पारंपरिक बनाम नेगोशिएबल पेरेंटिंग

तस्वीर इन्स्टाग्राम से साभार 


"नेगोशिएबल पेरेंटिंगमाने माता-पिता और बच्चों के बीच जीवन, प्रेम और शक्ति के प्रेमिल समीकरणों और खुरदुरे संघर्षों का उचित प्रबंधन! माने थोड़ा तुम हमारी ओर चलो, थोड़ा हम तुम्हारी ओर चलें और इस तरह एक ऐसा अनुमोदित धरातल निर्धारित करें जहाँ ठहरकर अभिभावक और शिशु दोनों खुलकर साँस ले सकें। दोनों अपने-अपने जीवनानुभव के क्षेत्र में मुक्त कंठ से एक दूसरे की सराहना कर सकें और दैहिक-मासिक ‘स्पेस’ में अपने होने का उत्सव मना सकें। जिन परिवारों में अभिभावकीय तादात्म के स्थान पर तनाव व तानाशाही रहती है, वहाँ पलने-बढ़ने वाले शिशु डरे-सहमें जीवन को निमित्त बनाकर तनावपूर्ण संस्कारों को अपना आलंब बनाते हैं और जब वे शिशु पूर्ण मानव के रूप में समाज में विहार करते हैं तब उनके सानिद्ध्य में आने वाले क्लेश को प्राप्त होते रहते हैं। प्रेम-सद्भावना में पोषित शिशु चंदन वृक्ष की तरह होता है। जिसके नजदीक जाना माने शीतलता की परिधि में घुसना है। जिस घर में दिन के समस्त पहरों में अभिभावकीय निर्देशित स्वर गूँजता रहता है, वहाँ नज़रों की आड़ लेकर मनमानियाँ और दुःख का लेन-देन चलता रहता है।

 

"नेगोशिएबल पेरेंटिंगमें पेरेन्ट्स अपने बच्चे से कहता है कि,"तुम मेरे जीवन के अनुभव का आलंबन लेकर आगे-आगे चलोमैं तुम्हारे पीछे-पीछे आता हूँ।और पारंपरिक अभिभावक अपने शिशु कहता है कि," तुम कितने भी बड़े क्यों हो जाओ मैं हमेशा तुमसे आगे रहूँगा क्योंकि मेरे हाथ अनुभव की वो मंजूषा है, जिसे तुम कभी प्राप्त नहीं कर सकते इसलिए तुम बस मेरे पाँव के निशान खोजते हुए मेरे पीछे रेंगते हुए चले आओ। तुम्हारा भला हो जाएगा।"

 

"नेगोशिएबल पेरेंटिंगमें अभिभावक एक व्यक्ति के रूप में होता है। वह 'जिओ और जीने दो' वाले नज़रिए से अपनी सन्तान को देखता है। नेगोशिएबल अभिभावक ये बात अच्छी तरह से जानता है कि जिस तरह से सूखी लकड़ी के भीतर आग सुप्त अवस्था में पड़ी होती है। उसी प्रकार एक अबोध शिशु के अंदर पूर्ण पुरुष बैठा होता है। जिसकी भावनाओं का सम्मान करना ज़रूरी भी है और लाजमी भी। वह बच्चे के दुःख-दर्द में उसके स्थान पर खुद को रखकर देखता है।उसकी छोटी-छोटी भावनाओं के बारे में सोचता है और उसे ख़ुशी देने की परवाह करता है। इस तरह के माता-पिता अपने शिशुओं के बीच संवाद को मुख्य रूप से रोपते हैं।

पारंपरिक परिवेश में अभिभावक "अहं ब्रह्मस्मिकी भूमिका में होता है। परंपरावादी पेरेंटिंग में माता-पिता व्यक्ति नहीं ‘देव’ बन जाते है। और इसी बनने-मानने में उपजती है गहरी संवादहीनता। जो ताउम्र बच्चे का पीछा नहीं छोड़ती। एक शिशु की भावनाओं का बचपन में इतना हनन हो चुकता है कि वह शीशे में अपनी ही सूरत देखकर कभी-कभी खुद से ही पूछता है,“तू कौन हैक्या कर रहा है इस दुनिया में जबकि तेरा तो कोई अस्तित्व ही नहीं।”  

