मूर्छा
चित्र गूगल से साभार! |
मेरे गृह सहायकों में दामी तीसरी थी। वह सर्वेन्ट क्वाटर्स से नहीं अपितु बाहर से काम पर आती थी।आश्विन मास की नवरात्रि का पहला दिन था। सेंटर टेबल पर रखे आकर्षक काँच के कटोरे में लाल गुड़हल के फूल लहक कर कमरे में रौनक बिखेर रहे थे। दामी के आने का समय देखकर मैंने गेट की कड़ी पहले से ही खोल दी। दामी समय की पक्की थी सो आ धमकी। जैसे ही उसकी नज़र कटोरे पर पड़ी तो उदास स्वर में वह बोल पड़ी।
"मैम साब! ये फूल सुबा से बहुत ढूंढ़ा, नहीं मिला। आप को काँ से मिला?"
"नहीं पता, सुबह जगदीश लाया। क्यों तूने फूल ढूंढा?"
मैंने उसकी ही टोन में बोला।
"मातारानी को चढ़ाने के बास्ते मेम साब!"
जगदीश मेरे घर का रसोईया था। उसने अपना नाम मेरे मुँह से सुना तो दौड़ा-दौड़ा ड्राइंग रूम में भागा चला आया।
"यस मेम! आपने बुलाया मुझे?"
मैं कुछ कहती उसके पहले दामी को आया देखकर वह खुद बोल पड़ा!
"दामी, चाय पियेगी क्या? मैं बना रहा हूँ।"
उसका इतना कहना ही था कि दामी ने अपनी त्योरियाँ चढ़ा लीं। और तांमियाँ सींक-सलाई हाथ नचाते हुए उसपर खिसिया कर बरस पड़ी।
"मेम साब देखा! वैसे तो ये कब्बी मेरेको चाय को नीं पूछता। इसको मालूम हे कि आज मय उपासी हे तो मेरेको चाय पिलायेगा। कितने गंदले नदी-नाला लाँघती-फलाँघती मय यहाँ पहुँचती हे, क्या ये नहीं जानता?"
"......."
जगदीश सन्नाटे में आ चुका था। लेकिन दामी न रुकी। एक साँस में वह अपने व्रत के नियम-धर्म वाली पाती सगर्व पढ़ती चली जा रही थी। उसके चेहरे को देखकर लग रहा था कि वह अपने क्रिया कर्मों में बेहद डूबी हुई औरत है। वह चाय तो पीना चाहती थी लेकिन व्रत की घंटी यदि गले न पड़ी होती तो।
"जब भूखा नहीं रहा जाता तो काहे को बिरत रखती है, बाई! और बेबात ही भड़कती है।"
मुरझाये मन से कहते हुए जगदीश रसोई की ओर चला गया।
"उपवास में तो ज्यादा जरूरी होता है चाय-पानी पीना दामी! भूखे पेट काम क्या! भजन भी नहीं होता है बाई।"
जगदीश की झेंप मिटाने और माहौल को हल्का करने के बावत मैंने कहा।
"ऐसा बिल्कुल नहीं मेम साब! मातारानी का सत्ता भी कोई चीज़ होता हे। जगदीस को क्या बताना पड़ेगा कि हर बात का अपना नेम-धरम होता है!"
