स्त्रीत्व के सर्वोच्च शिखर पर मातृत्व !

चिंतनशील परीक्षित 



पल पल दिल के पास तुम्हारा बचपन रहता है. प्यारे बेटे! आज तुम्हें सफेद कुर्ते में क्लास लेते देखकर पहले तो मुझे तुम्हारा वो मलमल का सफ़ेद झबला याद आया जिसको मैंने तुम्हारे जन्म से पूर्व सिला था. उस दौरान तुम्हारी छवि मेरी कल्पना में हर पल काँपती रहती थी किंचित बन नहीं पाती थी. हाँ, उत्सुकता बहुत थी कि आने वाला मेरा बच्चा कैसा होगा? तब तो नहीं पता चला था कि तुम बड़े होकर कैसे दिखोगे लेकिन अब साफ़ दिखने लगा है कि तुम्हारी छवि की गढ़न में ईश्वर को तुम्हारे डैडी और चाचा को कई-कई बार देखना पड़ा होगा. तुम उन्हीं दोनों की प्रतिच्छाया लगते हो.


खैर,नवान्कुत शिशु के आगमन पर अपने भीतर आकार ले रही माँ से मैं प्रतिपल बातें करती रहती थी. फिर एक दिन ऐसा आया कि तुम मेरी गोद में आ गये.और मैं स्त्रीत्व के सर्वोच्च शिखर मातृत्व पर, माँ बनकर खड़ी हो गयी थी. कौसल्या की गोद जब राम आये होंगे तब हर्ष हुआ होगा. ठीक उसी तरह मेरे दिन-रात खुशहाल हो नाच उठे थे. मेरी जीवन-गाड़ी में एक भव्य शिशु का आगमन हो गया था. उसकी किलकारियों में मेरे भीतर की माँ ने लोरी गाना सीखा. मैं बेटी, बहू, भाभी जैसे सुमधुर संबोधनों के बीच माँ के किरदार में आ गयी थी. सारे संबंधों के ऊपर जिसका स्थान होता है. उस सम्बोधन को अंगीकार करना क्या मज़ाक होता है! अपने सारे अहम,अकड़ और आरामगीरी को किनारे रखकर शिशु के दरबार की प्रमुख मंत्री की तरह कार्य करना पड़ता है. फिर भी एक स्त्री तन्मयता से ये कार्य स्वीकार करती है. शायद एक बच्चे के आने के साथ स्त्री का बांकपन और बेफिक्री वाला खिलंदड़पन सदैव के लिए तिरोहित हो जाता है और कमाल की बात तो ये है कि उसे बुरा भी नहीं लगता. वो रात-रात भर अपने शिशु को गोद लिए-लिए जागती रहती है. तब भी सुबह से कोई शिकायत नहीं कि तुम इतनी जल्दी क्यों आ गयीं.मुझे अभी और सोना है.


वे दिसम्बर के सर्दीले झुके-झुके से दिन थे. सूरज थोड़ी देर का मेहमान होता था आँगन में. लगभग गृहणियों के हाथों में घर के काम-काज के साथ काँटा-ऊन भी आ गया था. जब कोई स्त्री स्वेटर बुनती है तब वह सिर्फ स्वेटर नहीं,अपना रिश्ता बुन रही होती है.और स्वेटर बनाते हुए जब उस व्यक्ति को अपने पास बुलाकर कंधे या सीने पर स्वेटर रखकर उसकी ऊँचाई नापती है, उस वक्त  उसकी आँखों में जो सृजन का प्रेमिल समर्पण होता है,उसको देखकर मुझे हमेशा से अद्भुत लगता आया है.


मैं यदि अपनी ही बात तुम्हें बताऊँ तो मेरी माँ जब मेरे लिए स्वेटर बुनती थी और उसकी नाप लेने के लिए मुझे अपने पास बुलाती थीं. तब उनकी आँखों की स्नेहिल तितिलियाँ मेरे अंतरमन को गुदगुदा जाती थीं. ऐसी परिस्थितियों में किसी के जीवन में अपने होने के भान के साथ-साथ एक भावनात्मक सैलाब भी उमड़ता है. उसमें एक नहीं, दोनों भीगते हैं. दोनों ही उस नदी में गोते लगाते हैं जो रिश्तों के धरातल पर मद्धिम-मद्धिम बह रही होती है.


खैर,सब को छत पर धूप में बैठ स्वेटर बुनते देखकर मैंने भी तुम्हारी दादी माँ से तुम्हारे लिए स्वेटर बुनने की इच्छा जताई थी. उन्होंने एक बार में ही मुस्कुराते हुए मुझे अपनी स्वीकृति दे दी थी. दूसरे दिन रूरा से सुनहरे रंग की दो सौ ग्राम ऊन और सलाइयाँ आ गयी थीं. मैंने तुम्हारे लिए एक पुलोवर बनाना शुरू किया. जिसको पूरी तल्लीनता से तीन दिनों में ही बनाकर तैयार कर लिया था. पहली बार मुझे एहसास हुआ था कि मैं कुछ भी सीखकर बना सकती हूँ. 


