पत्थर भी जब प्रेम समझने लगता है

 

जब शब्द अपने अर्थ स्वयं खोने लगें, दीपक रोशनी छिपाने लगे, प्रेम कुंठित होने लगे, अपनी कौम ही गद्दारी करने लगे, नदी जल चुराने लगे और जब जीवन मृतप्राय बनने लगे तब "अन्या से अनन्या" कृति का सृजन नहीं होता तो क्या होता? कैसे कोई अपना होते हुए “अन्य” की श्रेणी में आ जाता है?

इस कृति का शब्द-शब्द पीड़ा में लोढ़ा-लथरा हुआ है। प्रभा खेतान का जीवन किसी की कृपा या अनुकम्पा पर नहीं बल्कि उनके जीने की गहरी इच्छा-जिजीविषा पर पनपा है। वे अपने जीवन को घाटी से शिखर तक अकेले लेकर गईं। उनकी जगह कमज़ोर मन वाली स्त्री यदि होती तो ये पुस्तक हमारे हाथों तक पहुँच ही नहीं पाती। कोई रस्सी, नदी या कुआँ उसे अपनाकर उसका खेल खत्म कर देता। 

इन दिनों प्रभा खेतान जी की आत्मकथा पढ़ कर खत्म कर रही हूँ। इस कृति ने अपने आप में दर्द की एक नहीं तमाम नदियाँ समाहित की हुई हैं। दूर-दूर तक रेत के समंदर पसरे पड़े हैं। कहीं-कहीं कुछ हरियाली अगर दिखती भी है तो वह सर्वोपांग कंटकों से अच्छादित है।

इस आत्ममंथन कथा को पढ़ते हुए पाठक को एक ऐसी सुरंग मिलती है जिसमें अंधेरा ही अंधेरा है। चारों ओर अराजकता की सड़ांध है। प्रेत छायाएँ हैं वो भी लेखिका से संबंधित जिंदा जनों की। जिन्हें वे तमाम जिन्दगी अपना कहती रहीं। उस सकरी सुरंग की ज़मीन पर अपमान की बेतरह फिसलन भरी नमी है। दीवारों से लगातार नमक झर रहा है। सुरंग में इस प्रकार के कीड़े मौजूद हैं जिन्होंने अपनी मर्ज़ी से सूरज का रुख दूसरी ओर मोड़ा हुआ है। जिन्होंने अपने इर्दगिर्द काई का एक विशाल साम्राज्य मजबूती से बुना हुआ है और प्रभा खेतान का आवागमन उसी में निहित है।

हालाँकि प्रभा जी ने अंधी सुरंग को बहुत दिनों तक अँधा नहीं रहने दिया है। अपनी पूरी ऊर्जा का उत्सर्जन कर एक नया बिल्कुल अपना सूरज टांकने की कोशिश की और टांका भी है। ये कृति उसी का पर्याय है। प्रभा खेतान को पढ़ते हुए गहरे से महसूस हुआ कि जब इस दुनिया को सिर्फ़ शब्द ही चाहिए थे तो उसने अर्थाचार्यों को जन्मने ही क्यों दिया? जब सभी को एक ही तत्व की पैरवी करनी थी तो दूसरे तत्व को अस्तित्व में आने ही क्यों दिया? 

एक जगह वे लिखती हैं,"मैं उपेक्षिता थी,आत्मसम्मान की कमी ने मेरा जिंदगी भर पीछा किया।" और तब तो और ज्यादा दुःख गाढ़ा हो जाता है जब जन्म देने वाली स्त्री ही अपने से अभिन्न स्त्री को त्याज्य समझने लगती है।

वो बच्चा क्या करेगा जिसके भाई-बहन को उसकी माँ प्राणों के ठौर चाहती है लेकिन उसे नहीं। क्योंकि उसके दांत बाहर की ओर निकले हैं और चमड़ी का रंग काला है। उस पर जिस बच्ची को पल-पल तिरस्कृत किया जाता है वह उसी प्यार के झरने के बीच रहने के लिए मजबूर है लेकिन प्रेम की एक बूंद भी उसे दाई-दासी में तलाशनी पड़ती है। उस उपेक्षित बच्चे की मानसिक स्थिति का जिम्मेदार कौन होगा? अपनी उपेक्षा का कारण क्या बच्चा स्वयं है या सफ़ेद चेहरे वाला समाज? 