 

भारतीय समाज में जो रुढ़िवादी- असंवेदनशील अभिवाक होते हैं वे  भूल जाते हैं कि अपनी सन्तान के माध्यम से जो बाहर देखना चाहते हैंउसकी शुरुआत आँगन से होती है। संस्कारों के बीज बचपन की उर्वर भूमि पर बोए जाते हैं न कि मरू हो चुकी धरती पर। यानी बच्चा जैसा अपनों के बीच घर-आँगन में वर्ताव करना सीखता है, लगभग-लगभग चौपाल में वह वैसा ही होता है। लेकिन परंपरावादी अभिभावक गर्व से कहते हैं कि हमारा देश पुराणोंकथाओंलोक-कथाओं और ग्रन्थों वाला देश है। मैं अपने बच्चे को सुई की नोक से निकाना जानता हूँ। यहाँ हर बच्चे से राम वाले आदर्श अपनाने की कमाना की जाती है,"प्रात काल उठि कै रघुनाथामातुपितागुरु नावहिं माथा।” ऐसी चाहना रखने वाले माता-पिता से कोई पूछे कि क्या वे दशरथ और कौसल्या कभी बन पाए हैं?

 

जिस संस्कृति की दुहाई देते वे थकते नहीं हैंउसके बारे में क्या ठीक-ठीक ज्ञान उन्होंने प्राप्त किया हैया हवा में दीवार उठाना भर उनकी नियति है। वैसे भारतीय समाज में पग-पग पर उक्तियाँसूक्तियाँमुहावरे और शोधपरक उदाहण दे-देकर बात करने का चलन है। जो उत्तम से भी उत्तम माना जाता है। हम क्यों किसी ऐरे-गैरे-नत्थूखैरे की बात सुनें,वाली जिद के साथ जीवन जिया जाता है। 

 

अच्छी बात है। अपनों के द्वारा बनाई गयी परम्पराओं का सम्मान बच्चे नहीं करेंगे तो कौन करेंगा? अभिभावकीय विरासत के प्रति सदैव हमारे दिल में आदर होना चाहिए। फिर चाहे भौतिक हो या वैचारिक। क्योंकि ‘देता’ बेहद उदारमन से किसी को कुछ सौंपता है। उस पर एक विचारशील-चिंतनशील व्यक्ति तो नितांत एकांत को पीकर कुछ वैचारिक हीरे हमारे समक्ष परोसता है। हमें उन महान आत्माओं की बातों का मनन-चिन्तन करना ही चाहिए। और अपनों को बताना भी चाहिए लेकिन सही अनुपात और सही अर्थ में। ताकि अनुसरण करने वाला भटके और मुरझाये नहीं। हमें हमेशा याद रखना होगा कि असंगतियों के बीच सुसंगति लाने से कहीं ज्यादा जरूरी है सुसंगत प्रतीत होने वाले दैनिक जीवन में छिपी हुई असंगतियों का उद्घाटन कर सर्वसम्मति से परिवार, समाज में निति-नियम की अवधारणा को तरजीह देना।

 

लेकिन यहाँ होता क्या है! सूत्रों का नाट्य रूपान्तरण। समाज से सीखी हुई उक्तियों को व्यक्ति विशेष अपनी पैनी बुद्धि से चुनाव नहीं करता बल्कि वह केवल उनकी बातों की परछाइयों की समालोचना करता है। कथनों को तोड़-मरोड़ कर जितनी समझ वह रखता हैबोल-खोलकर अपना काम चलाते हुए जीवन जीता है। बच्चा क्या सोच रहा होगाउससे उसको कतई कोई लेना-देना नहीं। जबकि अतिवाद और लापरवाही दो ऐसे तत्व हैं जो सर्वनाश का कारण बनते हैं। 

 

पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी का कथन याद आता है- "असंगति में संगति लगा-लगाकर आनन्द पाने का मनोभाव इस देश में बहुत पुराना है।यही वह मनोभाव है जो परम्परावाद को जन्म देता।"(जस का तस या बस) निबन्ध से।

 

उसी प्रकार एक और उदा. को देखिए- 

रोको मतजाने दो। 

रोकोमत जाने दो।” 

