एक शाम अकेली-सी

अभी दीवाली के दिन आये नहीं थे और हवा में ठंडक गयी थी लेकिन लोगों को कहते सुना था कि ये बदलाव प्रकृति के समृद्ध होने का सूचक ही कहा जाएगा मतलब कोविड-19 महामारी जो दुनिया जहान को तहसनहस करने पर तुली है वह प्रकृति पर महरबान है? मेरा मन मानने को राज़ी नहीं था लेकिन उससे क्या होता है? क्या सच में कुछ अच्छा हो रहा था हमारे इर्दगिर्द? जिसे हम देख नहीं पा रहे थे। वैसे अभी तो ये आते हुए सितम्बर की शामें थीं और बहती हुई सर्दीली हवा में झुरझुरी उठाने वाली खुनक दौड़ पड़ी थी। मैंने अपने उम्र के प्रथम पड़ाव में लोगों को खूब कहते सुना था कि मौसम में अचानक बदलाव आनाचिंताजनक होता है। अचानक बदालव तो सच में हजम नहीं होता। चाहे दैवीय हो या मानवीय। पुराने लोग जानते थे कि प्रकृति कभी भी अपनी चाल में जल्दी-जल्दा बदलाव नहीं करती और जब करती है तो निश्चित ही कुछ अघटित ही घटता है। अभी मैं सोच ही रही थी कि एक पवन के ठंडे झकोरे ने मेरे मन को छुआ और मेरा मन हुआ कि एक मोटा खादी का दुपट्टा ओढ़ लें। चाय का कप बाउंड्री वाल पर टिकाकर मैं अंदर गयी और झटपट दुपट्टा लिया और कंधों पर लपेट लिया। उस दिन बहुत दिनों के बाद ऐसे ही बालकनी में आने का मन हो गया था। होता क्यों नहीं खिड़की से जब देखा तो  चारों ओर नहाए-धोये से पेड़-पौधे ख़ुशी में अपना सर हिला-हिलाकर झूम रहे थे। सडकें काली नागिन-सी सोई पड़ी थीं। एक निर्मोही मौन अपनी आगोश में समस्त वातावरण को समेटे हुए था। वृक्षों को झूमते हुए देखकर लग रहा था मानो कोई प्रकृति प्रेमी गायक अपने मन के स्वर आलाप रहा हो। कोरोना महामारी ने आदमी को कितना ही दुःख क्यों दिया हो लेकिन प्रकृति को बड़ा संतोष प्रदान किया है। एक पल को मुझे भी ये एहसास हुआ। क्योंकि मदमाते हरे-भरे वृक्ष और उनकी शाखों पर चहकते पंछियों का कलरव सुनकर लगने लगा था कि मानो वे अपने खुशहाल जीवन की कहानी सुना रहे थे।

बालकनी की एक दीवार पर चढ़ी-फैली इतराती मधुमालती की बेल की हौंस देखकर भला कौन कहेगा कि ये दुखी और बंधन महसूस करने का समय था। गुलाबी और भूरी आभा लिए फूलों से अपना आँचल भरे मधुमालती अपनी प्यारी छटा से लगभग हमारे घर का एक कोना सौन्दर्य से भर चुकी थी। उस दिन मुझे दीवार के पास देखकर मालती की एक लतर ने मेरे काँधे पर धप्पा मारा। मुड़कर मैंने उसे छूने को हाथ बढ़ाया तो हरी-हरी किलकारी मारकर दूर भाग गयी। जैसे कोई अबोध बालक माँ की पीठ को छू कर खेल कर भाग जाता है। अभी उसकी महकती मनुहार से मन रोमांचित हो ही रहा था कि आसमान की ओर मेरी दृष्टि चली गयी। पंछियों की कतारें तो नहीं कह सकती लेकिन इस महानगर के आकाश में अब फिर भी काफी पंछी अपने काम से लौटकर नीड़ों की ओर उड़ान भर रहे थे। इक्का-दुक्का गौरैयाँ अभी भी फुदक-फुदक कर अपने खेल में मगन थीं। शायद उनके घोंसले वहीँ कहीं आसपास के घरों में ही होगें। तभी उनके खेलों में इतनी निश्चिंतता दिख रही थी।

