तुम्हारे जाने के बाद (श्रद्धांजलि )
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माँ मनोरमा जन्म फ़रवरी १९५४ - गमन १३ दिसम्बर २०१४ |
खैर,तुम अपने आँचल में स्थिरता
लिए बरामदे में हमारे सामने सोती रहीं और हमें बार-बार तुम्हारे जीवित होने का
अंदेशा होता रहा। आस-पास घिरी बैठी तुम्हारी देवरानी-जेठानी, बहनें, भतीजी,बहुएँ और भाभजें
बखानती रही थीं तुम्हारी जिंदगी। हमारा ध्यान तो बस उस चादर के हिलने पर लगा था
जिसे तुम सिर से पाँव तक ओढ़े, सारे कष्टों से मुक्त हो चैन
की नींद सो रही थीं। मन फिर-फिर गुनताड़ा लगाता रहा था कि चादर हिलने का मतलब
तुम्हारा जिंदा होना हो सकता है। हम एक चमत्कार होने की कामना करते जा रहे थे; उस
भगवान से जिसको तुमने और हमने खुद से ज़्यादा पूजा था। लेकिन जीवन के बीहड़ में कुछ
अच्छा न घट सका और तुम्हारे बिना बन रहे भीषण अकेलेपन के बीच भी न हमें रोना आया,न बोलना और हँसना तो अभी तक नहीं आ पाया है तुम्हारे सामने जैसा।
हमारा भसक कर ढेर होना भले न किसी को दिख रहा था लेकिन अगरबत्तियां जल-जल कर ढेर होती जा रही थीं। वे दूर से दिख रही थीं। दीया टिमटिमाता जा रहा था तुम्हारे लिए। रात बिसूरती जा रही थी कोने अन्तरे में मुँह दिए। तुम्हारे अपने लोग तुम्हारे दुख के साथ तुम्हारे प्रति अपनी फ़र्ज़ अदायगी की चर्चा भी हुलसित हो-होकर करते जा रहे थे । तुम्हारे परम स्नेही सेवादारों को भर-भर मुँह सराहा जा रहा था। शोक में लिपटी भेंटवार्ताएँ स्तुतिगान में कैसे बदल जाती हैं; हमने पहली बार इस मानवीय प्रपंच को नज़दीक से देखा था। बहुत अचरज हुआ था हमें। तुम बोल पातीं उस दिन, तो जरूर पूछती कि आदमी हर काम सिर्फ अपने मतलब के लिए ही क्यों करता है? गहरे शोक में भी मनुष्य कैसे झूठे जीवन का अनुलोम-विलोम, सत्य से आँख चुराकर जीता जा रहा था । धरती के इस उथले प्रपंची खेल को नजरअंदाज कर आसमान अपनी धुन में पानी गिराता जा रहा था। हवा खूंटा तुड़वाकर इधर से उधर दौड़ रही थी। मौसम में थरथराहट घुलती जा रही थी। रात के स्याह अँधेरे में गिरतीं बूँदें देख लोग डरने लगे थे कि ठौर ज़्यादा गीला हो गया तो क्या होगा...?
