे ये समझ नहीं आता है कि हमने अपनी अंतस की आँखें बंद क्यों कर रखी हैं। अपने इष्ट को पूजने के बाद यदि उनको गृह निकाला देना ही है, उसके बारे में थोड़ा तो विचार करना चाहिए। जिस उमड़ती श्रद्धा  के साथ हम भगवानों को बाज़ार से घर लाद लाए थे, क्या उनको पूजने के बाद हमारी सारी की सारी श्रद्धा खो गयी? यदि हम इस महान दौर की चमक और भगवान में सामंजस्य नहीं बैठा पा रहे हैं तो हमें अपनी चुनाव प्रक्रिया को ही बदलन होगा। हम या तो ईश्वर को चुने या स्वयं को। यदि दोनों को साथ लेकर चलना है तो भारत के उस दौर-ए समय की ओर हमें देखना होगा जब हमारी मायें, दादियाँ और नानियाँ सिंदूर या घी से किसी थाली या लकड़ी के पटरे पर ईश्वर का स्मृति चिह्न बनाकर या मिट्टी की स्वनिर्मित मूर्ति बनाकर अपनी कच्ची-कोमल भावनाओं को पूज लेती थीं। क्योंकि हम उस देश के वासी हैं, जहाँ  सम्हल-सम्हलकर चलने पर भी,"ध्यान रखो, पाप लग जाएगा" जैसे वाक्यांशों को कहा-सुना जाता है।

हाँ, इस युक्ति में एक डर तो है कि हमने यदि पुरातन पद्धति को अपनाने की कोशिश की तो विकास धर्मी हमें पुरातनपंथी कह सकते हैं। लेकिन पुरातनपंथ को विनियोजित कर यदि हमने साध लिया तो भारतीयता का ये दावा है कि हमारा मन ग्लानि भरने से बच जाएगा। मूर्ति की पूजा और विसर्जन आसान और गरिमामयी भी हो पायेगा।  क्योंकि तब का भारत थाली या पटरे पर बने भगवान के स्मृति चिह्न को दूध से धोकर किसी गमले में डाल दिया करता था। मिट्टी के पूजित गौर-गणेश को तुलसी के गमले में रखकर लोटा भर जल चढ़ा देता था या किसी ताल पोखरे में सिरा दिया करता था। वह जानता था कि मिट्टी को मिट्टी बनने में कितनी देर लगती है! लीजिए हो गया श्रद्धायुत विसर्जन पूजन।

भगवान पुजकर और पूजक पूजकर खुश हो जाता था। उस वक्त के पूजक का मन आज के पूजक की तरह मोहर खर्च करने के बाद भी खिन्नता से नहीं भरा रहता था। आख़िर पूजा, हवन और मंत्र उच्चारण आदि से खुशी तो अंत में हमें ही मिलनी है। आपा में ठंडक हमारे ही बैठनी है। क्योंकि करते तो हम अपने मन की ही पूजा है न! और हमारे भीतर छिपा ईश्वरीय तत्व प्रसन्न हो जाता है। सतयुग, द्वापर और त्रेता युगों में ईश्वर वरदानी को वरदान देते समय विध्वंस से बचाने का एक तार अपने हाथ में रखता था। लेकिन अब न जाने क्यों ईश्वर इतना दब्बू हो गया है कि वह मनुष्य को पहले चेताता नहीं है, सीधे सुनामी-भूकंप लिए चला आता है। उस कहर में उद्दण्डता के साथ अबोध मन वाले भी ढेर हो जाते हैं।

ये सब देखते हुए मुझे राजेश रेड्डी का वो शेर याद आता है,"मेरे दिल के कोने में इक मासूम सा बच्चा, बड़ों की देखकर दुनिया बड़ा होने से डरता है।"

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प्रकृति दर्शन में प्रकाशित 

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