खैर,सांझ का लाल मुखमंडल देखकर लग रहा था कि सूरज अस्ताचल की ओर मुखातिब हो चला था। पश्चिम की ओर क्षितिज पर लग रहा था, किसी स्त्री ने चूल्हे में ढेर सारी लकड़ियाँ एक साथ जला दी थीं जिनमें मानो वह भुट्टे भून रही थी और आग की रेशमी गुनगुनाहट के साथ आकाश से लेकर धरती तक सुनहरी लालिमा पसरती जा रही थी। आकाशमार्गी सभी जीवों का मुख पश्चिम की ओर था। लग रहा था कि वे सभी सूरज के प्रेमी हों। जहाँ पश्चिम दिशा गुलज़ार होती जा रही थी वहीँ पूरब की ओर सन्नाटा पसरता जा रहा था। संध्यारानी ने अपने स्लेटी आँचल को कंधे से गिराकर खोल दिया था और लहरा-लहराकर रात्रि के स्वागत के लिए बेचैन हो रही थी। हवा वृक्षों की फुनगियों से उलझ-उलझ कर बहनापा दिखा रही थी। मेरे माथे पर पड़ी लटें उड़कर उसे थपक रही थीं। अभी मन साँझ की मनोरम झांकी में निमग्न ही था कि इतने में हवा के एक कोमल झोंके पर सवार होकर मेरा छुटपन का मन छलाँगें मारता हुआ महानगर से दूर उत्तर प्रदेश की औरैया तहसील में बसा एक हरे-भरे कमल पत्ते-से गाँव अटा जा पहुँचा। वहाँ ये समय मक्की की आख़िरी खेप आने का होता था। बरसात, कांस को बूढा कर विदा हो चुकी होती थी। बम्बा और कूलों पर फूल-फूलकर लम्बी घास सहर्ष मौसम के बदलाव को स्वीकार कर चुकी होती थी। लेकिन खेतों की मिट्टी में वर्षा की नमी वैसे ही बची रहती थी जैसे बचत खोर स्त्री के मुट्ठी में पैसे। जिसके साथ मिलकर पवन मौसम में ठंडक घोलने लगती थी। बरसात के दिनों में चूने से पुती दीवारों पर जमी काही धूप लगने से चटकने लगती थी। दिन सुनहरे और रातें ओस से भरीं होने लगती थीं। दिनभर गुनगुनाहट में घर की चीज़-सामान सुखाये जाते और रात में चंद्रमा की झरती चाँदनी में प्रकृति का मन ओसीले मोतियों से भर जाता था।  गाँव में इन दिनों की शामों में कुछ लोग भोजन करते और कुछ भुट्टे भुनवाकर खाते थे और चौपालों में बैठकर मनमानी बतकही का रस लिया करते थे।

हम कितना भी गाँव को भूल जाएँ लेकिन हमारी जड़ों में वह कुंडली मार कर बैठा हुआ है। गाँव में हम कितनी भी भौतिक सामग्री का संग्रह कर लें लेकिन उसके तो अपने ही रँग-रूप होते हैं। कितने भी शहर वाले वहाँ आयें-जायें पर गाँव किसी की नकल नहीं करता। वह तो अपने रंग में सभी को रंगने का माद्दा रखता है। गाँव को शहरी कालीनों में उतनी ख़ुशी नहीं मिलती जितनी कि आम के बागों में गुल्ली-डंडा खेलने में और बरगद की छतानारी छाँव में अपनी तीन पीढ़ियों को कहानियों सुनाने और अपने अनुभवों  के लेन-देन में। वह इतने चाव से ये कार्य करता है कि दूर से देखने वालों को लगने लगता है कि गाँव बड़ी जरूरी चर्चा में व्यस्त है।  