यज्ञ पूर्ण होने पर पानी बरसना शुभ माना जाता है। हमने सुना था कभी । उसी बिना पर हम मन ही मन उसको शुभ माने जा रहे थे क्योंकि तुमने भी तो अपने जीवनयज्ञ में साँसों की पूर्णाहुति ही डाली थी। उसी को शुभ और सत्यापित करने बादल जल-कलश लिए झुक आये थे। तुम्हारा दर्द तुम्हारे शरीर में जमता जा रहा था । तुम अविचल अडिग संन्यासियों की भाँति पलकें बन्द किये अपने होने या न होने में रमती जा रही थीं। तुम्हारे शारीर के शांत होने और वाणी मौन हो जाने से हमारा मन ही खाली नहीं हुआ था बल्कि खाली हुआ था घर-द्वार, हमारे बचपन की हर वो शाख़ जिसपर लटक रहा था ममता का झूला| तुम्हारी मानवीय चेतना जरुर निश्चेष्ट हुई थी लेकिन तुम्हारे कहे शब्द अब ज्यादा बोल रहे थे|
सुबह होते ही सभी फुर्ती में आ गए थे सिवा तुम्हारे। जिस घर की धरती को तुम मंत्रों के साथ जगाती थीं, उस दिन वह स्वयं जाग गयी थी । तुम्हारे घर के लिए वह बड़ा काम था । उसे अपनी मालकिन को ससम्मान विदा करना था। ईंट-ईंट तुम्हारी छुवन को सवाया कर लौटा देना चाहती थी। घर मानो टेर रहा था तुम्हें लेकिन तुम न बोली थीं । फिर तुम्हारे बिना सहयोग के पहली बार उस घर का कार्य आरम्भ हुआ। तुम्हारी ज़िंदगी की दूसरी बार बारात सजने की तैयारियां होने लगी थीं,जो हमारे लिए निरी नई और कल्पनातीत थी ।
दिन पाण्डु रोगी-सा हारा हुआ सूरज गोद लिए धीरे से निकला था लेकिन धूप ने तुम्हारा पक्ष लेते हुए जबरन पूरे साज-ओ-सामन के साथ अपने पलक पाँवड़े डाल दिये थे। जो लोग रात से चिंतित थे वे अब तुम्हारे जीवन में किये परोपकार के फलित होने की बातें करने लगे थे। बूढी-पुरानी तुम्हें आशीष रही थीं। तुम्हारे त्याग और कर्मठता के खूब चर्चे होते जा रहे थे । साथ ही साथ तुम्हारे श्रृंगार के लिए सामान जुटाया जाने लगा था। नई साड़ी और श्रृंगार के सामान के साथ तुम्हारे बेटे ने तुम्हारे लिए लाल रेशमी शॉल मंगाई थी। तुम्हारी नाक में पहने सोने के नकफूल को उतारने के लिए किसी ने कहा था लेकिन उसे न उतारा जाए, तुम्हारे बेटे ने तुम्हारे मान में फिर से बोला था। तुम सुन पाती तो कहती कि मिट्टी में क्या सोना क्या चाँदी!
उसी नकफूल के साथ-साथ फूलों के हार भी तुम्हें पहनाए गए। स्वर्ग-विमान को
गुलाब और गेंदों ने खूब महकाया था। तुम्हारे घर की मुंडेरें झुक-झुककर तुम्हें
निहार रही थीं । दरवाज़े-चौखटें गहरी कचोट में भी तुम्हारी बलाएँ लेती जा रही थीं।
तार पर फैली तुम्हारी साड़ी उड़कर तुमसे लिपट जाना चाहती थी। भीतर बरामदे से उठाकर
तुम्हें सदरद्वार की उस देहरी के थोड़े भीतर रखा गया था जिसके बाहर तुम आखरी बार
पाँव निकालने जा रही थीं। कभी अपनी कच्ची उम्र के साथ उसके भीतर दाख़िल हुई थीं | दिन-रात एक कर उसको सम्हाला-सजाया और भरसक सुख दिया था बिलकुल प्रौढ़ों की तरह । मुझे हमेशा मलाल रहा कि मेरी माँ बचपन ही बूढी हो गयी थीं उसके लिए लेकिन तुम्हारे चेहरे पर इस बात का मलाल कभी नहीं देखा | मेरे साथ देहरी स्तब्ध थी लेकिन जिसका जो
मन था कहता जा रहा था और रोता जा रहा था लेकिन हमारे शब्द पूर्ण शोक में डूब चुके
थे। वे होठों पर स्फुरित होना भूल गए थे।मन का आकाश पूरी तरह से मौन हो चुका था। मन का एक
भावुक और पूर्णरूपेण स्नेह आप्लावित तुम्हारे नाम का कोना रिक्त हो चला था ।
तुम्हारी अंतिम विदाई में तुम्हें जो जानता था वो भी आया नहीं जानता था वो भी आया। तुम्हें छू-छूकर ताई-चाचियां तुम्हारे हाथ-पाँव की नरमाहट और लुच-लुच हथेलियों के गुदास की तारीफ़ करती जा रही थीं । तुम्हें दुल्हन की तरह सजाया गया था। तुम्हारे जीवन साथी ने सगर्व एक चुटकी सिंदूर तुम्हारी माँग में भरकर अपने प्रति तुम्हारे स्नेहिल समर्पण को सम्मानित कर दिया था। हमेशा की तरह तुम्हारे छोटे-छोटे गेहुँआ पीले पाँवों में गुलाबी रंग खिल उठा था । तुम्हें सजाने के दौरान किसी ने हमें तुम को छूने नहीं दिया था या हमने खुद ही चेष्टा नहीं की थी। हमें लग रहा था जितनी देर और हो जाये तुम सोई रहो यूँ ही सही उतना ही ठीक रहेगा। पहले कभी तुम अपने मायके जाने के लिए पाँवों में रंग लगाती थीं तो भी मेरा हाल बेहाल होने लगता था कि अब तुम्हारे बिना दिन कैसे कटेगा ।
वो अभागा दिन था जो तुम हमेशा के लिए हमसे विदा लेने जा रही थीं और हम
हमेशा के लिए अनाथ होने जा रहे थे फिर भी हम ज़िंदा थे। बेकार है ये संसार माँ!
