डर से आगे...
“मुझे आए हुए, दोपहर से रात के दस बजने को हुए और आप कह रही हैं कि पापा मेरी पसंद की मिठाई लाने गये हैं।” जो बात माँ छिपा रही थी,वही बात बेटी जान रही थी।
“आज पीकर नहीं आएँगे वे! मैंने अपने सिर की कसम दी है।” बेटी की ओर देखते हुए तारा पछताई हुई-सी बुदबुदाई।
“कुछ कहा अम्मा?”
“नहीं तो, तुम खाना खा लो। पापा जब आएँगे, हम खा लेंगे।”
“आपको क्या लगता है…पापा बिना पिए घर लौट आएँगे?” बेटी ने खुलकर नाराज़गी जताई तो तारा के भीतर कुछ छन्न से टूट गया।
“अरे न बिटिया, जब से तुम कॉलेज गयी हो तुम्हारे पापा सुधर-से गए हैं।” चूड़ियों से ताज़ी चिरी कलाई छिपाते हुए तारा ने सामन्य रहने का उपक्रम किया।
“रहने दो अम्मा! आपसे ज्यादा आपकी सूरत सही बोल रही है।” वह कुछ कहती कि धड़ाम-धड़ाम किबाड़ों पर थापें पड़ने लगीं।
“लीजिये आ गये…।” कहते हुए बेटी बाहर की ओर लपकी।
“तुम अंदर जाओ, मैं खोलती हूँ।” पसीने से लतपत तारा लड़खड़ाती हुई दरवाजे की ओर लपकी।
“लो खाओ मिठाई, बनाओ मिठाई, बाँटो मिठाई| इस साली को बहुत मिठाई चाहिए।” तारा का पति घर में घुसते ही तारा पर टूट पड़ा। कुछ मिनटों में गालियों के साथ-साथ अन्य वस्तुएँ भी ज़मीन पर लुढ़कने लगीं। पाँव उठाकर उसने तारा को धक्का मारना चाहा लेकिन लुढ़क खुद पड़ा।
“जब सम्हाली नहीं जाती तो पीते क्यों हो?”
तारा के रुँधे गले से इतना ही फूट सका। लेकिन इतना भी उसके लिए जहर हो गया। घर देखते-देखते कुम्भीपाक नर्क में बदल गया। बेटी की संवेदना आहत न हो, तारा जुगाड़ में थी कि दरवाजे पर ठक ठक ठक हुई।
“इतनी रात गए कौन होगा?” माँ अंदर की ओर झाँकते हुए बोली।
“अम्मा डरो मत, दरवाज़ा खोलो।” भीतर से आते हुए बेटी ने कहा। माँ ने दरवाज़ा खोला तो ख़ाकी बर्दी देख उसकी घिग्घी बंध गयी।
“आप लोग क्यों आये हो मेरे घर? ये इज्जतदार आदमियों का मुहल्ला है।” हक्की-बक्की-सी तारा चीख़ पड़ी।
“हमें ये कुछ नहीं पता, थाने में फोन इसी पते से गया था सो हमें तो आना ही था।”
"जाइए आप लोग, शरीफों के घर पुलिस नहीं आती।" तारा ने पूरी शक्ति समेट कर फिर अपनी बात दोहराई।
“अम्मा, पुलिस को अपना काम करने दो।" कहते हुए बेटी ने माँ को अपनी ओर खींच लिया। पुलिस तारा के पति को पकड़ कर जैसे ही घर से निकली, बेटी ने घर सारी बत्तियाँ जला दीं।
बहुत बढ़िया लघुकथा।
ReplyDeleteजागरूकता की ओर कदम बढ़ाती संवेदनाएँ।
सन्देश देती अच्छी कथा
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