साधारण से दिखने वाले इन दो वाक्यों में एक विराम चिन्ह की गलती से ही कोई किसी को महत्वपूर्ण और किसी को निस्सार महसूस करवा सकता है। तो बच्चों के आगे दिन-रात अपना राग आलापने वाले अभिभावक अपनी संतानों की विचारशीलता की कितनी हानि करते होंगे! कौन कोल्हू में अपना सिर डाले। शिशु मन तो कितने कोमल होते हैं। जो परम्पराएँ हमें मूढ़ बनाकर हमारा दोहन करने लगें उनके आगे नतमस्तक होना कहाँ की अक्लमंदी हैलेकिन ये बात बच्चा बोल नहीं सकता। यहाँ तो घुट-घुटकर मरने के नियमों को घुट्टी में पिलाये जाने का चलन है। इसी अवधारणा पर रामचरित मानस की एक चौपाई को ही देखें- 

 

ढोल गवाँर सूद्र पसु नारीसकल ताड़ना के अधिकारी।

 

इस चौपाई को जब तक मैंने खुद नहीं पढ़ा-समझा तब तक मुझे यही लगता रहा,चौपाई का जो अर्थ समाज ले रहा हैवही सही है। किसी भी शब्द का मनमाना अर्थ गढ़ना वैसे तो अपराध की श्रेणी में आना चाहिए लेकिन हमारे समाज में ये अद्भुत कला के रूप में स्वीकार्य है। जिसमें भारतीय समाज निष्णात है।

 

तुलसी दास की चौपाई को कोई अपनी तरह से देख कर जीवन यापन करना चाहता है तो ठीक भी था। लेकिन उसका अर्थ का अनर्थ कर आगामी पीढ़ी का बंटाधार करना कहाँ की बुद्धिमानी है। माना कि मनुष्य को जितने की जरूरत होती हैउतना ही वह ग्रहण करता है। तो सही अर्थ तो ले लताउसमें ढिलाई क्योंजैसा कि सर्व विदित है कि तुलसी दास जी ने रामचरित मानस की रचना अवधी बोली-भाषा में की है। तो उस ग्रन्थ का उदाहरण देने के लिए या तो आपको उस बोली का पूरा ज्ञान होना चाहिए था और यदि कमतर था तो किसी ज्ञानी की शरण में जाना चाहिए। कम से कम ‘ताड़ना’ शब्द का अर्थ तो सही लिया जाता। ना कि 'ताड़नाका मतलब ‘लतियानामरना आदि मान लेना था। न ऐसा होता न कोई बच्चा बागी होकर घर छोड़ता।  

यहाँ मैं साफ कर दूँ कि अवधी बोली में ‘ताड़ना’ शब्द का अर्थ होता है- अतरिक्त देख भाल करनाएकाग्र होकर किसी को निहारना या अपनी निगरानी में रखकर उन तत्वों को जीवन जीने के लिए प्रेरित करना जिनमें अपनी देखभाल स्वयं करने की क्षमता नहीं होती है क्योंकि उस समय जातिवाद और स्त्री की दुर्दशा के बारे में कौन नहीं जानता है।

 

रही बात ढोल या ढोलक की तो ये अपने आप में बेहद नाजुक वाद्य यंत्र है। जब तक बच्चा का आत्मबोध परिपक्व नहीं होता इन्हीं पाँच के तरह से ही शिशु होता है। ढोल के रख-रखाव में अगर ज़रा सी भी कोताही बरती गयी तो उसके पुरों को नुकसान पहुँच सकता है। चूँकि ढोलक के पुरे जानवरों की खाल से बनाये जाते हैं इसलिए चमड़े की गंध से तरह-तरह के कीड़े-मकौड़े और सीलन के कीड़े उसकी ओर शीघ्र आकर्षित होते हैं और नतीज़ा ढोलक के पुरों को क्षति पहुँचना या किसी भी नुकीली चीज़ से उनका फट जाना। और यदि बार-बार ऐसा होता रहा तो उसके मढ़ने-मढ़ाने में बेजुबान निरीह जानवरों की हत्या करनी पड़ेगी। इसलिए तुलसी दास को कहना पड़ा कि अन्य चार के साथ ढोल को भी ताड़ना में रखना उचित कहलाएगा।  

 

