कविता अनन्य अनुगूँजों का एक विशाल पुंज है

रचना उत्सव का अक्टूबर अंक 34 हमारे हाथ में है। पत्रिका का जैसा नाम वैसा ही काम।वाकई में किसी कवि की रचना उसके अंतस के उत्स से फूटती है और "रचना उत्सव" उसको अपनी गोद में सहेजकर काव्य प्रेमियों तक जस की तस पहुँचाने का कार्य बड़े स्नेह से करती चल रही है।इस काव्यात्मक पहल के लिए अमृता जी बधाई के पात्र हैं ।अक्टूबर माह का अंक हमारे लिए इसलिए और मानीखेज़ हो चुका है क्योंकि इस अंक में काव्य की बारीकियों को समझने वाली धैर्यशीला डॉ.रंजना गुप्ता जी के द्वारा काव्य को समर्पित काव्यमयी सुबोधिनी पहल की गई है। सृजनधर्मियों को एक माला में पिरोने का कार्य किया गया है । आप का ये कार्य निश्चित ही सहेजने,वर्णन करनेऔर उल्लिखत करने योग्य है ।आज का सबसे बड़ा रोग "हमसे अच्छा कोई नहीं" के भाव को एक तरफ धकेलते हुए उन्होंने समकालीन महिला गीतकारों को एक धागे में गूँथा है । मेरे लिए उनका ये स्नेहखुशबू की तरह हृदय पर अंकित हो चुका है। ऐसा नहीं कि वे मेरी जानकर हैं,प्रिय हैं बल्कि ये बात इसलिए कह रही हूँ कि इस चालबाज समय में भी उनको एक तटस्थ सृजनधर्मी के रूप में देखा जा सकता है।

उनकी प्रतिक्रियाएँ किसी के चेहरे को नहीं मिलती ,कविता को मिलती हैं। वे किसी गुट का हिस्सा नहीं इसलिए उनसे बात करने में मुझे कोई संकोच नहीं होता उल्टे सहूलियत ही मिलती है । सादा जीवन उच्च विचार वाली युक्ति आप के लिए सटीक बैठती है ।कविता हो या गीत जब किसी व्यक्ति के मन को गहराई से छूता है, तो ऐसा ही होता है । व्यक्ति भीतर से संसार के मायावी सारे बंधनों से निरपेक्षता बनाता हुआ चलने लगता है। उसका मन एक नहीं, अनन्य अनुगूँजों का विशाल पुंज बन जाता है ।कविता का सफ़र खुद को मिटाने का सफ़र है। कबीर की बनाई पगडंडी है जो अति सँकरी है लेकिन जिसने इस पर स्वयं को साध लिया, तो धरती बनकर अपने में आकाश समेटने की प्रक्रिया की शून्यता में वह स्वतः ही रमने लगेगा । वो अलग बात है कि कौन कितना अपना आपा कविता को सौंप पाता है और कौन कविता की राजनीति में फँसकर अपने को अनुभूतिशून्य बनाता जाता है ।खैर..!

कविता के प्रति सभी के अपने-अपने विचार और मायने होते हैं क्योंकि कविता किसी किसान के द्वारा बनाई गई सीधी हराई नहीं है अपितु जल की वह तरंग है जो रचनाकर के स्व को उसके होने भर तरंगित करती है । जिसका जितना मन का मानसरोवर होगा उसको उतनी ही काव्यात्मक तरंगें प्राप्त होती चलेगीं। कविता एक टंकार है जो आत्मा की प्रत्यंचा से निकलती है| अंत में सभी रचनाकारों को बधाइयाँ!!

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कविता का वितान असीमित

कविता का वितान असीमित होता है, तान-तान कर भी कवि इसे पूरा नहीं तान पाते हैं क्योंकि ब्रम्हांड में कविता एक अघोषित गूँज है जो समस्त संसार की गतिविधियों में गहराई से व्याप्त है | जिसकी समीक्षा सिर्फ़ त्रिदेव ही जीवन के रूप में कर सकते हैं | हम अपने शब्दों में उसी को कविता कहते हैं। ईश्वर अपनी कविता के बिम्ब-प्रतिबिम्ब समझने की अक्ल किसी-किसी को ही समझ देता है | इस दुनिया के देखे-अदेखे सभी मूल्यों की अपनी एक गझिन कविता है। बच्चे के रोने से लेकर सन्नाटे तक।  बर्फ़ पिघलने से लेकर समुद्र की विशाल लहरों तक चारों ओर कविता ही कविता हरसिंगार के फूलों-सी बिखरी पड़ी है, फिर भी कविता चितवन नहीं है। तो फिर क्या है कविता ? जब ये सवाल हमारे सामने आकर अड़ जाता है, तो एक ही बात पर मन अटक जाता है कि जो चितवन और दृश्य के बीच आविद्ध अव्यक्त सौंदर्य है, जिसका बखान करने के लिए हमारे पास शब्द चुक जाते हैं शायद वही कविता है और उस तथ्य को पकड़ने वाला ही कबीर,तुलसी,कालिदास और मीरा बन जाता है।