रसोई की ओर घूरते हुए उसके जबड़े कसते जा रहे थे।
हालाँकि जगदीश ने उसकी बातों का बुरा नहीं माना था।वह फिर बोला।
"जब शरीर काम न करे तो भगवान को एक डिब्बे में बंद करके रख देना चाहिए बाई। बेबात किसी पर भड़कना नहीं चाहिए। नहीं तो एक दिन चक्कर खाकर गिरेगी तो न तेरी मैया तुझे उठाने आएगी और तेरा पिअकड़ आदमी।"
रसोई की ओर से समझाइश भरी मर्दानी आव़ाज गूँज उठी। दामी ने दो मिनट उधर को मुँह उठाया पर वह तो अपनी धुन में थी सो अपना राग अलापने में लगी रही। मेरा घर वाक् रणक्षेत्र बन चुका था। दामी अपनी बात सिद्ध करने पर उतर आई थी। उसने रेखांकित करते हुए बताया कि वह कहाँ-कहाँ नंगे पाँव देव यात्रा पर गयी। कितनी बार जीभ में भाला भुकवाकर जवारे-पूजा की। गंगाजल काँवर में लेकर मीलों पद यात्रा कर महादेव को पूजा है। साथ में उसने अपने मन के भीतर दबी-कुचली इच्छा को भी उत्साहित स्वर में कह डाला कि अब की माता रानी उसके आदमी की दारू भी छुड़ाने वाली है।उन्होंने उसे सपना दिया है। बहस की वजह या भूख की मार से दामी का मुँह लाल हो चला था। होठों से तार टूटने लगे थे फिर भी वह चुप होने का नाम नहीं ले रही थी। जगदीश रसोई को स्थगित कर अपनी बीवी और बच्चों के साथ मैदान में आ चुका था।
मैं वहाँ होकर भी न होने जैसी ही थी। उन लोगों के तर्कों-कुतर्कों को बस सुनकर अंदाजा लगा रही थी कि जहाँ शिक्षा नहीं वहाँ सूरज निकलने के बाद भी कितना सघन अँधेरा छाया रहता है। हाँ, इतना ज़रूर वह किसी दूसरे को दीखता नहीं। दामी चर्चा में निमग्न थी लेकिन उसने अपने आदमी की शराब वाली बात कहकर मुझे दो से तीन दशक पीछे धकेल दिया। सुनते-सुनते दामी के बोल फीके होते चले गए और मुझे अतीत के गलियारे में भाभी की बातें और कराहटें सुनाई पड़ने लगीं।
चित्र गूगल से साभार! |
"आज से मेरा नवरात्रि-व्रत शुरू हो रहा है। करती तो हर बार थी लेकिन इस बार सिर्फ ‘एक लौंग’ पर तुम्हारे लिए नौ दिनों के व्रत का संकल्प है। इस बात का ध्यान तुम्हें भी रखना होगा विनय!
भाभी मनुहार करते-करते घिघयाने-सी लगी थीं लेकिन भैया टस से मस नहीं हो रहे थे।
"विनय मैं तुमसे ही कह रही हूँ। ध्यान रखोगे न!"
"क्यों...?"
"क्योंकि जिस घर में माता का पाठ होता है उस में मदिरापान नहीं कर सकते।"
"....."
"तुम बोलते क्यों नहीं?"
"क्या बोलूँ? तुमने मुझसे पूछकर व्रत किया है? जो मैं कुछ बोलूँ। बकवास करती है...।"
"इसका मतलब...?"
"......"
"विनय, तुम शराब को हाथ लगाना तो दूर, उसकी तरफ़ देखोगे भी नहीं। तुम्हें मेरी कसम।"
"...."
भाभी हतप्रभ भाई के उत्तर की प्रतीक्षा कर उनका मुँह ताकती रहीं लेकिन वे नहीं बोले। इसके बावजूद भी उन्होंने अपने पूरे मनोभाव से आस्था के जवारे बोये, श्रद्धा कलश स्थापित किया। भाभी के व्रत का पहला दिन देवी गीत गुनगुनाते हुए गुजरा था। वे बेहद खुश थीं, साथ में हम सब लोग भी। परेवा की साँझ ढलान पर थी। भाभी की श्रद्धा का सूरज लालिमा लिए सागर की अतल गहराइयों में विश्राम की ख़ातिर उतरने की तैयारी में था। देखा कि घर में भैया की मित्र मण्डली पूरे साज़-ओ-सामान के साथ जुटने लगी थी। और देखते ही देखते ज़ालिम 'मदिरा महफ़िल' अपने पूरे शबाब पर आ गयी थी। इसके पहले कोई कुछ कह पता, भाभी के पति ने जिन्हें हम सब बेहद स्नेह करते थे, खुद को नाक तक नशे में डुबो लिया। पहले से भी बढ़कर उन्होंने नंगनाच के झंडे गाड़ दिए। गालियों की बौछार के साथ-साथ भाभी पर हाथ भी उठा दिया। राक्षसी तांडव देख हम सभी सूखे पत्ते की तरह काँप उठे थे।कहने को वे मेरे भाई थे लेकिन भाभी के लिए मेरा मन काँप-काँप उठा था।
