पक्षियों का राजा मोर

  

चित्र फेसबुक से साभार 

मेरा नाम मोर है। मैं जंगल में रहता हूँ। आम वनों की शीतलता मेरे मन को अत्यंत लुभाती है। मैं खगकुल की एक अलग प्रजाति में आता हूँ। मेरी सुन्दरता के कारण ही मुझे पक्षियों का राजा कहा जाता है। मेरे पास रंगों का ख़जाना है। मेरी गर्दन के रंग वाले परिधान हर स्त्री की चाहत होती है। सब में कोई न कोई विशेषता होती है। उसी प्रकार मेरी श्रवणशक्ति बेहद उम्दा है। जब दूर कहीं श्याम बादलों में बिजली कड़कती है तब मेरा मन उत्फुल्लिता के शिखर पर होता है। मैं हवा में घुली तरंगों पर नाच उठता हूँ। मेरे साथ रहने वाले पंछी मुझे नाचता हुआ देखकर डालियों पर मचलने लगते हैं।

मेरे अद्भुत रूप लावन्य दर्शाने के लिए प्रकृति ने मेरे सिर पर एक ताज जैसी कलंगी लगा रखी है। उसी की नकल कर आदमियों ने दूल्हे की पगड़ी में कलगी लगाने का चलन शुरू कर दिया होगा है। वैसे कलगी तो मुर्गे की भी होती है लेकिन मेरे जैसी नहीं।

मेरे सलोने सौंदर्य के कारण ही भारत सरकार ने 26 जनवरी,1963 को मुझे यानी कि मोर को राष्ट्रीय पक्षी घोषित किया दिया है। हमारे पड़ोसी देश म्यांमार का राष्ट्रीय पक्षी भी मैं ही हूँ। 'फैसियानिडाईपरिवार के सदस्य होने के कारण मेरा वैज्ञानिक नाम 'पावो क्रिस्टेटसहै।

कई संस्कृतियों में मुझे प्रमुख रूप से निरूपित किया गया है। अनेक प्रतिष्ठिानों में मैं मोर आईकन के रूप में प्रयोग किया जाता हूँ।संस्कृत भाषा में मुझे मयूर: कहते हैं। भारत में अक्सर परंपराओंमंदिर में चित्रित कलाओंपुराणोंकाव्य और लोक संस्कृति में मुझे एक अलग जगह मिली हुई है। कई हिंदू देवता पक्षियों के साथ जुड़े हैं। द्वापर में विष्णु अवतार को कौन नहीं जनता होगा। देवकी नंदन कृष्ण अपने अलंकारों में मेरे पंख को सर्वोपरि मानते हैं। और अपने मस्तक पर मेरा पंख यानी कि मोरपंख धारण करते हैं। हमारे पंख पर बनी आँख कभी धूमिल नहीं पड़ती।

जैसे यदुनंदन कृष्ण ने मुझे पहरेदारी पर तैनात कर रखा है। जब वे राधा के साथ यमुना के किनारे पर रास रचाते हुए भाव विभोर हो अपनी आँखें आधी-आधी मूँद लेते हैं तब मैं अपनी आत्मा को पंख में समेटकर एकाग्र हो पहरेदारी करता हूँ। मेरी देव सानिद्ध्य की बात यहीं नहीं खत्म होती। बल्कि मुझे शिव का सहयोगी पक्षी भी कहा जाता है। शिव ने अपने पुत्र कार्तिकेय के वाहन के रूप में मुझे ही चुना है। मुझे गॉड ऑफ वॉर कार्तिकेय (स्कंद या मुरुगन के रूप में) भी जाना जाता है। 

बौद्ध दर्शन में मैं (मोर) ज्ञान का प्रतिनिधित्व करता हूँ। मोर पंख का प्रयोग कई रस्मों और अलंकरण में किया जाता है। ग्रीक पौराणिक कथाओं में मेरा (मोर) का जिक्र मूल अर्गुस और जूनो की कहानियों में मिलता है। सामान्यतः कुर्द धर्म येज़ीदी के मेलेक टॉस के मुख्य आंकड़े में मुझे सबसे अधिक रूप से दिखाया गया है। मोर रूपांकनों को अमेरिकी एनबीसी टेलीविजन नेटवर्क और श्रीलंका के एयरलाइंस में व्यापक रूप से इस्तेमाल किया गया है।

भारतीय साहित्य की प्रबोधिनी महादेवी वर्मा का स्नेह भी मुझे प्राप्त हो चुका है। वे मुझे बेहद स्नेहिल दृष्टि से निहारती थीं। मेरा वजन ज्यादा होने के कारण मैं पृथ्वी से थोड़ी दूर की ऊँचाई पर ही उड़ सकता हूँ। मेरी उड़ानें लंबी नहीं होती हैं। लेकिन मैं बहुत तेज़ी से दौड़ सकता हूँ। जब मेरी दौड़ने की रफ्तार मनुष्यों द्वारा आँकी जाती है तब पता चलता है कि मैं 16 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ़्तार से दौड़ सकता हूँ। वैसे तो मैं बहुत दूर-दूर कहीं न जाकर एक बाग से दूसरे बाग या झाड़ीदार वनों को ही अपना निवास स्थान बनाता हूँ। मेरा आहार-विहार इन्हीं वनों से प्राप्त होता है। जीवन का निस्तार और विस्तार में कभी-कभी मैं साँप को भी अपना आहार बना लेता हूँ। 