हम आज के इस्पाती युग की बात करें तो भावनाओं के साथ-साथ कविताएँ भी लोहे सरीखी लिखी जाने लगी हैं| जो न खुद में तरल है न पढ़ने वाले को तरलता प्रदान  करती हैं| आज के कवि की पहली चुनौती संवेदनशील बने रहना है| कवि को एनी जनमानस से अतिरिक्त भावुक होने की जरूरत है। तभी वह इस पाषाणी युग की परतें उधेड़ सकेगा | लोक जीवन को पढ़ने की जरूरत है। कविता हो या गीत या फिर कहानी ही क्यों न हो रचने वाले को लोक में घुसना ही पड़ेगा क्योंकि कविता का कच्चा माल वहाँ से ही प्राप्त होगा |लोकव्यापी अनुभवों को जब वह कलमबद्ध करेगा तभी किसी की अंतस चेतना पर असर पड़ेगा । सवाल ये उठता है कि इस पूँजवादी समाज में आख़िर कविता की आवश्यकता ही क्या है? तो प्रश्न के साथ ही समाधान उदित होता है कि जैसे हमें जन्म लेने के लिए एक माँ की जरूरत पड़ती है क्योंकि पिता पालन-पोषण कर सकता है लेकिन जन्म नहीं दे सकता । ठीक उसी प्रकार इस मर्महीन सामाजिक शोरगुल में हमें मनुष्य बनाये रहने के लिए ईश्वर ने कविता रूपी रसायन हमें सौंपा है| कविता की रचना करने की विधि क्या होनी चाहिए निम्नलिखित कथन से मैंने बेहतर समझा जा सकता है|

केदारनाथ सिंह जी ने रिल्के को उद्धृत करते हुए लिखा है | रिल्के का कथन, “मात्र एक कविता लिखने के लिए यह आवश्यक है कि हम बहुत से नगरों और बहुत-सी चीजों से  परिचित हों | बहुत से पशुओं, पक्षियों की उड़ान तथा उन सूक्ष्म भंगिमाओं से परिचित हों जिन्हें एक छोटा-सा फूल खिलने से पूर्व सूर्योदय के प्रति व्यक्त करता है | स्मृतियाँ ही काफ़ी नहीं हैं |यह भी आवश्यक है कि एक कलाकार उन तमाम स्मृतियों को विस्मृत कर सकने की क्षमता भी रखता हो और साथ ही साथ यह धैर्य भी कि उनके पुनः लौट आने तक उनकी प्रतीक्षा कर सके क्योंकि मूलतः स्मृतियाँ ही काम आती हैं- लेकिन तब जब वे हमारे रक्त में घुल-मिल जाएँ, हमारी दृष्टि और क्रियाओं से एकाकार हो जाएँ और एक ऐसी नामहीन अवस्था में पहुँच जाएँ; जहाँ से उन्हें हमसे विच्छिन्न नहीं किया जा सकता | उसी दुर्लभ क्षण में किसी कविता के प्रथम शब्द का जन्म होता है

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Comments

  1. कल्पना जी बहुत सूक्ष्म अंतररंगों को कविता के मायने के रूप में आपने प्रस्तुत किया ...सच कविता विरूप दुनिया को ..कलुषित मनों को सुंदर बनाने के लिए लगातार प्रयास रत है और इतना ही जुनून चाहिए हमें कविता रचने के लिए भी ..भावुक किंबहुना अतिशय भावुक मन कविता तक जितनी सरलता से पहुँच जाता है ...कठोर और परतों वाले मन के लिए ये सरल साफ़ कविता उतनी ही अबूझ पहेली है
    साधुवाद साभार कल्पना जी सदा यशस्वी हों��������

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  2. आप का स्नेह मेरी पूँजी है दी! सादर आभार !

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  3. बढ़िया विवेचना

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