जब मैं तुम्हारा स्वेटर बुन रही थी तब ‘वर्धमान निटिंग यान’ के आकर्षक टी.वी या रेडियो पर आते प्रचारों का महत्व सच में समझ पायी थी. “रेशे-रेशे में भरी होती है, ममतालु छुवन.वर्धमान ऊन हर माँ का अरमान." जैसे प्रचारों को मैंने ध्यान से पहली बार सुनकर महसूस किया था.और उनकी कथनी को अपनी ममता के सहारे फंदे-फंदे में बुन डाला था. बची हुई ऊन से तुम्हारे नन्हें-नन्हें गुलाबी पाँवों के लिए जूतियाँ भी बनाई थीं. यदि मैं यहाँ बताना चाहूँ तो मैं स्वयं अपनी बुनाई कौशल पर पहली बार खुद ही रीझ उठी थी. क्योंकि अपने बचपन में मैंने माँ के द्वारा बताई हर बात सीखी लेकिन स्वेटर बुनना नहीं. इसलिए तुम्हारी नानी माँ एक जुमला खूब कहती रहती थीं. 

”इस लड़की का थिरुआ (दिमाग) कभी स्वेटर बुनने में नहीं लगता.न जाने क्या पहनाएगी अपने बाल-बच्चों को.” 

और तुम्हारे लिए स्वेटर बनाने के बाद सबसे पहले मैंने उनको बड़ी-सी चिट्ठी लिखी थी.आज का जमाना होता तो शायद तस्वीर भी साथ में भेज देती.  


हाँ,बुनाई की धुन में कभी-कभी मैं तुम्हारी उलझन को नहीं देख पाती थी. मतलब तुम मेरी गोदी चाहते थे,और मैं तुम्हारा स्वेटर. हमारे द्वंद्व में तुम बिस्तर या झूले में अपनी पीठ नहीं लगाना चाहते थे और मैं अपनी बुनाई की वजह से तुम्हें झुनझुना बजाकर शांत करवा देना चाहती थी. इसी जद्दोजहद को यदि अम्मा देख लेतीं मतलब तुम्हारी बड़ी दादी तो मुझे उनकी डांट खानी पड़ती. वैसे मैं बताऊँ तुम्हारे आराम में खलल डालने की वजह से भी मैंने अम्मा से बहुत बार डांट खाई थी.जैसे तुम्हें मालिश लगाने के बाद तुमको भयंकर नींद का उमड़ना और मुझे तुमको नहलाना होता था. तुम्हें खेल सवार होता था और मुझे तुम्हारी भूख की चिंता. नतीजा मेरी डांट, तुम्हारी मौज.  


सुनहरे रंग का स्वेटर-जूतियाँ तो बन चुकी थीं लेकिन अब बारी थी उनको पहनाकर तुम्हें घुमाने कहाँ ले जाऊँ? क्योंकि श्रृंगार का उद्देश्य ही होता है किसी के समक्ष अपनी रूपराशि के साथ प्रकट होना. और मैं कितनी भी तुम्हारी माँ क्यों न बन गयी थी लेकिन थी तो इक्कीस बरस की ही न! तो अपने लड़कपन के अनुसार ही मैंने सोचा. अभी मैं तुम्हें बाहर घुमाने की सोच ही रही थी कि तुम्हारे शिशु टीकाकरण कार्ड पर मेरी दृष्टि पड़ी. जिसमें तुम्हें दूसरा टीका लगवाने की बारी आ गयी थी. और ये कार्य करने मुझे जाना था. फिर क्या! मेरे मन की साध पूरी हुई. मैंने तुम्हें अपने बुने स्वेटर में तैयार किया और तुम्हारी बड़ी दादी माँ के पास लेकर जा कर खड़ी हो गयी. उन्होंने पहले तुम्हें देखा, मुस्कुराईं,और मुझे डाँटने लगीं.“लरकवा को आज तुम नज़र लगवा कर ही मानोगी. कैसा गुड्डा जैसा सजाया है.” क्योंकि मन उमंग से भरा था इसलिए मुझे उनका डाँटना फूलों-सा लगा था. 


विचार निमग्न परीक्षित 


अब बात आई कि तुमको गोदी में लेकर मुझे बाइक मैं बैठना आएगा भी या नहीं.तुम्हारे डैडी की दादी माँ को मेरे ऊपर तनिक भी विश्वास नहीं था कि मैं तुम्हें ठीक से गोदी में सम्हाल भी पाऊँगी या नहीं. मैं उनसे कहना भी चाहती थी,”अम्मा,चाहे लड़की चौदह साल की हो या पच्चीस साल की जैसे ही वह माँ बनती है उसके अंतस में शिशु सुरक्षा का भाव प्रगाढ़ता से पैदा हो जाता है. वह अपने शिशु के लिए जान भी दे सकती है. इसलिए आप चिंता मत करो!" किंतु कह नहीं सकी थी; फिर भी उन्होंने मेरी मनोदशा देखकर मुझे अनुमति दे दी थी.