जब वे लिखती हैं,"कैसा अनाथ बचपन था। अम्मा ने कभी मुझे गोद में लेकर चूमा नहीं। मैं चुपचाप घंटों उनके कमरे के दरवाज़े पर खड़ी रहती। शायद अम्मा मुझे भीतर बुला लें...।" मन में डाह पूर्ण पीड़ा उठती है ये क्या था? ऐसी माँ की बेटी अपने उम्र के आवेगों को कैसे सहेजती। अपने जीवन की मरुभूमि को कैसे तर करती? आखिरकार स्निग्धता की माँग तो संसार की निर्जीव वस्तु को भी होती है। फिर प्रभा तो जीवित थीं उन्होंने अपने संबंधों के बारे जो लिखा वे उसे छिपा भी सकती थीं और आडम्बरपूर्ण सत्य को भी लिख सकती थीं लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। जिसके लिए उन्हें या उनके लेखन को गाहे-बगाहे प्रबुद्ध साहित्यिक जगत में दो-चार खरी-खोटी सुना ही दी जाती हैं। 

जब बेटी अपने लिए एक मजबूत पुख्ता जमीन ढूंढ रही हो, जब उसका चित्त अपनी जमीन से ऊब चुका हो, वह अपने वातावरण को बदलकर अपने मन की तासीर जाँचना चाहती हो और विदेश जाना चाहती हो तो एक माँ का कर्तव्य क्या होना चाहिए? प्रभा खेतान की माँ कहती है,"बेटी वहीं रह जाना, यहाँ लौटने की जरूरत नहीं। कोई मन पसंद लड़का मिले तो शादी भी कर लेना।"

बेटी पूछती है।"अम्मा, आप मुझे देश निकाला दे रही हो?" उसके बाद माँ मौन हो जाती है। आखिर क्यों? उनकी माँ के बारे में सोचकर बार-बार ये लगता है कि एक स्त्री इतनी निष्ठुर कैसे हो सकती है? ज़रूर उनके जीवन पर पितृसत्तात्मक समाज की अमिट छाप पड़ी होगी जिसको वे चाहकर भी अपने होने से मिटा न सकीं। जिस प्रकार प्रभा खेतान ने कृति में अपनी माँ के उद्धरण दिए उससे तो यही लगता कि उनकी मां के मानस पटल पर सामंती बर्जुआ समाज ने दमन और घुटन की ऐसी लकीरें खिची थीं जैसे पीतल की थाली पर कोई ”खुद चला जाए पर नाम बना रहे” वाल व्यक्ति अपना नाम खुदवा लेता है।

इस कृति को पढ़ते हुए ये भी जाना कि स्त्री दुर्दशा सिर्फ़ इसी देश तक सीमित नहीं बल्कि अन्य देशों में भी स्त्री को सड़े तिनका भर भी अहमियत हासिल नहीं होती है। अगर स्त्री जीवन की अर्थ हीनता न होती तो प्रभा जी के डॉक्टर साहब ये जानते हुए कि उनके सामने उनसे प्रेम करने वाली जो स्त्री है जिसने उन्हें अपना देवता बना लिया है, न कहते," मेरी जगह यदि कोई और होता तो कब का तुम्हारा छमियाकरण हो जाता!" कोई उनसे पूछता क्या किसी के प्रति समर्पण छमियाकरण होता है?

एक जगह जब वे अपने व्यापार के सिलसिले में किसी विदेशी महिला से बात करती हैं, माने प्रभा खेतान और उसका आत्मविश्वास देखती हैं तो उन्हीं के शब्दों में,"भीतर कुछ हलचल हुई। जैसे किसी ने थोड़ी सी खिड़की खोली हो और वहाँ रोशनी ठिठक गई हो।"

मेरे साथ भी इस कृति को पढ़ते हुए मानवता के ऐसे तथ्य खुले जो विचारणीय तो हैं ही बेहद कष्टप्रद भी हैं। लेखिका के साथ घटी छोटी-छोटी शब्द घटनाओं की रोशन कणिकाओं ने मेरे सोच के मंथन कुंड में उजाले का दांव दिया है।

मुझे लगता है, हम चाहे अरस्तू, प्लेटो और शंकराचार्य का अद्वैत वेदांत क्पों न पढ़ लें या गिरि-कंदराओं में तप कर लें तब भी अपने मानस की जमीन पुख्ता नहीं बना सकते जब तक कि अपने जन्म की घटना का कारण समझते हुए प्रेम के शुद्ध महत्त्व को न समझ लें।

पत्थर भी जब प्रेम समझने लगता है तब उस पर काई नहीं दूब उग आती है। जो जानवरों को नहीं खिलाई जाती अपितु उससे देव पूजे जाते हैं इन्सान तो इंसान ही है। अस्तु!

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