लेकिन भारतीय समाज ने ढोल के विषय में ताड़ना को उसके ऊपर पड़ने वाली 'थापया शिकंजा कसने के रूप में लिया। मतलब ढोलक पर जितनी जबर थाप, उतनी ही सुंदर ध्वनि। शिकंजा कसने का रूप मानव शिशुओं और स्त्रियों के लिए कितने-कितने स्थानों पर वीभत्स होकर देखा गया है। उस बच्चे के बारे में सोचकर देखो जिसके ऊपर ‘ताड़ना’ की लाठी रखी गयी हो। दूर से शमा-सिकुड़ा दिख जाएगा लेकिन क्या मानवता के परिपेक्ष्य में उसका प्रतिफल उचित मिला होगा? बल्कि ताड़ना बर्दास्त किए हुए शिशु का अपने जीवन लक्ष्य में सही नतीजे पर पहुँच पाना असम्भव ही रहा आता है।

 

आत्माभिव्यंजना वाले अभिभावकों के विचार इतने स्वयंभू होते हैं कि उनके यहाँ दैनिकी की अभिव्यंजना पहले आती हैजीवन बाद में। असलियत पीछे, दिखावा आगे रहता है। जब समझदार अभिभावकों ने समाज का विकृत रूप देखा और बताना चाहा कि जब घर में अशांति ज्यादा मात्र में महसूस होने लगे तो अपनी परवरिश को अलग ढंग से करके देखो। लेकिन नहीं भाई! हम तो अपने ही हिसाब से अपनी आत्ममुग्धता का प्रचार-प्रसार करेंगे। अंततोगत्वा हमारे समाने ‘ताड़ना’ शब्द का पर्याय बना बेजुबानों-निरीहों को मारनाकूटना-चिल्लानादण्डित करना। मतलब यदि सीधे शब्दों में कहा जाए तो तुलसी दास का दिया शब्द ‘ताड़ना’ भारतीय परिवेश में अत्याचार का पर्याय बन गया। लेकिन क्या तुलसी का समन्वयवाद किसी ने देखाजहाँ अभिभावक को अपने बच्चे को नीर-क्षीर विवेक की समझ बढ़ाने में मदद करनी चाहिए थी। उनकी कोमल भावनाओं को हौंस के साथ बढ़ाना चाहिए था वहीँ वे उसे ढोल की तरह बजाने लगे। उसके उठने,बैठने और बोलने पर प्रतिबन्ध लगाने लगे और समाज को एक गूँगे, आदर्शहीन और कुचाली पुरुष को सौंपा। 

 

वैसे देखा जाए तो हमारे यहाँ नकल करने की बुरी आदत है। हम लोग उगते सूरज की दिशा में कमढलने वाली दिशा में टकटकी लगाये ज्यादा बैठे रहते हैं। यानी कि सभी अपने जीवन में पाश्चात्य सभ्यता का असर देखना चाहते हैं। फिर चाहे एजुकेशन हो साहित्य या फैशन की ही बात क्यों न हो। ठीक भी हैहम माँ के उदर से सब कुछ सीख कर नहीं आते हैं। इसलिए कुछ नया सीखने के निहितार्थ उद्दम करना भी ज़रूरी है। इसीलिए कहा भी जाता है कि सिक्के के दोनों पहलुओं को देखकर चलना ही बुद्धिमानी है। बस इसी तथ्य पर नकल करने की बुरी आदत भी क्षम्य हो जाती है। इस बात को हम सभ्यता की दृष्टि से भी देखने लगते हैं मगर अभिभावकीय तानाशाही में ये युक्ति भी बे-असर होती-सी जान पड़ती है। यहाँ के पुरुष सत्तात्मक विचारधारा वाले पेरेंट अपनी ही पेरेंटिंग को सही मानते हैं। 

 

आज के भारत की बात की जाए तो जहाँ तक शिक्षा का उजास पहुँच चुका हैवहाँ तक कुछ-कुछ अच्छा दिखने लगा है। बाकी ढाक के तीन पात वाली बात ही है। अभी भी समझदार अभिभावकों की गिनती उँगलियों पर की जा सकती है। कहा ये जाता है कि चाहे घर हो या देशजब तक छोटी इकाई से लेकर बड़ी इकाई तक सब एक मत होकर मानने योग्य बातों का अनुसरण नहीं करते हैंतब तक कुछ अच्छा हासिल नहीं होता।

