नीले मूँगे-सा आसमान

2020 अक्टूबर महीने का नीले मूँगे-सा आसमान मानो कह रहा है कि तुम बने रहो डर की आगोश में मैं तो जी भरकर चमकूँगा। "लो मैं तो आ गयी हूँ पूरी साज़-ओ-सामान के साथ क्षितिज पर", ठंडी ने खुल्मखुल्ला ऐलान कर दिया है। सर्दी की पतली-सी चादर वातावरण पर पसर चुकी है। धरती पर सूरज की तपिश फीकी पड़ने लगी है। जैसे नरमता के आगे अक्खड़पन ढीला पड़ने लगता है। हवा में गज़ब की स्फूर्ति भर चुकी है। अलस्सुबह की सैर भोर की देह में झुरझुरी भरने लगी है। यमुना की धारा शीशे की तरह से ना सही, तेली के परनाले की शक्ल छोड़ नहर के जल की तरह हो चली है। कालिंदी के बदलाव की खबर हमें हवा के वे झुके झौकें दे रहे हैं जिन्होंने उसके जल को स्पर्श किया है। झुक-झुक कर उसको छूते हुए  आते हवा के झोंकों की अठखेलियाँ देखते ही बन रही हैं। इन दिनों शाम को जब दिनकर शहर से विदा लेता है तो पश्चिम दिशा में धरती से लेकर क्षितिज तक एक सुनहरी बीम-सी बनती हुई दिखाई पड़ती है। ऐसे दृश्य कभी बचपन में देखे थे। यमुना के जल में सुनहरी कंपन को देखा जा सकता है। उसके जल की सतह पर वृक्षों की पड़ती परछाइयाँ नदी की तरलता पर मुग्ध हो मुस्कुराती हैं। तरल होना मतलब जीवन को जीवित रखना है। तरलता ज़िन्दा रहने की निशानी है। ये बात नदी और स्त्री बराबर से जानती हैं। लोग कहते हैं कि बिगड़ी बातें बनाये नहीं बनतीं चाहे कितना ही उपाय क्यों न किया जाए इसलिए जो जैसा है चलने दो भाई। चाहे उन बातों से कोई आहत भी होता हो, तब  भी चलेगा? अचानक एक प्रश्न ने मन में दस्तक दी। कहने वाले ये भी कहते हैं कि इस बनने-बिगड़ने की वजह से लोग अपना भूत, भविष्य और वर्तमान को गड्डमड्ड किये रहते हैं। तो क्यों न करें! जीवन भी तो इन्हीं तीन स्थितियों में बिंधा है। जो ऐसा कहते हैंउनसे मैं बस यही कहना चाहती हूँ कि यदि सीधी धारा को मोड़ना कठिन होता है,बदलना असंभव है तो अब देखो न! कहाँ देर लगाई प्रकृति ने बदलने में! वो भी कह सकती थी मैं तो जैसी थी वैसी ही रहूँगी... लेकिन नहीं! उसको तो ज़रा-सी स्वच्छ साँस लेने का अवसर मिला नहीं कि वह आ गयी अपने पुराने रूप में। जैसे तब हुआ करती जब हम साइकिलों से मीलों सफर करते थे। इसका मतलब तो यही हुआ न कि जब तक हम न चाहे बस तभी तक बदलाव कठिन वरना जैसे ही बदलने का विचार आया नहीं हम अपने स्वभाव में परिवर्तन ला सकते हैं। जरूरत के हिसाब से कुछ अतिरिक्त, कुछ नया करने की गुंजाइश हमारे पास हमेशा बनी ही रहती है।हम उसको न देखें तो बात और है