"क्योंकि मैंने कहीं सुना था कि पतझड़ में गिरे पत्तों को फिर भी धरती का आसरा होता है। लेकिन उस स्त्री का सहारा कोई नहीं बनता जिसका पति...।"
मुझे माँ की आरजू-मिन्नत भरीं प्रार्थनाएँ याद आने लगीं। जिनको उन्होंने भाभी के पिताजी के आगे हाथ जोड़-जोड़कर की थीं। तब कहीं जाकर वे विनय भैया की दूसरी शादी, अपनी बेटी से करवाने को तैयार हुए थे। भाभी मंदिर में अखंड ज्योति के सामने अपना माथा कूट-कूटकर उन्हीं बातों पर विलाप किये जा रही थीं। लेकिन उनकी पुकार न उसने सुनी जिसे वे सुहाग के नाम पर वर्षों से अपने माथे पर चढ़ाए घूम रही थीं। और न ही पत्थरों की उन मूर्तियों ने उनकी दुर्दशा पर अपनी प्रतिपुष्टि दी थी; जिनके चरणों पर रख-रखकर भाभी का माथा घिस चुका था।
हाँ,मैंने जरूर सभी का विरोध सहते हुए नवमीं को होने वाला पारायण परेवा की मध्यरात्रि को ही करवा दिया था। स्त्री आस्तिकता का नारियल फुड़वाकर भाभी के हाथों ऐसी जगह फिंकवा दिया था, जहाँ से कोई भी स्त्री उसे लाँघ न सके। अपने विश्वास के असीमित श्रद्धा भरे घट को इस तरह फूटते देखकर भाभी भभक कर रो पड़ी थीं लेकिन मैं अपने निर्णय में अडिग थी।
"भाभी बंद करो ये रोना-बिलखना। भैया की पत्नी होने का मतलब ये नहीं कि तुम काठ की गूँगी गुड़िया बनकर अपने को आँसुओं में डुबो डालो। आज तुम अपने लिए खुशी खुद में तलाशो भाभी। छोड़ दो उस पुरुष को उसके हाल पर जिसने अपने पौरुषीय आलोक में तुम्हें शराब की खाली बोतल से ज्यादा कभी समझा ही नहीं।"
अपनी घुटन और आँसुओं को अंतस में छिपाते हुए मैंने उन्हें गले से लगा लिया। भाभी की ब्याकुल धड़कने मुझे भी अधीर बना रही थीं लेकिन मैं उन्हें किसी भी प्रकार की सांत्वना नहीं देना चाहती थी। बल्कि नन्हा ही सही उनका अपने प्रति आत्मविश्वास भाभी के हृदय में रोपना चाहती थी।
"मैम साबss...मैम...सा..आपके घूमने का समय हो गया है।"
जगदीश ने तेज-तेज आवाज़ से मुझे पुकार कर मेरी तन्द्रा भंग कर दी। उधर घड़ी के पैंडुलम ने भी पाँच बजे का घण्टा बजाया दिया। घड़ी की घनघनाहट में दामी की पतली लपलपाती आवाज़ मुझे फ़िर से सुनाई पड़ने लगी थी।
"अरे! तुम लोग अभी भी...।"
"नहीं मेम साब! अभी करते हैं सारा काम।"
जगदीश की बीवी झेंप कर उठ गयी।
मैंने दामी के साथ जगदीश और उसकी पत्नी से मामला जल्दी सुलटा कर काम सही समय पर खत्म करने की हिदायत दी। तो सभी अपने-अपने काम में लग गये। मैं संध्या सैर की अपनी साथी मीता को बुलाने निकल पड़ी। एक दरवाज़ा छोड़कर उसका घर था सो अपने दरवाज़े से निकलते ही उसे पुकारते हुए मैंने उसका दरवाजा खटखटाया ।
"मीता चल न! आज पहले से ही देर हो चुकी है।"
"आप घूम आइये, मेरा मन नहीं है।"
उसने दरवाज़ा खोलते हुए सूजे मुँह और लटके होठों से कहा।
"अरे! क्या आप आप लगा रखा है? बता न तुझे हुआ क्या? देखने में तो भली चंगी लग रही है। तैयार क्यों नहीं हुई?"
“हाँ, सही कहा।"
"तो..।"
मेरे 'तो' पर वह इधर-उधर की बातें बनाती रही लेकिन जब मैं बिलकुल पीछे पड़ गयी तो बोल उठी।
“तू जा यार! इस बार मैंने नवरात्रि का व्रत नहीं रखा है। लोग पूछेंगे तो क्या कहूँगी?”
