इस सावन



इस सावन मैं घर पर नहीं हूँ 

अजंता-एलोरा की गुफाओं ने

दी है आवाज़ मुझे

 

पत्थरों की मुखरित कशीदाकारी में बुद्ध स्तूप दिख रहा है मौन  

उसे देखकर करती हूँ याद 

औरतों के उन हाथों को जो काढ़ते हुए बेलबूटे 

इन दीवारों पर कितना बोले होंगे

 

बौद्ध गुफाएँ कर रही हैं लगातर 

मुझे आकर्षित 

महसूस रही हूँ मैं 

प्रेम पत्थरों में 

 

अजंता-एलोरा की गुफाओं के 

सन्नाटेदार सघन अँधेरों का शिल्प 

मेल खाता-सा दिख रहा है 

स्त्रियों के दाहक अंधेरों से

थरथराती है रोशनी की एक लकीर 

मेरे भीतर   

 

नक्काशीदार अलंकृत दीवारों के 

अनमोल भित्त चित्रों को उकेरा होगा 

किसी साधारण-सी दिखने वाली औरत ने

जिसके ठुड्ढी पर गुदा होगा 

हरे रंग का गोदना

जिसकी कानी ऊँगली का नाख़ून 

घिस गया होगा 

छैनी-हथौड़ी के रख-रखाव में 

 

अश्वनाल घाटी को घेर रखा है 

हरे-भरे गहरे जंगल ने

इस वन को जुनून है सिर्फ उगने का

इसलिए उगे जा रहे है 

इसके हृदय में अभी भी जीवित हैं 

उन तीस चट्टानों की चीखें 

जो बहुत तड़पने के बाद 

बदली थीं बौद्ध गुफा स्मारक में 

 

एलोरा की हरियाली देखकर  

याद आता है मुझे तुम्हारा वाला सावन

तुम्हारे पास भी था एक लाल पत्थर 

जिसको तुम सिलबट्टा पुराती थीं 

पत्थर की उस लाल सिल पर 

तुम पीसती थीं हरे पत्तेदार मेंहदी 

और मेरी हथेली रच जाती थी

झन्न से लाल 

 

न जाने तुम्हारे स्नेह की गुनगुनाहट में

या लाल सिल के स्नेहिल रंग में

लाल सिल-बट्टे और हथेली के बीच

हरी मेंहदी कैसे बदल लेती थी

चुपचाप अपना रंग

हम रह जाते थे दंग

 

अजंता-एलोरा की गुफाओं में उकेरी गईं 

जातक कथाओं में दिखती है 

एक रानी की ओढ़नी पसीने में डूबी हुई

पास में जाकर देखा 

तो उसके पसीने की गंध और आँखें

लगीं बिलकुल तुम्हारे जैसी।

***

 

 

 

Comments

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगवार(१७-०८-२०२१) को
    'मेरी भावनायें...'( चर्चा अंक -४१५९ )
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

    ReplyDelete
  2. बहुत ही सुंदर और गहन भाव समेटे आपकी रचना...। खूब बधाई

    ReplyDelete
  3. बहुत धन्यवाद शर्मा जी

    ReplyDelete

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