अब डॉक्टर के पास जाने से पहले मैं किसी अपने मित्र को तुम्हें दिखाना चाहती थी. कि देखो एक तो ईश्वर ने मुझे अनमोल निधि सौंपी है. दूसरे मैंने इसके लिए कितना सुंदर स्वेटर बुन डाला है. काश! फोन और कैमरा वाला समय होता तो न जाने किसको-किसको दिखाती. लेकिन फिर भी मैंने एक युक्ति सोची. और पहली बार तुमको भ्रमण के नाम पर तुम्हारी ताई जी के पास ले गयी. रजनी भाभी ने तुमको तो बहुत प्यार किया ही था. मेरे स्वेटर की भी खूब सराहना की थी. सराहना के बोल जीवन में उत्साह भरते हैं. वही हुआ था मेरे साथ भी. उसके बाद मैंने तुम्हारे लिए बहुत सारे और तरह-तरह के स्वेटर बुनकर तुम्हें पहनाए और अपने भीतर के बुनकर को खुशी दी. 


खैर, तुम बालिस्त भर के मेरे सामने थे और मैं तुमको लेकर न जाने कितने-कितने बड़े सपने और चित्र देखा करती थी. कभी तुम्हें स्कूल से आते हुए खुद से लिपटता हुआ चित्र तो कभी खुद ही तुम्हें कॉलेज के लिए छोड़ने जाते हुए रेलवे स्टेशन का चित्र मेरे मस्तिष्क के कैनवास पर दमक उठता.अपने सोने,खाने और हँसने भर की जिंदगी में दूरदर्शिता कैसे आकर मेरी साँसों के साथ एकमेव हो गयी, मुझे आज तक पता ही नहीं चला. कुल मिलाकर मुझे ये मालूम हो गया था कि मेरे जीवन में आती ख़ुशी का लक्ष्य बस तुम बन गये थे. मेरा पूरा दिन तुम्हारे स्नेह की त्रिज्या पर घूमता रहता था. मुझसे जुड़े सारे रिश्तों में तुम सरताज बन गए थे। 


जो बातें मुझे तुम्हारे बचपन में ही समझ लेनी चाहिए थीं,उन बातों का अर्थ तब खुला जब  तुम्हारा भाई हमारे जीवन में शामिल हो गया. एक अलग अनुभव हुआ था हमें.उसके साथ मेरे मन में एक अलग-सा भाव पैदा हुआ. मैंने शिशु-मन को पढ़ने की कला सीखी. मेरे मन में ये समझ उत्पन्न हुई कि बुद्धि की अपनी उम्र होती है.और वह अपने स्तर से ही विकास करती है. ज्यों-ज्यों व्यक्ति उम्र की ऊँचाई की ओर बढ़ता जाता है, उसके साथ-साथ उसका मनुष्यत्व भी अपना विस्तार प्राप्त करता चलता है.

 

एक अबोध बालक के मन में हम प्रौढ़ता के भाव रोपित कर भी कैसे सकते हैं. इसलिए तुम्हारे भाई के साथ मेरा होना नदी के दो किनारों की तरह रहा. और मैं उसको उसके जैसा बचपन जीने की आज़ादी दे सकी. लेकिन बार-बार मुझे ये अफ़सोस होने लगा था कि मैंने तुम्हारे साथ इतनी ढिलाई क्यों नहीं बरती. एक बार तुम पतंग उड़ा रहे थे और माँझे का लट्ठा मेरे हाथ में था. मैं तुमसे बार-बार कहती जा रही थी कि माँझे  में ढील दोगे तभी तुम्हारी पतंग आसमान में उड़ सकेगी. तुम तत्क्षण मान गये थे और अपनी पतंग को ऊँची होकर लहराते देख रहे थे.अचानक मेरे आत्मबोध में अपराधबोध ने सर उठाया  कि मैंने तुम्हारे बचपन को यूँ ढील क्यों नहीं दी. माँ के अति सुरक्षा वाले मेरे रूप-भाव को जो तुमने मौन भाव से झेला है,उसके लिए सदैव स्नेहिल आभार है,और रहेगा. मेरे प्यारे!


मुझे मालूम है कि बच्चे को अति सुरक्षित रखने का भाव सच में आगे चलकर कोमल मन शिशु के लिए कसा-कसा महसूस करने वाला नज़रिया सिद्ध हो सकता है. बच्चे को अन्तर्मुखी बना सकता है. इसलिए अब कहना चाहूँगी कि नई-नई माँ बनी स्त्री को हर पल सचेत तो रहना चाहिए लेकिन ”गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि गढ़ि काढ़ै खोट।अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट” वाली युक्ति के साथ शिशु को खुलकर जीने की आज़ादी देनी चाहिए. किंतु नव निर्मिता माँ को इन बातों की परवाह होती भी कहाँ है! वह तो अपने बच्चे को दुनिया का सबसे प्रबुद्ध और ताकतवर इंसान बनते हुए देखना चाहती है. बस उसी धुन में वह घुन की तरह लगी रहती है. अस्तु 💝 



माँ के साथ परीक्षित 

Comments

  1. बहुत ही सुंदर संस्मरण ! सच में वो दिन भी बड़े प्यार भरे थे

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