"कह देना नहीं रखा व्रत, बस्स कोई खा थोड़े जाएगा।"
"नहीं कह सकती यार! देखा नहीं लोग तरह-तरह का मुँह बनाते हैं। और सच कहें तो तेरी जितनी हिम्मत भी नहीं मुझमें।"
मीता के चेहरे पर एक अलग तरह का डर-संकोच और असमंजस पसरता जा रहा था। मुझे अचानक महसूस हुआ कि जैसे अदृश्य शक्तिशाली हाथों ने उसका गला दबोच रखा था।
"सामाजिक रूढ़ियाँ किसी दैत्य से कम नहीं होतीं।"
मैंने उसे उसके ही हाल पर छोड़ने में भलाई समझी और चुपचाप पार्क की तरफ बढ़ गयी।
“पता नहीं लोग इस समाज से इतना क्यों और किस लिए डरते हैं? जो स्वयं में एक ऐसा लट्टू है जो आठों याम दिक्भ्रमित घूमता रहता है। आखिर हम अपनी सुविधा से जिन्दगी जियेंगे या समाज की उँगली पकड़ अपनी आँखें मींच लेंगे।"
झुंझलाहट और खिन्नता से मेरा मन लबालब भर चुका था। हमेशा की तरह पार्क के गोल रास्ते पर लोग सरपट सैर करते दिख रहे थे। मैं भी चुपचाप उन्हीं में शामिल हो गई। मन की व्यग्रता से मेरी कनपटी गुनगुनी हो चली थीं। वैसे तो दृष्टि की विपन्नता वातावरण की माधुरी को पी जाती है। लेकिन मौसम की गाढ़ी निर्मलता मन को भीतर तक तर-ओ-ताज़ा करने लगी थी। हरीतमा से भरे पार्क में सब ओर खुशहाली बिछी पड़ी थी। किसी डाल से पत्ते गिरते तो लगता पेड़ के प्रति आभार जता रहे हों। कोई फूल उत्तेजित हो हवा के साथ उड़ना चाहता तो टहनी उसे गलबहियाँ डालकर चूम लेती। प्रकृति की भव्यता से मेरे मन की रुखाई जल्द ही खत्म हो चली थी।
"रात्रि भोजन का मेनू जगदीश को जल्दी-जल्दी में पकड़ाया था। क्या उसने ठीक से...?" घूमते हुए मुझे अचानक ध्यान आया लेकिन मैं अपनी ही धुन में चलती जा रही थी कि अचानक एक दृश्य पर आँखें अटक गयीं।
दूर चक्कर पर एक महिला लाल टमाटरी जोड़े में लिपटी घूम रही थी। देखकर लगा कोई होगा...।लेकिन गोल रास्ते पर चलते हुए आखिर कौन कितनी देर तक किसी से दूर रह सकता है? सो जल्द ही हम एक दूसरे के सामने आ गये थे।
"ओ हेल्लो मिसेज ढिल्लन!"
"हाय मिसेज़ शर्मा!"
मिसेज शर्मा मीता के मित्र की मित्र हैं। मीता कभी-कभी इनकी चर्चा मुझसे करती रहती थी इसलिए मैं भी इनको जानती थी। मिलते ही बातें शुरू हो गईं।
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"कैसी हो मिसेज़ शर्मा?"
"ठीक ही ठाक हैं, ज़्यादा कुछ अच्छा है नहीं कहने को।" वे कहकर मौन हो गईं।
“जो स्त्री दूर से ताज़े खिले गुड़हल-सी लग रही थी, वह इतनी अनमनी क्यों है?”
मेरे मन में विचार कौंधा।
"क्या हुआ मिसेज शर्मा आज फिर शर्मा जी से झगड़ा…।”
मैंने चुहल की। उन्होंने मुझे निर्विकार भाव से देखा और कहने लगीं।
“नहीं नहीं, ऐसी बात नहीं। मेरी उदासी में शर्मा जी का कोई हाथ नहीं, वे तो ख़ुद बेचारे-से हुए पड़े हैं; न ठीक से नौकरी कर पा रहे हैं और न ही ठीक से घर चला पा रहे हैं ।”
अब उनकी आवाज़ में जमाने भर का दुख लोढ़ने लगा था। मुझे बड़ा अफ़सोस हुआ कि उनकी भूली-सी जिंदगी, मेरी वजह से उनकी यादों में ताज़ा हो गयी।
“वैसे तो इन दिनों स्त्रियाँ बेहद खुश रहती हैं। हों भी क्यों नहीं! उनके लिए तो ये श्रद्धा और अतिरिक्ति ख़ुशी के दिन जो होते हैं।"
उनका मन बहलाने के लिए मैंने उत्साहित होकर उनके ही मन की बात कही थी। लेकिन वे फिर भी फीके पान-सी रची रहीं। समय की उदासी देख मेरा मन अकुलाने लगा। उनकी ऊब दूर करने के लिए मैंने उन्हीं की रुचि की खूब बातें की लेकिन उनका मन नहीं बदला। मैं आख़िरी कोशिश और करना चाहती थी। "आख़िर किसी को हँसाना भी तो पुण्य का काम होता है। क्या पता मेरी एक कोशिश से वे अपनी मानसिक तकलीफ़ को थोड़ी देर ही सही भूल जायें।" मैंने सोचा।
"मिसेज शर्मा, क्या मंदिर खुल...?”