मेरा बचपन भी एक हरे-भरे समृद्ध गाँव में बीता। हमारी यादों में आम की मिठास, नीम की कड़ुआहट, उसकी निबौलियों के ज़ेवर और कीकर की जलेबियों के ढेरों ढेर किस्से ज्यों के त्यों बसे हैं। मेरे बचपन का घर गाँव के बाहरी सिरे पर आम के बड़े से बाग के पास है। घर के मुख्य द्वार के बड़े से फाटक के भीतर लान में पड़े तखत पर बैठ कर मैंने भी शाम को खूब भुट्टे खाने का आनन्द लिया था।

लान में लगे अशोक,गुलमोहर,अमरूद,हरसिंगार,कनेर और घर के आस-पास नीम-आम के बड़े-बड़े पेड़ जिनकी डालियों पर साँझ होते छोटे-बड़े सभी तरह के पंछी बसेरा लेते थे। वैसे तो छोटे पंछी के बराबर दिखते थे शायद वे अपने घोंसलों में या शाखों के दुबग्घे में छिपकर सोते होंगे इसीलिए सांझ की स्याही में सिर्फ मोरें ही ऊँची डालियों पर निडरता से बैठ कर आकाशीय ऊँचाई का अकेले आनन्द लेती दिखाई पड़ती थीं।

पक्षियों के उनके घर लौटने का क्रम शाम के साढ़े चार-पाँच के बीच प्रारम्भ हो जाता था और उन्हें आसमान में कतारें बनाकर उड़ते हुए देखना मेरा मनभावन टाइमपास हुआ करता था। उनके संध्या विश्राम के बाद जितनी देर मटमैला उजाला रहता वे चुपचाप अपने लिये मजबूत डाली का चयन उछल-कूदकर करते रहते और जैसे ही सूरज ने अपनी आँखें पूरी तरह मूँदी सभी मौन हो जाते। सिर्फ मोरें अपने झबरीले पंखों को हिला-हिलाकर मेहों मेहों की गुहार लगा संझाती गाने लगतीं और जैसे ही मोरों ने अपने श्याम को पुकारा वैसे ही हमारी माँ ने ठाकुर जी के आगे दिया जलाया और जय जगदीश हरे... की आरती गाना प्रारम्भ किया।

बचपन में हमारे घर का नियम था कि साँझ की आरती और रात्रि भोजन सब एक साथ करते थे इसलिए आरती में माँ-बाबूजी, दादी और हमारा छोटा भाई सब शामिल होते थे। मेरा काम गरुण घंटी बजाना था। आख्रिरी में माँ तुलसी को आरती दिखाकर अपने परिवार के लिए  सुख-समृद्धि माँगतीं। वे तुलसी बिरवे के आसपास घूम-घूमकर अपनी साड़ी थकान मानो वहीं तुलसी चौरे पर छोड़कर रात्री भोजन की तैयारी में जुट जाती थीं। हाँलाकि त्रिकाल संध्या हम मनुष्यों से ज्यादा तत्परता से अबोले करते हैं। संध्या वंदन सारे पंछियों की आदत होती है लेकिन मोरों की तीखी आवाज़ में नन्हीं आवाजें दबकर रह जाती हैं। जैसे किसी सबल मानव के आगे निबल की। माँ ने ये बात बताई थी।