यहाँ कोई किसी के लिए नहीं रुकता और चलता है| सब अपनी खुशी के लिए मेला देखते हैं । इस सबके बावजूद तुमने क्या-क्या न सहा लेकिन हमें कभी अपनी छाती से अलग न होने दिया । उस दिन हमारे
प्रेम का संसार हमारी आँखों के सामने लुट रहा था और हम बेबस लाचार बने सबों को ताक
रहे थे।तुम क्या थीं हमारे लिए कहना मुश्किल है लेकिन जो थीं बहुत जरूरी और कीमती
थीं।
जीवन के सारे विमर्शों और द्वंद्वों को तुम अपनी खुली हथेलियों पर रखे थीं। फिर भी जमीन से उठाकर तुम्हें चार कन्धों पर चढ़ा लिया गया था। तुम्हारे ऊपर बताशे, मखाने और पैसे बरसाये जाने की रस्म निभाई जा रही थी जो हमें दो कौड़ी की लग रही थी लेकिन रस्में तो खोखली और रूढ़िवादिता से बंधीं होती हैं। उनमें प्रखरता की बात हम सोच भी कैसे सकते थे इसलिए जो होना था होता गया।
बहुत कुछ कहे और अनकहे के बीच आख़िरकार एक स्त्री संसार के हाथों में गुमराह होने छूटती जा रही थी और दूसरी स्त्री संसार को अपने में तिरोहित कर उड़ती जा रही थी|जिनके लिए तुमने फूल चुने थे वे तुम्हें रामनामी अभीष्ठ-अमर ध्वनि में राख होने के लिए जा रहे थे। अग्नि पूरे मनोयोग से तुम्हें अपनाने के लिए तैयार हो चुकी थी| हमारे बीच कभी न पूरने वाली मीलों लंबी दूरी पसरती जा रही थी|ये कैसी विदाई थी माँ? मन आज भी उस अनुत्तरित प्रश्न को सुलझाने में ढेर उलझ जाता है कि हम कैसे लुटे बंजारे से पीछे छूट गए थे और तुमने मुड़कर भी नहीं देखा था। बहुत कुछ कहना है तुम्हारे औदार्य के लिये। कहती रहूँगी जब तक रहूँगी।तुम्हें केवल प्रेम ही मिले; जिस रूप में भी तुम हो।
माँ अगर तुम सुन सकती हो तो ये बात मैं फिर कहती हूँ कि मुझे दुनिया का सबसे बड़ा डर था तुम्हें खो देने का और तुम खो गईं। तुम्हारे जाने का मुझे बड़ा दुःख हुआ लेकिन मैं इससे निकलना नहीं चाहती। मुझे लगता है इस तरह ही सही तुम मेरे साथ हो।
बेहद मार्मिक लिखा है। सच, माता पिता में से कोई भी हमेशा के लिए चला जाए तो अनाथ होने की अनुभूति तमाम उम्र साथ रहती है। माता जी को हार्दिक श्रद्धांजलि।
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद शबनम जी!
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