इस बार वे मेरे अधूरे वाक्य को लपकते हुए बोलीं।
"काश! ऐसा होता, मिसेज ढिल्लन!"
"मिसेज ढिल्लन नहीं, आप मुझे सिर्फ़ केता कह सकती हैं।"
"हाँ जी..!"
उनकी आक्रामक धार्मिक उत्तेजना देखने लायक थी सो मैंने ही आगे बात बढ़ाई।
"आप तो मंदिर की अध्यक्षा हैं। क्या वहीँ से आ रही हैं?"
"हाँ जी! सही कहा आपने लेकिन मंदिर के भीतर नहीं, गेट के बाहर से ही दीपक धर आयी हूँ।"
कहते हुए उनके हृदय का आक्रोश ज्वालामुखी के लावे-सा फूट ही पड़ा। चेहरा ललाई लिए भभक पड़ा और वे लगी कोसने अपने भाग्य और समय को।
"ये दाढ़ीजार 'कोविड के बच्चे' का सब किया धरा है। 'करे कोई, भरे कोई' न ये बैरी चायना से आता न मेरी मैया भूखी-प्यासी, सूनी-सूनी आँखें लिए बैठी रहतीं।"
वे गरम रेत पर पड़ी मछली की तरह तड़प कर कहतीं जा रही थीं। कैसे वे कीर्तन मण्डली की अध्यक्षा होते हुए भी अपाहिज़ बनी बैठी हैं। उनका तो दिल करता है कि मन्दिर के बाहर ही कीर्तन के लिए बड़ी सी पल्ली बिछवा दें और तुक से कीर्तन करवाने लगें लेकिन पण्डित जी बड़े डरपोक हैं। कहने लगीं कि यदि वे थोड़ा भी उनका साथ देते तो वे धूमधाम से माता के जगराता करवातीं।
अपनी युक्ति से मुक्ति पाने की अदम्य कामना एक बार फिर उनकी आँखों में लहरा उठी थी और मन व्याकुलता की चरम सीमा पार करता जा रहा था। उनको देखकर मुझे अपने ऊपर शक हो आया कि कहीं मैं ही तो नहीं गलत राह पर निकल चुकी हूँ। लेकिन अपने आपे को संयत कर मैं फिर उनसे बोली।
“मिसेज़ शर्मा! जरा ध्यान से देखो न पार्क के इर्द-गिर्द रास्तों पर हरे रंग की घास कैसे लहक कर पेड़ों को छू लेना चाहती है पर क्या ये घास पेड़ों को छू सकती है? नहीं न! क्योंकि इन दोनों की अपनी अलग सत्ताएँ हैं। चिड़ियों को सुनकर देखो उनके भोर-साँझ के कलरवी गीत की तरह क्या कोई गायक गा सकता है? और तो और सुबह की बसंती पहली किरण जब फूटती है तो लगता है कि समूचे समुद्र पर किसी ने नारंगी गलीचा बिछा दिया है। वृक्षों की मांग ईंगुर से भरी लगती है। क्या ये काम कोई मनुष्य कर सकता है?"
"नहीं, बिलकुल नहीं।"उन्होंने पंडितों-सी भंगिमा बनाई।
"जब ये सब अटल सत्ता से हो रहा है तो क्या हमारे दो फूल,आरती,एक टुकड़ा मीठा भोग पाने के लिए वो बैठा रहेगा? या नहीं मिलने की स्थिति में हमसे नाराज़ हो जाएगा? जन्मदाता क्या अपनी संतान से मुँह फेर सकता है? बोलिये मिसेज़ शर्मा।"
मैंने एक साँस में बहुत कुछ कह दिया था लेकिन प्रतिउत्तर में वे कुछ नहीं, बल्कि सिरे से भड़क गयीं।
“आप कहोगी कि मिसेज़ शर्मा बण्डलबाज हैं। पर कोई चिंता नहीं। वैसे तो मैं ये बात किसी को बताना ही नहीं चाहती थी। लेकिन आप की बातें जब ले ही आईं हैं मुझे इस मोड़ तक तो अब बिना कहे मेरा जी नहीं मानेगा।"
"आप बेझिझक कहिये..।"
कल ही मेरे माथे माता आई थीं। कैसी अपनी मोटी-मोटी आँखों में आँसू भरकर वे कह रही थीं।
"बेटी हम बहुत भूखे हैं। क्या कहती! मन कलप कर रह गया। अब बताओ! ये भी कोई मज़ाक है?"