ये अक्टूबर का प्रथम सप्ताह चल रहा है और हमें रात्रि में ओढ़ने के लिए दोहर की आवश्यकता पड़ने लगी है। वैसे ऐसा होना कई वर्षों से बंद हो गया था। हम पंखे ए.सी. चलाकर सोते थे। लेकिन समय ने अपनी चाल बदली तो हमारी जरूरतें भी बदल गयीं। वैसे भी जरूरतें बड़ी जिद्दी होती हैं। ये जब चाहें व्यक्ति की दिशा और दशा की धज्जियाँ उड़ा सकती हैं। बस इसी बिना पर कुछ भी छोड़ो लेकिन उनकी वक्त पर मागें पूरी करो। हमने सर्दी के स्वागत में दोहर निकाल लिए। मुझे खूब याद है अक्तूबर महीने का ऐसा मौसम गाँवों में तब होता था जब शक़्कर तीन रुपये किलो बिका करती थी और सोने का भाव पैंतीस सौ से चार हाजर रुपये हुआ करता था। जब गाय-भैंसों के दूध का व्यापार नहीं होता था। लोग वाशिंग पावडर से दूध बनाकर बचपन को अपंग नहीं बनाते थे। मतलब पैसों की खनक ने लोगों को अँधा नहीं बनाया था। भोर होते ही गाँवों में लोग एक दूसरे से सच्ची मुस्कान के साथ राम जुहार किया करते थे। कनेर के फूलों पर मधुमक्खियों को शहद बटोरते आराम से देखा जा सकता था। गाँव क्या शहरों में भी ये पहेली चरितार्थ होने लगती थी 'हुआ सवेरा बाजी बम्ब,नीचे बंगला ऊपर खम्भ' इस पहेली का उत्तर है (रई या मथानी) क्योंकि जैसे ही सुबह होती, दही की मटकियों में गोरस की सौंधी-सौंधी गमक उठने लगती थी। मथानी का मथने वाला सिरा मटकी में और डंडा ऊपर की ओर नाचने लगता था। छोटे बच्चों के लिए यह दृश्य कम मनभावन नहीं होता था। गोरस मथती माँ, दादी ,चाची और ताई घूम घूम घूमर-सा नाच करती थीं। शहरी घरों में भी गृहणियाँ स्टील के डिब्बों में दही से मक्खन निकालने का कार्य करती थीं। गाँव में मिट्टी के ताजे पोते चूल्हे जलते तो शहरों-कस्बों में कोयले और बुरादे की लिपी-पुती अंगीठियाँ गली में सुलगने लगती थीं। हर ओर चहल-पहल के साथ घरों से सुबह-सुबह घर्रमर्र की समृद्धशाली ध्वनियाँ फुट पड़ती थीं। उस समय अक्तूबर की सुबहें इतनी ठंडी हुआ करती थीं जितनी आज हमको प्रतीत हो रही हैं।  माँओं की पतली-सी शालें बाहर निकल आती थीं लेकिन समय की चाल मनुष्य की हर चाल पर भारी पड़ती चली गयी। हम स्पातिये होते चले गये। हमारे देखते-देखते हर विनम्र नज़ारा काठ का होता चला गया। जो कुछ कोमल कान्त था हमारी आँखों से ओझल होता चला गया और हम रह गए ठनठन गोपाल। 

अब हमारे सामने धोखेबाज समय ने अपने हाथ-पाँव पसारने शुरू कर दिए थे। जो मिले अपने कब्जे में ले लो। ये छीना-झपटी हथियाने से तंग आकर आज हम एक सूक्ष्म जीवाणु के चंगुल में आ फँसे हैं।अब करो बेटा मनमानी, भरो उड़ान बेतुकी ऐसा करते हुए अगर चित्त न गिरो तो नाम बदल देना हमारा।जैसे कोरोना ताल ठोंक-ठोंक कर हमें ललकार रहा है और एक हम हैं कि घरों में छिपे बैठे हैं क्योंकि आप कितने भी जिद्दी और चालू क्यों न हो, वक्त की चाल के शिकार बने बिना कहाँ बच पाओगे? समय-शिकारी बहुत ही चालाक है। मिट्टी की ढेली यदि वर्षा से अकड़ दिखाए और पंगा लेने की कोशिश करे तो आप खुद ही जान सकते हो उसका हाल क्या होगा। बहुत अकड़ेगी तो अपने आकार- प्रकार की बिना पर दो से चार, दस दिनों में अपने अस्तित्व को बचा पाएगी। 

