हिंदी भाषा की साहित्यिक नाव

 

समय हमें धीरे-धीरे बदल रहा है और सबसे ख़ास बात ये कि हम बिना ना नुकुर किए बदलना स्वीकार करते जा रहे हैं। वैसे भी हमारी ताकत इतनी कहाँ है कि हम समय से मुँहजोरी कर सकें। हम सबके सामने तन सकते हैं लेकिन यहाँ तो भीगी से भी भीगी बिल्ली की तरह से दुबक जाना चाहते हैं।

ये कोरोना काल है या कि एक जिद्दी माँ जो अपने मुताबिक़ चलाए जा रहा है दुनिया को, और हम आज्ञाकारी बच्चे की तरह चलने के लिए मजबूर होते जा रहे हैं। कुछ भी हो हमें इन्तजार है इस समय के बाद मिलने वाली नई दुनिया के नए-नरम हाथों का। मन दुखी है या आशान्वित नहीं पता लेकिन वह सोचता बार-बार है कि कैसा होगा कोविड के बाद हमारे हाथ आने वाला दुनिया का दूसरा और नया चित्र ?

क्या लोग बेखौफ़ होकर मिल पाएँगे एक दूसरे के गले? या करेंगे झुक-झुककर प्रणाम और नमस्ते! गए समय की तरह, कुछ नहीं पता। सन 2020 वर्ष का समय परिदृश्य बेहद खौफनाक है। इस वक्त का जो शीशा निर्मित हो रहा है वह बेहद धुँधला और दरका हुआ है। हम चाहकर भी अपना बिंब साफ़-साफ़ नहीं देख पा रहे हैं। हाँ, सन्तोष बस इतना है कि हम ठहरे श्रमजीवी जो कठिनाइयों से मुठभेड़ करना जानते हैं इसलिए हमें बुरी से बुरी परिस्थितियों में रहते हुए भी अपने और अपनों के लिए अच्छी-अच्छी बातें अंदाजने में महारत हासिल है। हर घड़ी डर, ऊब और टूटती आशाओं के दौरान भी हम अच्छे वक्त की कल्पना कर जिए जा रहे हैं। हमें अंदाजा है कि आने वाला समय बेहद उम्दा होगा।

वैसे तो इस चुगली खाए समय को कौन नहीं कोसता होगा! हर और से बेचारा वक्त बुरा भला सुनता जा रहा है लेकिन न उसे परवाह है न ही हमें; ठीक भी है। ईश्वर बंदों की नहीं अपनी सुनता है। काल ही ईश्वर है और ईश्वर ही काल है। वक्त रूठा हुआ है, ये बात हमें माननी ही होगी।

जब इस बेतरतीब समय में कहीं भी कुछ भी अच्छा नहीं दिख रहा है तब भी हमारे लिए कुछ अच्छा हो रहा है और उस अच्छे होने में हमारे साथ जो भूमिका तकनीक ने निभाई है, वह एक सहृदय की ही हो सकती है। इस बात का सन्तोष भी हमें है और हमारे देश के क्या! समस्त भूमंडल के इंजीनियरों को धन्यवाद ज्ञापित करने का भी मन हो रहा है। उनकी लगन और मेहनत से ही आज हम रोगिल समय के उस पार देखने का साहस जुटा पा रहे हैं।

इसी के सहारे जो साहित्य बड़े-बड़े सभागारों, सम्भ्रांत गोष्ठियों और किताबों में निहित था, उस साहित्य की सरिता हमारे सामने बह चली है। हम अचानक उसके किनारे पर आकर मनोरमता का आनंद उठा रहे हैं। साहित्य सरिता का उद्गम स्रोत और कहीं नहीं, यही मुखपुस्तक यानी कि फेसबुक बन गया है। यहीं पर साहित्य वाचिक परंपरा वाले आभासी तंबू पूरी शिद्दत से तन चुके हैं। छोटे-बड़े सभी रचनाकार अपनी अपनी कलमों के साथ यहाँ आकर बिराज चुके हैं। एक दूसरे के टेरने से लोग त्वरित आमंत्रण स्वीकार कर रहे हैं। हिंदी भाषा की साहित्यिक नाव पर रचनाकार यदि विचरण कर रहा है तो पथिक पाठक को भी वाही नाव उनके भावलोक की यात्रा पर ले जा रही है। कवियों के हृदय में खुशी गाढ़ी हो रही है। कारण साफ़ है, कविराज रात-रात भर जागकर कल्पनायुत होकर कविता की रचना करते हैं। कविता सृजन के उद्भव से उनका मन प्लावित हो जाता है। अब वे चाहते हैं कि कोई उनकी रचना को सुने और उनकी रचनाशीलता को सराहे। आम आदमी है कि उसे गृहस्थी की गाड़ी खींचने से फुर्सत कहाँ 

खैर, इस समय ने कवियों की चाँदी कर दी। उनके आगे कविता सुनने वाले अपने हाथों में वाह वाह और बधाई से भरी टोकरी लिए घेरा बंदी कर उनकी कविता सुने जा रहे हैं। कुल मिलाकर इस संक्रमित समय की साँय साँय में भी साहित्यि का मृदंग बेजोड़ मुखरित हो चला है। जिन साहित्यकारों को सुनना एक साधारण साहित्य प्रेमी के लिए मुश्किल और श्रमसाध्य कार्य था,वह अपने पसंदीदा लेखक, विचारक और कवि को एक क्लिक में सुन पा रहा है।  

मैंने भी सुनामधान्य नए-पुराने तमाम साहित्य रचियताओं में मृदुला गर्ग जी, सुधा अरोड़ा जी, अल्पना मिश्र जी, ममता कालिया जी, रोहिणी अग्रवाल जी, उषा किरण खान जी, जया जादवानी जी, चित्रा मुद्गल जी, मनीषा कुलश्रेष्ठ जी, अनामिका जी, वन्दना बाजपेई जी, डॉ.कल्पना दीक्षित जी,वंदना गुप्ता जी, सविता सिंह जी, रंजना गुप्ता जी, गीतकार विकल जी, वेद शर्मा जी, जागूड़ी जी, इंदीवर पांडेय जी आदि आदि को सुनकर इस छलछिद्री समय को माफ़ करने की हिम्मत जुटा ही ली है। ये लेख सितंबर 2020 को लिखा गया. अस्तु

*** 

 

Comments

  1. सच है कि समय के इस काल ने बहुत कुछ बदल दिया। ऐसे समय में तकनीक ने हमें सहारा दिया है और हमारा संपर्क माध्यम बनकर ख़ुशी दे रहा है। एक क्लिक से जिसे चाहे पढ़ सुन सकते हैं। आभार।

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

एक नई शुरुआत

आत्मकथ्य

बोले रे पपिहरा...