मिसेज़ शर्मा ने अपनी पैनी नज़रें अब मेरे चेहरे पर गढ़ा दी थीं। जो मुझे चुभने लगी थीं। कुछ पलों के लिए मैं अवाक रह गयी थी कि देखिये इंसान कितनी सफ़ाई से ख़ुद को धोखे में रखे हुए है। लेकिन जल्द ही अपने विचारों को परे करते हुए मैंने उनसे कहा।
"मिसेज़ शर्मा! आप सच कहती हो इस समय हम तो कैद होकर रह गए हैं जी!"
'जैसी चले बयार पीठ तब ...।' वाली पँक्ति को मैंने याद कर गहरी साँस ली।
मेरी करुण आवाज़ के कम्पन ने उनकी करुणा को शायद तरंगित कर दिया था। उन्होंने पल भर के लिए ही सही मुझे ‘हमदुखनवा” समझ लिया था। उनकी सिकुड़ी भवें चैन से पसर गयीं। होंठ आराम की मुद्रा में आ गए। माथे की बिंदी जो दो खड़ी सिलवटों में टेढ़ी हुई जा रही थी,सीधी हो दमकने लगी। उनकी चाल में नरमी आ गयी। अब वे पूरी तरह से मुझसे खुल चुकी थीं। सो उन्होंने बताया कि मन्दिर भले न खुले हों लेकिन वे व्रत के नियम-धरम मजबूती से पालन कर रही थीं। दिन में चार बार नहाना,मंदिर जाना फिर चाहे भले ही उन्हें महीनों गठिया की दवाई खानी पड़े, बच्चे खुद खाना बनाये खाएं लेकिन वे नियम की पक्की हैं।
ये सब बातें बताते हुए मिसेज शर्मा उछल रही थीं। कुछ करने से ज़्यादा उसकी चर्चा करने में रस कैसे लिया जाता है। जीता जागता उदाहरण मेरे सामने था। जल्द ही उन्होंने मुझसे स्त्री-हक और स्नेहासिक्त पूछताछ शुरू कर दी थी। पहले पूछा कितने बच्चे हैं। पति क्या करते हैं? सास हैं या नहीं? आदि आदि और साथ में उन दिनों का सबसे अहम सवाल आप का व्रत कैसा चल रहा?
"उतनी देर से मैं ही अपनी कहे जा रही हूँ। आप भी सुनाइये न! कुछ मिसेज...।”
उनके प्रश्न पर सबसे पहले तो मुझे बड़ी ज़ोर से मीता की याद हो आई। शायद इन्हीं कारणों से आज उसने अपने व्यवस्थित रूटीन में आमूलचूल बदलाव कर लिया था। इन्हीं भ्रामक औरतों को खुश करने के लिए न जाने कितनी प्रतिभाएँ एक अदद व्रत वाली रूढ़ि में अपने को आबद्ध कर खुद पर से भरोसा खो देती हैं। उनके सहज और आत्मीय सवाल पर भी मेरा मन सहज नहीं रह सका। मैंने मन के भीतर की नंगी कठोरता ओढ़ते हुए कहा,"मैं कोई व्रत उपवास नहीं करती मिसेज़ शर्मा!"
‘झूठ मत बोलिए मिसेज़ ढिल्लन, आपके चेहरे से साफ़-साफ़ झलक रहा है कि आप व्रती हैं। देखो न चेहरे से कैसा नूर झलक रहा है।"
उन्होंने इस बात को अतिरिक्त मनुहार से कहा और बलाएँ लेने की मुद्रा में अपने दोनों हाथ कान तक ले गयीं।
"लगने और होने में ही तो जीवन के सारे उतार-चढ़ाव समाहित है। बड़ा फर्क होता है, करने और कहने में।" कहना था। कहा, मिसेज़ शर्मा! बड़ी मुश्किल से सच बोलने की आदत लगी है तो अब झूठ न बोलूँगी। और वैसे भी 'करो कुछ और कहो कुछ' ये काम हमारे धरमपुर वाले रमानाथ चाचा वाली चाची की तरह कोई और कर भी नहीं सकता।"
शर्मा जी की पत्नी से बातें करते-करते मुझे मेरे बचपन का बकिया याद आ गया।
"आप क्या कह रही हो? कौन रमानाथ...?"
"सुनिए न मिसेज शर्मा! आप उन्हें नहीं जानती।"
"........"