बहुत दिनों बाद अक्तूबर की सुबहसाँझ के लिए रेशमी शाल लेकर आया है। उपहार किसे पसंद नहीं होता। काल की इस बिहंगम चाल पर प्रकृति भी मोहिनी बन बिहंस रही है। ठीक उसी तरह जैसे हम विज्ञान की दुहाई देते-देते उसकी कारीगरी पर अपना तन-मन-धन वारते-वारते यहाँ तक पहुँच चुके हैंजहाँ मौसम कब अपना पहलू बदल लेता है, हमें पता ही नहीं चलता। हम बस पहियों पर सवार हो दौड़ रहे थे। सच कहें तो शहरों में तो हमारे लिए सदा गर्मी का ही मौसम ज्यादा दिखाई पड़ता था। फिर चाहे परेशानियों का ताप हो,प्रतिस्पर्धा का बुखार हो या मौसम की मार,पिसते मनुष्य और उनके साथ अबोले जीव ही हैं। गुनाह करने वाला पिसे तो एक बात लेकिन गुनाह न करने वाला भी जब चक्की के पाटों के तले आ जाता है तो एक बारीक-सी चीख हृदय से अनायास ही उठती है। किसी ने सही मुहावरा बनाया होगा,"गेहूँ के साथ घुन का पिसना" गनीमत है इस कोरोना काल ने कुछ तो अच्छा किया। कुछ तो बदलाव दिखा। कम से कम इस ने आधी दुनिया का छीना हुआ सुकून उसको वापस तो लौटाया है। प्रकृति को देखकर लग रहा है कि देर से ही सही शबरी के घर राम पहुँच ही गए। आसमान से ओस झरने लगी है। मलय समीर के औषधीय झोंकों ने भोर को निरोगी बना दिया है। पेड़-पौधों की अतृप्त आँखों में ओस पड़ने से उनकी दृष्टि लौट आयी है। फूलों के चेहरे दमक उठे हैं। डालियाँ अल्हड़ बालाओं की तरह मनमौजी हो गयी हैं। 

बगीचे के पास से गुजरने पर बिन माँगे ही पुष्प अपनी खुशबू हम पर लुटाने लगे हैं। जहाँ माली की कैंची दिन-रात पौधों को आकार देने में लगी रहती थी और मौसम के अनुरूप डालियों को रंगने के लिए पत्ते जद्दोजहद कर उनको दो से तीन दिनों में रंग पाते थे अब ऐसा नहीं है। इधर माली की कैंची शांत हुई उधर पत्तियाँ दौड़ पड़ी ठूंठों को रंगने। कटिंग के बाद अब पौधे सजे सँवरे बिल्कुल स्कूल जाते बच्चों से लगने लगे हैं। जहाँ एक तरफ दर्द हैअकेलापन हैवहीँ दूसरी तरफ़ मौसम का जादू है। प्रकृति की निर्मलता है। लेकिन हम अभी भी पहले की तरह ऊहापोह में फँसे हैं। न सुख का आनन्द उठा पा रहे हैं और न ही दुःख को पूरी तरह से समझकर उससे  सुलझ पा रहे हैं। विश्वास नहीं होता कि पिछले सात महीनों की कैद में हमने उफ़ तक नहीं की। दुनिया ने अपने ही तरीके से हमें जीना सिखाया है। इन दिनों हम रुके हैं लेकिन कुछ है जो निरंतर चलायमान है। सही कहा है किसी ने कि ये दुनिया है भाई! इसके चक्कर में न पड़ो नहीं तो चक्कर खा जाओगे लेकिन इससे होड़ नहीं लगा पाओगे।

***


छायांकन : परीक्षित बाजपेयी के द्वारा



 


 


 




 

 

Comments

  1. बहुत लाजवाब अंदाजे बयां है आपका...मजा आया पढ़ कर...जिंदाबाद..

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  2. शब्दों की सुन्दरता दृश्य को और भी सुन्दर बना रहे हैं... बिल्कुल एक खूबसूरत पेण्टिंग की तरह!

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