निर्मल आकाश के नीचे तुलसी के पास जलता छोटा-सा दीया मेरे मन में अपार श्रद्धा भर जाता था। गाँव के नीम अँधेरे में लघु दीपक की आभा भी किसी दूधिया जगमगाते बल्ब से कम नहीं लगती थी। दिन के उस पहर तक आते-आते मेरी माँ भी अपने बालों को ठीक से चोटी में गूँथ लेती थीं। माँ के चमकते गोल चेहरे पर लगी कत्थई बिंदी मेरे मन को प्रेमिल सुरक्षा के भाव से भर जाती थी। उस समय मुझे अपनी माँ बेहद खूबसूरत लगती थीं। आरती-भजन के बाद सभी अपने काम में लग जाते लेकिन मैं थोड़ी देर और झुटपुटा होने का इन्तजार करती और वहीं तखते पर जमी रहती क्योंकि उन दिनों मुझे तारों से भरा आसमान और टूटता हुआ तारा देखने का एक चस्का-सा लग गया था। मेरी सहेलियों ने बताया था कि टूटते तारे से जो मांगो वह पूरा हो जाता है इसलिए ये गतिविधि तब और ज़ोर पकड़ती जब मेरे इम्तहान नजदीक आने को होते। मैं घंटों तारा टूटने का इंतजार करती यदि भाग्य से तारा टूटा तो मन्नत माँग भी लेती और पूरी भी हो जायेगी ये संकल्प भी कर लेती। वैसे भी सारा खेल हमारी मान्यताओं का ही तो होता है। हम जिसके बारे में जैसा सोचते हैं हमारा मन उसे वैसा ही मानने लगता है।

खैर,घर के आस-पास विशाल वृक्षों का घेरा और उन्हीं में किनारे-किनारे चुआ हरे रंग के लम्बे-लम्बे बाँसों के बड़े-बड़े भिरे होते थे। लेकिन मैंने बहुत बार सोचा और देखा था कि पक्षी सभी प्रकार के वृक्षों पर अपना घोंसला बनाते हैं लेकिन बाँसों में कभी नहीं। जबकि उनकी लम्बाई बेशुमार होती है। उनपर चढ़कर तो दूर तक देखा जा सकता है। फिर भी उनके बीच बिरला ही पंछी अपना नीड़ सजाता था। बल्कि हवा भी उनके बीच से निकलने की कोशिश करती तो वह भी चीख़ उठती और शाम की नीरवता में तीख़ी आवाज फैल जाती। अब बाँस महाशय को ये बात कौन बताये कि आप की ऊँचाई से कोई प्रभावित होने वाला नहीं है क्योंकि जीव ऊँचाई से नहीं अपितु विनम्रता से अपने बनते हैं। सामने वाले को गले मिलने के लिए जब तक आप अपने हाथों को आगे नहीं बढ़ाओगे,कोई आपके पास फटकेगा नहीं। भूलने को क्या! भूले रहो अपने बड़प्पन में अकेले-अकेले। चाहे पेड़ और पंछियों का रिश्ता हो या मानवीय,सभी को कुछ अलग-सा चाहिए, कुछ प्रेमिल-सा क्योंकि स्नेहिल बातें दूसरे मन को बतानी नहीं पड़तीं। बल्कि उन बातों को दूसरा मन बिना बोले ही महसूस कर लेता है लेकिन ये बात बाँस महाशय नहीं समझते वे तो बस ऊँचे उठने की होड़ में अपने अगल-बगल किसी की ओर देखते तक नहीं। पादप की इस जाति से जुडी बातों ने मेरे बचपन के मन को खूब मथा था लेकिन समझ अब सकीं।