दरअसल हमारे धरमपुर में एक चाची थीं। वैसे तो चाची का मन कुवैत से लौटने का बिल्कुल भी नहीं था लेकिन चाचा को पुरातन पंथी कहो या जड़ों से जुड़ा हुआ। उनका कहना था कि जहाँ उनकी छठी पूजी गयी है, वे वहीं से चार कन्धों पर दूसरी दुनिया के लिए रवाना होना चाहेंगे। चाचा के आगे चाची की एक न चली और वे धर्मपुर में आकर 'कुवैती' चाची बन गयी।
देखते-देखते धरमपुर कस्बे की कपड़ा वाली गली की हर औरत के पास उन दिनों बच्चों को सुलाने के लिए परियों की कहानियों की जगह कुवैती संस्मरण रहने लगे थे।
खैर, मुझे उनके घर ज्यादा खेलने की छूट तो नहीं थी लेकिन उनको देने-लेने या बुलाने जैसे कामों के लिए माँ मुझे ही भेजती थीं। इसी बहाने मैं उनके जीवनचर्या के रंग-ढंग देखने का सुख उठाती थी। मैंने ध्यानधर कर उन्हें कई बार देखा था और माँ को भी बताया था कि चाची जैसे घर के भीतर होती हैं वैसी बाहर बिलकुल नहीं होतीं। लेकिन मेरी बात को माँ इधर-उधर से निकाल देतीं। एक बार नवरात्रियों में माँ ने उन्हें बुलाने को मुझसे कहा। मैंने झटपट अपना खेल छोड़ा और दौड़ गयी। दोपहर का समय था। आँगन में उनका गुलाबी रेशमी गाउन सूख रहा था। छिपकर मैंने उसे छुआ तो उँगलियों की आत्मा ठंडी हो गयी। जामुनी छींट का सूट पहने चाची,चाचा के साथ खाना खा कर उठतीं जा रही थीं। मुझे देखकर बोली।
"उधर धूप में क्यों खड़ी है? इधर आओ…!"
"चाची जी,आपको माँ ने बुलाया है।"
"अच्छा, मैं आना भी चाहती थी जिज्जी से मिलने।"
वे बोलीं और उन्होंने मुझसे थोड़ा ठहरने को कहा। वही पास में उनका 'ड्रेसिंग टेबल' था। मैंने देखा उन्होंने एक डिब्बी खोलकर कुछ मुँह में डाला। शीशे के पास जाकर ताज़े सिंदूर की बिंदी लगाई और एक चुटकी सिंदूर से माँग गाढ़ी कर ली। बिछिया उनके पाँव में चले गए, लाल चूड़ियां कलाई में और उन्होंने सूट उतार कर सूती धोती पहन ली। मैं उनको देख तो रही थी लेकिन माँ के अनुसार मुझे कुछ असामान्य नहीं लग रहा था। दो मिनट में हम दोनों माँ के पास पहुँच गए। माँ स्थापना से थोड़ी दूरी पर अपना आसन लगाये बैठी थीं। नौ दिन उनकी बैठिकी वहीं रहती थी। चाची को देखकर माँ मुस्कुराकर बोली,"चाची के लिए चौकी ले आओ केता। हमारा आसन…।"
माँ की बात पर मैं चौकी लेने मुड़ी ही थी कि कान में आवाज़ पड़ी, "न जिज्जी! आप चिंता न करो हम भी व्रत हैं सो आपके पास ही बैठेगें।"
माँ ने उनसे जो भी कहा हो लेकिन मेरी देह झनझना गयी। आँखें फैल गईं। थोड़ी देर पहले के सारे दृश्य मेरे पुतलियों में दिपदिपा उठे। उन्हीं के सामने मैं माँ को सब कुछ बता देना चाहती थी। लेकिन तब सत्य कहने की हिम्मत न जुटा सकी थी। लेकिन आज समाज का दोगलापन खुलकर मेरे सामने आ चुका है, और सत्य को सत्य कहने की शक्ति भी।
"इसलिए कहती हूँ मिसेज शर्मा, भले कठिन क्यों न लगे लेकिन जिन्दगी को सत्यता से ही जिया जाए वही अच्छा है।"
मैंने अपनी बात खत्म कर उनकी ओर देखा।
चित्र गूगल से साभार! |
“हो सकता है मिसेज शर्मा।”
मैंने बात खत्म करने के मूड से कहा।
"हो नहीं….मैं सच कह रही हूँ। जिस प्रकार की आपकी काया लग रही है, उससे तो कोई दूर से देखकर बता देगा कि आपने व्रत रखा है। आख़िर मैया के उपास की महिमा ही निराली होती है।”