 

अब बात करती हूँ उन माता-पिताओं की जो स्वयं को बच्चों के जीवन की धुरी होने की बात कहते हैं। ठीक भी है। उनकी परवरिश ही बच्चों को आकार-प्रकार प्रदान करती है। कहा भी जाता है कि माता-पिता ही हमारे पहले गुरु होते हैं। देने वाले ने सूत्र भी अभिभावकों को दिया है-

 

"गुरु कुम्हार शिष कुंभ हैगढ़ि गढ़ि काढ़ै खोट।अन्तर हाथ सहार दैबाहर बाहै चोट” 

 

लेकिन इस बात से उन्होंने बस दो शब्दों का ही चुनाव किया, ‘एक गुरु और दूसरा गढ़ि-गढ़ि’ और बैठ गए शिशु रूपी कुम्भ को गढ़ने। ऐसा नहीं है कि कोई मोलभाव करना नहीं जातासब जानते हैं लेकिन अभिभावकीय परिपेक्ष्य में नहीं।

 

भारतीय अभिभावकों को "नेगोशिएबल पेरेंटिंगकी कला न आती हैऔर न ही उनको सीखने की तम्मना है! वे कहते हैं, "हम अपने बच्चे को अपने से अलग समझते ही नहीं हैं। तो उनके व्यक्तित्व को भला अलग रूप में कैसे स्वीकारें।उनसे इन बातों का कारण पूछने पर वे बताते हैं। उन्होंने ख़ुद के प्राणों को अपने बच्चे के भीतर रखा होता है। इसलिए वे उनको सहेजने में कुछ भी उपाय कर सकते हैं। बच्चों के जीवन के प्रति उन्हें सफ़ेद को काला और काले को सफ़ेद कहने का पूरा प्रमाणित अधिकार है। 

 

यहाँ अभिभावकों के लिए उनका बच्चा एक ऐसा खिलौना हैजिस पर जब चाहें वे गरज-बरस सकते हैं। जब नजरंदाज करना चाहे कर सकते हैं। दूसरों का गुस्साअपनी नाकामियों की निराशा उन पर निकाल कर अपने को हल्का महसूस करवा सकते हैं। और जब वे अकरणीय कार्य कर रहे हों तो वे चाहते हैं कि उस दौरान उनका बच्चा श्रवण कुमार की तरह बर्ताव करे। उनकी बेवकूफियों पर वह निरीह जीव मुस्कुराता रहे जो अपनी भावनाओं में टूट कर बिखर चुका होता है।

 

वे भूल जाते हैंवही बच्चा जिसको उन्होंने तोता बना डाला हैआगे चलकर जब अपना संसार रचाएगा तब वह अपने भीतर आत्मविश्वास कहाँ से ला सकेगालेकिन नहींमाता-पिता के दिमाग में अपने बच्चों का धैर्यवानसमझदार और क्षमाशील बनाने का कीड़ा तब ज्यादा घुसता है जब वे भयंकर डांट रहे होते हैं। कोई उनसे पूछे! क्या वे बच्चे की तरह कर सकते हैंक्या वे अपमान पीकर खुश रह सकते हैंजबकि कितनी बार बच्चा ये तक नहीं समझ पाता है कि जिसके लिए उसे डांटा जा रहा है आख़िर उसमें उसकी गलती क्या है?

 

बात यहीं खत्म नहीं होती है। जब तिरस्कार के जनकों को शिशु पालन में अपनी अक्षमता का भान होने लगता है तब वे उस व्यक्ति की खोज करते हैं जो उनसे भी ज्यादा आत्मकेंद्रित और मूडी होता है। जो क्रूरताओं की हदें पार करना जनता है। एक तो पहले खुद इतने महान होते हैं कि बच्चे के आत्मसम्मान के साथ उसका आत्मविश्वास चाट जाते हैं। ऊपर से उन महान रिश्तेदार या व्यक्ति के आगे अपनी संतति को खड़ा कर देते हैं जिसको जिन्दगी को कैसे जीना चाहिए तक नहीं पता होता है और ये बड़े विनम्र होकर कहते हैं,“लीजिये भई! मैंने तो देख लिया अब आप ही इसे सुधार दीजिये।” और पदवी पाए वे मुर्ख लोग आँखें मींच जी-जान से जुट जाते हैं। उस समय बच्चा यदि कह सकता तो ये कहता-