ग्रामीण जीवन की नीरव रातों के शांत वातावरण में तीख़ी आवाज़ के रूप में यदि कुछ सुनाई पड़ता है तो पंछियों के कंठ की कोरी और निर्लिप्त पुकारें या गायों का अपने बछेरुओं के लिए भावुक होकर रंभाना। गाँव की रातें इतनी काली होती हैं जैसे नौसिखिया माँ ने अपने बच्चे की आँखें काजल से भर दी हों और वह बच्चा जिधर देखता है उसे सब काला-काला ही दिख रहा होता है। मुझे रात के गहरे सन्नाटे हमेशा ही डरावने लगते आये हैं। कृष्णपक्ष की रातों में माँ एक लैम्प,लालटेन या एक मिट्टी के तेल का दीपक देहरी पर जलाकर हमेशा रखती थीं। फिर भी मुझे घर अँधेरे से भरा-भरा ही लगता रहता था। और इस लगने में मुझे डर के साथ-साथ थरथराहट भी बहुत होती थी। जाने भूत का भय मुझे कितना सताता था। वहीं गाँव में जब शुक्लपक्ष के चन्द्रमा का आगमन होता तो चाँदनी की अठखेलियाँ किसी भी युवामन को रोमांचित कर जातीं। चाँद की दूधिया रोशनी इतनी तरलता से हमारी छतों पर पसरती कि लड़कियाँ खूब गुटके खेलतीं और यदि कोई करना चाहे तो चावल भी साफ़ कर सकता था।  

गाँव के मोहपाश में बँधकर आज भी बहुत-से मिट्टी के लाल सहज ही शहर का मोह छोड़कर गाँव लौट जाते हैं। वहाँ की सन्नाटे वाली रातें उन्हें बड़ी मोहनी लगती हैं। गाँव की रातों के सन्नाटों में दरवाज़ों की खुलन और झिंगुरी की झनझनाहट या पेड़ों पर बैठे पेखेरूओं की बोली किसी संगीत से कम नहीं लगता। मुझे आज भी गाँव की गहरी काली रातों में जब एकाएक पंछयों की आवाज़ें सुनाई पड़ती हैं तो मेरा छुटकू-सा मन माँ के आँचल में दुबक जाना चाहता है लेकिन "मर गयी मैया टूट गयी सगैया..." माँ के द्वारा बार-बार दोहराए जाने वाले कवित्त की पंक्तियाँ ज़ोरदार तरीक़े से याद आने लगती हैं। आज इस महामारी की वजह से गाँव कितना बदला होगा नहीं पता लेकिन नीम सन्नाटे शहरों के हिस्से ज़रूर पड़े हैं। पाँच सितम्बर दो हजार बीस की अकेली-सी शाम में यही कुछ महसूस हुआ।

***

लेखिका :कल्पना मनोरमा 


निम्नलिखित पत्रिकाओं में प्रकाशित ......



 


 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 


Comments

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (०८-०५ -२०२१) को 'एक शाम अकेली-सी'(चर्चा अंक-४०५९) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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    1. अनीता जी आपकी साहित्यिक पहल की मैं हमेशा प्रशंसक हूँ| सादर आभार मित्र!

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  2. प्रकृति के साथ किस तरह आत्मसात हुआ जा सकता है इसका दिग्दर्शन किसी को करना हो तो आपकी इस रचना के द्वारा कर सकता है, प्रवाहमान भाषा और सुंदर उपमाओं से सजे ललित निबंध के लिए बहुत बहुत बधाई

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    1. अनिता जी नमस्कार! आपके शब्द हमें हौसला दे रहे हैं| आभार मित्र

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  3. इतने प्यार से गाँव घुमाने के लिए धन्यवाद. शहरी जीवन जीने वालों से क्या-क्या छूट गया है, आपने स्मरण करा दिया. हमेशा ह्रदय में एक कसक रही कि गाँव में रहने का अनुभव कभी नहीं हुआ. अपनी भाषा भी कितनी विपन्न महसूस होती है. आंचलिक बोली के ठुमके, सांस लेते मुहावरे , इनका अकाल लिखते समय बहुत चुभता है. गाँव से शहर तक की यात्रा में क्या खोया क्या पाया , इसका जीवंत अहसास करा दिया आपने. अभिनन्दन.

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    1. नूपुरम जी नमस्कार! आपकी समीक्षात्मक दृष्टि सराहनीय है | निश्चित ही मेरे लेखन को प्रोत्साहन मिलेगा| आभार मित्र!

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