खगकुल की अन्य जातियों में स्त्रियाँ यानी मादाएँ ज्यादा सुंदर होती हैं। लेकिन मेरे वंश में ऐसा नहीं है। हमारे यहाँ नर यानी कि हमारे परिवार के पुरुष मोर ज्यादा शोभाशाली होते हैं। मोरिनियों का शरीर मिट्टी के रंग जैसा होता है। मेरी उम्र २५ से ३० वर्ष तक होती है। हमारी मादाएँ घोंसला नहीं बनाती हैं। जिस प्रकार बंदर अपना जीवन डाली-डाली पर भटकते हुए बिता देता है उसी प्रकार मादाएँ भी जमीन पर किसी सुरक्षित स्थान का चुनाव कर अंडे देती हैं।

एक बात और मैं बताना चाहता हूँ कि जैसे संसार प्रकृति और पुरुष के संसर्ग से अपना विस्तार करता है। जैसे स्त्री-पुरुष अपनी संतति को जन्म देने के लिए संसर्ग करते हैं। और न केवल मनुष्य ही इस चराचर जगत में अनोखा हैकीट-पतंग से लेकर पशु-पक्षी भी प्रजनन प्रक्रिया से ही अपने कुल की वृद्धि करते हैं। उसी प्रकार मोर-वंश भी चलता है। मनुष्यों को मैंने कई बार बहस करते सुना है कि "मोर संसर्ग नहीं करता है इसी लिए उसको कृष्ण का सानिद्ध्य प्राप्त है। उनका मानना है कि मोर जब नृत्य में मग्न होता है तब उसके अंतस का कलात्मक श्राव उसकी आँखों से बहने लगता है। बस उसी को पीकर हमारी स्त्रियाँ यानी कि मोरिनियाँ गर्भवती होती हैं।" मैं बताना चाहता हूँ ये बात बेबुनियाद है। क्योंकि इस बात के वैज्ञानिक पक्ष को देखें तो पायेंगे कि हर जीव प्रजनन के लिए नर-मादा के मिलन का प्राविधान है। ये भूलोक में दैवीय परिकल्पना है। 

हालाँकि भारतीय परिवेश में मनुष्यों द्वारा मुहाँ-मुँही चर्चा को कुछ ज्यादा महत्व दिया जाता है। साथ में उसी को सत्य भी मान लिया जाता है। लेकिन कुप्रचार करना अच्छी बात नहीं। दूसरे आस्थांध लोग भी इस प्रकार के प्रकरणों को बढ़ावा देते हैं और सही बात को नहीं स्वीकारते हैं।  

मनुष्यों में साधारण स्वभाव के माता-पिता अपने बच्चे को सांसारिक ढेर सारी जानकारी देते रहते हैं लेकिन सेक्स (प्रजनन) संबंधी चर्चा अपने बच्चों के सामने भूलकर भी नहीं करते हैं। इस दशा में भी उचित जानकारी से मनुष्य वंचित रह जाते हैं। और मनगढंत बातों का प्रचार-प्रसार कर रुढियों को विकसित करता है।

कुप्रचार पर भरोसा करके एक बार जंगल में मैंने गधे को शेर बनते देखा था। लेकिन जैसे ही उसकी पोल खुली वह कहीं का नहीं रहा। कोशिश यही होनी चाहिए कि जो बात सही हो उसी को इधर-उधर प्रसारित किया जाए। हम पंछी कभी किसी की बात किसी से नहीं कहते हैं। अपने जीवन की क्या कम उलझनें हैं जो किसी का बोझ अपने माथे पर लिए घूमें। खैर!

मोरिनी के रोने से महिला समाज से भी एक कथा जुड़ी है कि मोर की पत्नियों को एक तो उनके पति सुंदर होने का डाह होता है और दूसरा वे अपने बदसूरत पाँव देख-देख कर रोया करती हैं। क्यों भई ऐसा क्यों सोचते हैं, मनुष्य मुझे समझ नहीं आता। जबकि सर्वांग सुंदर तो ईश्वर ही हो सकता है तो फिर रोना किस बात का।

हाँ,ये ज़रूर है कि जब प्रकृति के दरबार में मैं अपना नृत्य प्रस्तुत करता हूँ तब हमारी मोरनियाँ मिलकर मुझपर अपने अश्रु वारती हैं। मेरा कामरूप नृत्य जब उच्च अवस्था में पहुँचता है तब मेरी आँखों से आँसू टपकने लगते हैं। वे देखकर हैरान हो उठती हैं और जैसे मनुष्य अपनों के आँसू पौंछता है उसी प्रकार वे भी अपनी चोंच से मेरे आँसुओं को हटाने की कोशिश करने लगती हैं। जब मैं उनसे पूछता हूँ तब वे मुझे बताती हैं कि मेरे आँसू दुःख के आँसू नहीं है। मेरा नृत्य मेरे हृदय को जब गदगद कर देता है तब मेरे कंठ से एक उल्लासित ध्वनि निकलती है और तभी भावुकता अश्रु बनकर मेरी आँख से टपक उठती है। वे उस जल से आचमन कर मेरी कला का सम्मान करती हैं। मेरी लिए मोरिनियाँ लगातार मुझे नृत्य करने में हौसला देती हैं। मेरे आँसुओं को पोंछती रहती हैं। उनके साथ से ही मैं अपनी नृत्य कला को सम्पूर्णता से प्रस्तुत कर पाता हूँ। हम सब मिलाकर प्रकृति देवी को हर संभव लुभाते रहते हैं। 

इस लेख में ऐतिहासिक आँकड़े मोर विकिपीडिया से साभार! 

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चित्र फेसबुक से साभार 






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