साधो आज मेरे सत की परीक्षा है 

आज मेरे सत की परीक्षा है 

बीच में आग जल रही है 

उस पर बहुत बड़ा कड़ाह रखा है 

कड़ाह में तेल उबल रहा है 

उस तेल में सबके सामने हाथ डालना है 

साधो आज मेरे सत की परीक्षा है। (विजय देव नारायण साहीसाखी में संकलित कविता "सत की परीक्षासे साभार)

 

माना कि जीवन देने वाला सदैव बड़ा होता है इसलिए उसका नियन्त्रण भी पूरा होना चाहिए पर क्या बच्चे के आत्मसम्मान को रौंदकरउसको बात-बात पर गलत ठहराकरतरह-तरह की फब्तियाँ- कुबोलों के कशीदे कसकरहाँ जीये सारे नुस्ख़े हमारे समाज के मान्य नुस्ख़े हैं। इन सबके बाद भी यदि अभिभावक का मन नहीं भरता है तो वे बच्चे के जीवन को सँवारने के लिए किसी ख़ास उत्सव का इन्तजाम करते हैं। 

जब समय का चुनाव सही-सटीक बैठता है और घर या समाजिक सरोकारों वाले स्थल जहाँ लोगों से खचाखच भरा माहोल होता है। वे बच्चों के लिए ऐसे गुरु टाइप लोगों से टिप्पणीयाँ लेना शुरू कर देते हैं जो अक्ल के अंधे होते हैं। जिन्हें नमक और बर्फ में अंतर तक पता नहीं होता! 

 

उक्त बातों को मद्देनजर रखते हुए भारत की पारंपरिक पेरेंटिंग सफल मानी जाती है। और ‘नेगोशिएबल पेरेंटिंग’ हमारे भारतीय वातावरण में परिहास का विषय बन जाती है। यहाँ किसी सुसभ्य माँ-बाप को अपने बच्चे की बात को अहमियत देतेहँसते-बोलते यदि देख लिया जाता है तो कहा जाता है,”फलाने ने अपनी औलाद को सर पर बैठा रखा है,जब कान खिंचेगे तब पता चलेगा।

 

सताए हुए बच्चे के लिए हिमायती बनाकर कबीर यदि अपनी साखी में कहते तो ये कहते-

 

कबीर जदि का माइ जनमिया,कहूँ न पाया सुख 

डाली-डाली  मैं   फिरया,   पातौं -पातौं   दुःख।

 

जबकि आत्मसम्मान से आत्मरक्षा करना हर मनुष्य का जातीय मामला है। आज नहीं तो कल वह बच्चा बड़ा होगा और अपने साथ हुए बुरे व्यवहार का बदला वह जरूर लेगा। ऐसे ही नहीं भारत में बृद्धा आश्रमों की बढ़त होती जा रही है। हमें विचार करना ही होगा। वीणा के तारों को उतना ही कसिये जितने से संगीत की मधुरिम ध्वनि हमारे कानों के साथ आत्मा को आलोड़ित कर सके ...अस्तु!

हो पीर यदि घनी तो, प्रतिबन्ध टूटते हैं

हो नीर की अधिकता तो तटबंध टूटते हैं 

माना मौन अच्छा है, मगर एक सच ये भी 

संवादहीनता से संबंध टूटते हैं. 

***

 

 

लेखिका : कल्पना मनोरमा 


 

Comments

  1. बढ़िया विचारणीय आलेख

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  2. मित्र, कितना कमाल का आलेख लिखा है आपने । इस दौर के हर उस माता -पिता को जरुर पढ़ना चाहिए जो अपने बच्चे को अपनी अधूरी इच्छाएं पूरी करने का विकल्प भर मानते हैं या समाज में अपनी पद-प्रतिष्ठा को बरकरार रखने के लिए जबरिया अपने मन मुताबिक विषय पढ़वाते है।

    एक बेहद शानदार और बेहतरीन आलेख के लिए बहुत बधाई आपको🌹🌹

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  3. बहुत धन्यवाद मित्र 💝

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