नीले मूँगे-सा आसमान
ये अक्टूबर का प्रथम सप्ताह चल रहा है और हमें रात्रि में ओढ़ने के लिए दोहर की आवश्यकता पड़ने लगी है। वैसे ऐसा होना कई वर्षों से बंद हो गया था। हम पंखे ए.सी. चलाकर सोते थे। लेकिन समय ने अपनी चाल बदली तो हमारी जरूरतें भी बदल गयीं। वैसे भी जरूरतें बड़ी जिद्दी होती हैं। ये जब चाहें व्यक्ति की दिशा और दशा की धज्जियाँ उड़ा सकती हैं। बस इसी बिना पर कुछ भी छोड़ो लेकिन उनकी वक्त पर मागें पूरी करो। हमने सर्दी के स्वागत में दोहर निकाल लिए। मुझे खूब याद है अक्तूबर महीने का ऐसा मौसम गाँवों में तब होता था जब शक़्कर तीन रुपये किलो बिका करती थी और सोने का भाव पैंतीस सौ से चार हाजर रुपये हुआ करता था। जब गाय-भैंसों के दूध का व्यापार नहीं होता था। लोग वाशिंग पावडर से दूध बनाकर बचपन को अपंग नहीं बनाते थे। मतलब पैसों की खनक ने लोगों को अँधा नहीं बनाया था। भोर होते ही गाँवों में लोग एक दूसरे से सच्ची मुस्कान के साथ राम जुहार किया करते थे। कनेर के फूलों पर मधुमक्खियों को शहद बटोरते आराम से देखा जा सकता था। गाँव क्या शहरों में भी ये पहेली चरितार्थ होने लगती थी 'हुआ सवेरा बाजी बम्ब,नीचे बंगला ऊपर खम्भ' इस पहेली का उत्तर है (रई या मथानी) क्योंकि जैसे ही सुबह होती, दही की मटकियों में गोरस की सौंधी-सौंधी गमक उठने लगती थी। मथानी का मथने वाला सिरा मटकी में और डंडा ऊपर की ओर नाचने लगता था। छोटे बच्चों के लिए यह दृश्य कम मनभावन नहीं होता था। गोरस मथती माँ, दादी ,चाची और ताई घूम घूम घूमर-सा नाच करती थीं। शहरी घरों में भी गृहणियाँ स्टील के डिब्बों में दही से मक्खन निकालने का कार्य करती थीं। गाँव में मिट्टी के ताजे पोते चूल्हे जलते तो शहरों-कस्बों में कोयले और बुरादे की लिपी-पुती अंगीठियाँ गली में सुलगने लगती थीं। हर ओर चहल-पहल के साथ घरों से सुबह-सुबह घर्रमर्र की समृद्धशाली ध्वनियाँ फुट पड़ती थीं। उस समय अक्तूबर की सुबहें इतनी ठंडी हुआ करती थीं जितनी आज हमको प्रतीत हो रही हैं। माँओं की पतली-सी शालें बाहर निकल आती थीं लेकिन समय की चाल मनुष्य की हर चाल पर भारी पड़ती चली गयी। हम स्पातिये होते चले गये। हमारे देखते-देखते हर विनम्र नज़ारा काठ का होता चला गया। जो कुछ कोमल कान्त था हमारी आँखों से ओझल होता चला गया और हम रह गए ठनठन गोपाल।
अब हमारे सामने धोखेबाज समय ने अपने हाथ-पाँव पसारने शुरू कर दिए थे। जो मिले अपने कब्जे में ले लो। ये छीना-झपटी हथियाने से तंग आकर आज हम एक सूक्ष्म जीवाणु के चंगुल में आ फँसे हैं। “अब करो बेटा मनमानी, भरो उड़ान बेतुकी ऐसा करते हुए अगर चित्त न गिरो तो नाम बदल देना हमारा।” जैसे कोरोना ताल ठोंक-ठोंक कर हमें ललकार रहा है और एक हम हैं कि घरों में छिपे बैठे हैं क्योंकि आप कितने भी जिद्दी और चालू क्यों न हो, वक्त की चाल के शिकार बने बिना कहाँ बच पाओगे? समय-शिकारी बहुत ही चालाक है। मिट्टी की ढेली यदि वर्षा से अकड़ दिखाए और पंगा लेने की कोशिश करे तो आप खुद ही जान सकते हो उसका हाल क्या होगा। बहुत अकड़ेगी तो अपने आकार- प्रकार की बिना पर दो से चार, दस दिनों में अपने अस्तित्व को बचा पाएगी।
