कोई खुशबू उदास करती है


"आओ आवरण बाँचें" में नीलिमा शर्मा की कृति "कोई खुशबू उदास करती है" मेरे सामने है।


हम कितनी ही कोशिश क्यों न करें, चीज़ों के रूप के पीछे हम वास्तविकता को नहीं पकड़ सकते। इसका भयानक सा कारण ये हो सकता है कि चीज़ों के अनुभव से अलग उनकी कोई अलग वास्तविकता नहीं…! आस्कर वाइल्ड

सच ही तो है इस जड़ जगत में ऐसी बहुत सी चीज़ें हैं जो निराकर होते हुए भी अपने सहज क्रम में घटित होती रहती हैं। लेकिन लगता हमें ये है कि कुछ अघटा सा अचानक घटकर हमें उत्साहित या प्रफुल्लित कर खुशी से भर गया है। जबकि इसका एक लंबा प्रॉसेस होता है। कितनी बार हम अपनी थकान को ठंडी जमीन पर बिना किसी इलाज़ के ठीक कर लेते हैं। और कई बार पीड़ा का सिंदूर ऐसा छितराता है कि धोए नहीं छूटता। ऐसा भी लगता है कि हम तो खुशी से बताशा हुए जा रहे थे लेकिन न जाने कहाँ से एक उदास खुशबू का झौंका बेदम आया और बेहद सावधान होने के बावजूद हमारा सारा उत्साह छीन कर उड़नछू हो गया। और हम निरुपाय निरीह अशांत से बस अपनी जाती हुई ताज़गी को ओझल होते देखते रह जाते हैं।


 यहां पर लेखिका यदि "कोई बदबू" कह देती तो समझ की सारी पेंचीदगी खत्म हो जाती और उदासी का निबंध शुरू होते ही उपसंहार पर पहुंच जाता। क्योंकि बदबू का मतलब ही कुछ भूला भटका पछतावा, कुछ रूखा, सूखा, बेजान असुंदर प्यास जैसा है। जो पहले से ही हरितिमा से रिक्त है वह किसी का क्या कम ज्यादा कर सकता है। क्या बिगाड़ सकता है इसीलिए लेखिका ने अपनी पुस्तक में संग्रहित रचनाओं के थैले के मुख को "कोई खुशबू उदास करती है!" नामक डोरी से बांधा है। 


लेखिका ने ये पता लगा लिया है कि कहानी की नायिका को बदबू नहीं,कोई खुशबू माने सुंदर शोभाशाली घटक ही उसकी उदासी, तटस्थता, निरपेक्षता, रंजीदगी का कारण है। नायिका को कहानी इसलिए कहनी पड़ती है क्योंकि उदास खुशबू का उसके हाथ कोई ठोस सबूत नहीं है। इसलिए लेखिका ने नायिका की मदद करते हुए सर्वनाम शब्द "कोई" का प्रयोग करते हुए उदासी समझने की जिम्मेदारी पाठक के ऊपर छोड़ दी है। क्योंकि कथा लेखिका नीलिमा जानती हैं कि कहानी पढ़ने वाले को उसके जीवन की जिस प्रकार की खुशबू उदास करती होगी वह  इस कहानी की खुशबू से तंग आई नायिका की पीड़ा को सहज ही समझ लेगा। आख़िर दृष्टा, भोगता लेखक और पाठक कहानी में खुद को ही तो रचता और पढ़ता है। इसलिए इसके साथ भी अपना तादात्म बना ही लेगा।


खैर, चूँकि नीलिमा ने अपनी कृति के शीर्षक के अनुसार आवरण का चयन इंटरनेट पर उपलब्ध चित्रों में किया है। उनकी दृष्टि तारीफ़ के योग्य है। लकिन मैं सोचती हूँ कि ये चित्र यदि कोई चित्रकार शीर्षक पंक्ति को पढ़ते  और महसूस करते हुए बनाता तब भी शायद वह ऐसे ही चित्र को चुनता। थोड़ी देर के लिए ये मान लेते हैं कि लेखिका ने कृति का आवरण बनाने के लिए अपने शीर्षक शब्दों को किसी चित्रकार को सौंपा होगा। तो एक बार वह भी शीर्ष वाक्यांश को पढ़कर मौन हो गया होगा कि आख़िर एक उदास खुशबू को वह आकार दे भी तो कैसे दे? एक तो खुशबू स्वयं में आकार रहित तत्व ऊपर से अनपहचानी उदास करने वाली खुशबू का प्रतीक भी जड़ना है। एतद वह कहाँ से खोजे ऐसा चित्र को शीर्षक को मुखरित कर सके।


चित्रकार गहरी ऊब-चूब में अभी सोच ही रहा होगा कि भोर अपने इंद्रधनुषी परिधान में इठलाती हुई धरती पर उतरी और मौसम में एक खुशनुमा खुशबू फ़ैल गई। उसने अपनी कूंची सम्हाली और गुलाबी, केसरिया रंग से लेकर इंग्लिशी ग्रीन सारे मन को सुकून देने वाले हल्के रंगों को बिखराना शुरू कर दिया। हवा खुशबू के गीत गाने लगी। लेकिन चित्रकार अभी भी मौन था क्योंकि उसको उदासी को भी उकेरना था। लेकिन चित्रकार के नज़रिए को दाद देनी पड़ेगी। उसने खुशबू का पर्याय औरत को तो चुन ही लिया था जो वासंती पवन में लहरा रही थी। अब बस उसको उदासी उकेरनी थी। उसने उदासी दर्शाने के लिए भोर रूपी सुंदरी को पीठ फेरकर खड़ा कर दिया। जैसे ही स्त्री ने अपना मुख उसकी ओर से घुमाया उसकी कूंची से सारे रंग झर गए। मौसम में एक उदासी तारी हो गयी। कितना अद्भुत है न! उदासी का ये प्रतीक। वैसे भी खुशबू के स्वभाव वाली स्त्री जब घर में पीठ फेरकर बैठ जाती है तो पत्थर सी कड़क मन वाली सासूमाँ भी उदास हो जाती हैं। इस संग्रह में रिश्तों के बनते बिगड़ते ताने बाने की कहानियों ने खूब पाठकों का मन भिगोया है। जिन्दगी इसी का नाम है। इन्हीं शब्दों के साथ कृतिकार नीलिमा को दोगुनी बधाई एक आवरण चित्र स्वयं चुनने के लिए दूसरी संवेदनात्मक कहानियाँ रचने के लिए अनेक शुभकामनाएं 💐💐






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