उनकी अनुभव की ऊँगली मेरी ओर घूम चुकी थी। आँखें नचाते हुए वे अपनी कहे जा रही थीं। मिसेज शर्मा, जैसी एक नहीं इस दुनिया में ऐसी तमाम औरतें मिल जाएँगी जिन्हें उनके बच्चे क्या करते हैं, का पता नहीं होगा लेकिन दूसरी की रसोई में क्या पक रहा है, वे जानती होगीं। मैं उनको देखकर हैरान थी कि आख़िर वे शरीर का हल्का होना, घर में सुख संपत्ति का बढ़ना। सिर्फ़ व्रत उपवास से क्यों जोड़ कर देख रही थीं। जबकि इन सबके लिए तो आदमी को दिन-रात खून पसीना एक करना पड़ता है। फिर भी मन चाहा वरदान मिल ही जाएगा की गारंटी नहीं होती।
"पत्थर पर दूब नहीं उगती केता!" सोचकर मैं मौन हो चुकी थी।
"क्या सोच रही हो मिसेज..?" उन्होंने फिर टोका।
"कुछ ख़ास नहीं। बस इतना ही कहूँगी कि मिसेज़ शर्मा! अपनी काया को ऐसा रखने के लिए मैं कितनी मेहनत करती हूँ,आप कहाँ जानती हैं। योग आसन के साथ ‘डाईट प्लान’ फ़ॉलो करती हूँ। कब क्या और कितना खाना है? का विशेष ख़्याल रखती हूँ। कितनी बार खाना सामने होने पर भी नहीं खाती हूँ। मेरे इस त्याग और समर्पण को आप सिर्फ व्रत...।"
इतना सुनते ही उन्होंने ऊपर से नीचे तक एक अज़ीब भाव-भंगिमा से मुझे देखा औए एक बेहद लंपट-सा लुक दे छिटक कर दूर चलने लगीं। मानो मैं उनके सामने एक बेहद मामूली-सा क्षुद्र जीव थी।
"मिसेज़ ढिल्लन! एक बात बताएँ? जो भी आप कह रही हो ये सब पढ़े-लिखे लोगों के चोंचले हैं, चोंचले। इससे ज्यादा और कुछ नहीं। सब का सब बकवास है।"
"अच्छा ठीक है मिसेज़ शर्मा! मैं आपकी बात मान लेती हूँ। लेकिन मुझे ये लगता है कि चाहे हम फलाहारी हों या अन्नाहारी, सुबह ख़ाली होने का रूप तो एक ही होता है न! और जब जीवन की साम्यता को हम समझ ही नहीं सकते तो ये कतिपय क्रिया-कर्म करना बेकार ही होगा न! इसकी जगह यदि व्यक्ति अपने मन के शुद्धिकरण के उपायों की विधि हासिल कर आत्मिक अनुष्ठान कर सके, तो मुझे लगता है कि मानवता ज्यादा सुखी रह सकती है।"
मेरे इतना कहने की देर थी कि बिना कुछ कहे-सुने चट्ट से फांसला बनाते हुए वे मेरे पीछे हो गईं।अपनी साड़ी की प्लीटों को उठाते हुए, पल्ले को भी कमर से लपेट लिया। जैसे मुझ जैसी अछूत को छूकर वे समूची छूत हो जाएंगी। मैदान से लगभग-लगभग सभी लोग जा चुके थे। आसमान पंछिओं से खाली हो चला था। इक्का-दुक्का उम्रदराज जोड़े थे, वे भी लगभग पार्क छोड़ रहे थे। अपनी बहस नुमा बातचीत को एक खुशनुमा अंत देने के वास्ते मैंने आख़री वाक्य बोलना चाहा।
"मिसेज़ शर्मा! संसार में किसी को भले ही मैं कुछ न समझा सकूँ लेकिन अपने को ज़रूर...! और उसी के नाते कहती हूँ, मेरे लिए मूर्छित होकर जिंदा रहना असंभव है।"
कहते हुए मैंने पीछे मुड़कर देखा तो पाया, मिसेज शर्मा मुझसे दूर जा चुकी थीं।
लखनऊ से प्रकाशित होने वाली पत्रिका "प्रणाम पर्यटन'और "क्षितज के पार" "ब्लॉग समकालीन परिदृश्य-दि पुरवाई ऑनलाइन पत्रिका में प्रकाशित! |
लेखिका: कल्पना मनोरमा |
ReplyDeleteजी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(२०-०६-२०२२ ) को
'पिता सबल आधार'(चर्चा अंक -४४६६) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बहुत बहुत आभार अनीता जी
Deleteबहुत सुंदर कहानी।
ReplyDeleteसार्थक कहानी
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