बहुत दिनों बाद अक्तूबर की सुबह, साँझ के लिए रेशमी शाल लेकर आया है। उपहार किसे पसंद नहीं होता। काल की इस बिहंगम चाल पर प्रकृति भी मोहिनी बन बिहंस रही है। ठीक उसी तरह जैसे हम विज्ञान की दुहाई देते-देते उसकी कारीगरी पर अपना तन-मन-धन वारते-वारते यहाँ तक पहुँच चुके हैं, जहाँ मौसम कब अपना पहलू बदल लेता है, हमें पता ही नहीं चलता। हम बस पहियों पर सवार हो दौड़ रहे थे। सच कहें तो शहरों में तो हमारे लिए सदा गर्मी का ही मौसम ज्यादा दिखाई पड़ता था। फिर चाहे परेशानियों का ताप हो,प्रतिस्पर्धा का बुखार हो या मौसम की मार,पिसते मनुष्य और उनके साथ अबोले जीव ही हैं। गुनाह करने वाला पिसे तो एक बात लेकिन गुनाह न करने वाला भी जब चक्की के पाटों के तले आ जाता है तो एक बारीक-सी चीख हृदय से अनायास ही उठती है। किसी ने सही मुहावरा बनाया होगा,"गेहूँ के साथ घुन का पिसना" गनीमत है इस कोरोना काल ने कुछ तो अच्छा किया। कुछ तो बदलाव दिखा। कम से कम इस ने आधी दुनिया का छीना हुआ सुकून उसको वापस तो लौटाया है। प्रकृति को देखकर लग रहा है कि देर से ही सही शबरी के घर राम पहुँच ही गए। आसमान से ओस झरने लगी है। मलय समीर के औषधीय झोंकों ने भोर को निरोगी बना दिया है। पेड़-पौधों की अतृप्त आँखों में ओस पड़ने से उनकी दृष्टि लौट आयी है। फूलों के चेहरे दमक उठे हैं। डालियाँ अल्हड़ बालाओं की तरह मनमौजी हो गयी हैं।
बगीचे के पास से
गुजरने पर बिन माँगे ही पुष्प अपनी खुशबू हम पर लुटाने लगे हैं। जहाँ माली की
कैंची दिन-रात पौधों को आकार देने में लगी रहती थी और मौसम के अनुरूप डालियों को
रंगने के लिए पत्ते जद्दोजहद कर उनको दो से तीन दिनों में रंग पाते थे अब ऐसा नहीं
है। इधर माली की कैंची शांत हुई उधर पत्तियाँ दौड़ पड़ी ठूंठों को रंगने। कटिंग के
बाद अब पौधे सजे सँवरे बिल्कुल स्कूल जाते बच्चों से लगने लगे हैं। जहाँ एक तरफ
दर्द है, अकेलापन है, वहीँ दूसरी तरफ़ मौसम
का जादू है। प्रकृति की निर्मलता है। लेकिन हम अभी भी पहले की तरह ऊहापोह में फँसे
हैं। न सुख का आनन्द उठा पा रहे हैं और न ही दुःख को पूरी तरह से समझकर उससे
सुलझ पा रहे हैं। विश्वास नहीं होता कि पिछले सात महीनों की कैद में
हमने उफ़ तक नहीं की। दुनिया ने अपने ही तरीके से हमें जीना सिखाया है। इन दिनों हम
रुके हैं लेकिन कुछ है जो निरंतर चलायमान है। सही कहा है किसी ने कि ये दुनिया है
भाई! इसके चक्कर में न पड़ो नहीं तो चक्कर खा जाओगे लेकिन इससे होड़ नहीं लगा पाओगे।
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बहुत लाजवाब अंदाजे बयां है आपका...मजा आया पढ़ कर...जिंदाबाद..
ReplyDeleteशब्दों की सुन्दरता दृश्य को और भी सुन्दर बना रहे हैं... बिल्कुल एक खूबसूरत पेण्टिंग की तरह!
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