ये तेरा घर ये मेरा घर

 

घर का सपना कौन जीव नहीं देखता होगा? इस पृथ्वी पर हर जीव अपनी कुटिया अपने हाथों तीरना चाहता हैबड़ी आकाशीय छत के नीचे अपनी नन्हीं सी छत। जिस पर खड़े होकर जब पुरवा अपनी बाहों में उसे भर लेती है तब बनाने वाले को अपनी अट्टालिका इन्द्रासन से कम नहीं लगती। हाँ कुछ अपवाद भी हैं जो किसी दूसरे के बने बनाये घर में साधिकार घुस जाते हैं। वे हवा इसलिए नहीं खाते कि कहीं देख न ले उनकोवैसे भी घातक का चेहरा सुकोमल होता भी कहाँ है! विश्वाश नहीं है तो किसी चूहे से पूछकर देख लो। उसके बिल को अपना महल बनाकर नागदेवता कभी कभी तो मालिक को भी हजम कर जाते हैं। हाँ, बंदर इतना निर्मोही नहीं होता।  वह किसी के घर पर कब्जा नहीं करता बस समाने वाले के घर उजाड़ देता है। बंदर चाहता है कि जैसे वह किसी भी पेड़ के तने से उदक कर या डाली से चिपक कर सो लेता है, उसी प्रकार गौरैया भी रहे। वह बिना उसकी परवाह किये उसका घोंसला उजाड़ देता है। जबकि गौरैया के बच्चे बंदर ये मत करो मामा बंदर मामा... कहते रह जाते हैं, और आप महाशय दांत दिखाकर नौ दो ग्यारह हो जाते हैं गौरैया बहुत देर तक चिचयाती है और फिर से तिनके जुटाने लगती है और बंदर जैसे प्रेम में पड़ता है वह घर के फेर में पड़ जाती है। आकाश मार्ग से गुजर रही बया की दृष्टि जब बाग़ के झुर्पुत में पड़ती है तो अपनी उड़ान नीचे ले आती है। बया गौरैया से पूछती है लेकिन वह कहती है। 

"भले मैं आपके जैसा हवादार घोंसला न बना पाऊं लेकिन बनाऊंगी खुद क्योंकि मैं ये चाहती हूँ कि हमारे बच्चे खुद्दारी से जीना सीखें।" गौरैया की बात सुनकर बया बंदर की ओर देखती है जो नीबू के पेड़ के पास बैठकर घास की जड़ों की मिठास चूस रहा था

"मैंने सुना है कि संगत से जीव बदल जाते हैं।तुम्हारा बसेरा इस गौरैया के साथ कई वर्षों का है, तुम क्यों नहीं बदले।" बया ने बंदर की ओर लानत भरी निगाह से कहा

"तुझ से किसने कहा कि मैं गौरैया के साथ हूँ। मैं तो मनुष्यों के साथ रहता हूँ इसलिए ऐसा हूँ।" बंदर ने हँसते हुए गीली मिट्टी पर लोट लगा दी। बया को देर हो रही थी सो वह फुर्र से अपने वन की ओर चली गयी

आप ने भी देखे होंगे बया के घोंसले। हमने भी देखे हैं, इनके घोंसलों को नज़दीक से एक बार नहीं बार -बार। चिर्रो का घोंसला एक गहरा तिलिस्म है मेरे लिए ।आप सोच रहे होंगे ये चिर्रो कौन है ? तो आपको बतादूँ चिर्रो माने बया। मेरे शब्दकोश में बया का निकनेम "चिर्रो" है इसलिये चिर्रो कहकर ही मैं इसे दुलराती हूँ। बया का घर हो या हम इंसानों का जब किसी के घर की सुन्दरता को देखना हो, तो अपनी दृष्टि से नहीं घर वाले की नज़र से देखने पर ही उसका परिवृत्त ज़्यादा समझ आता है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए जावेद अख़्तर साहब ने क्या खूब गीत लिखा है। "ये तेरा घर ये मेरा घर, किसी को देखना हो गर तो पहले आके माँग ले,मेरी नज़र तेरी नज़र" इन्हीं चिड़ियों की तरह मैं भी अभी तक शहर-शहर अपने घोंसले बनाती-मिटाती चलती आ रही हूँ । चाहकर भी एक स्थान को अपना निज नहीं बना सकी हूँ। पूछने वाले कभी-कभी पूछते हैं| ‘आपको बुरा नहीं लगता यूँ भटकने में' कई कहते हैं “ये क्या है? नौकरी है या बंजारापना ?” हो सकता है वे सही कहते हों लेकिन इस बंजारेपन ने ही हम जैसों को नई वस्तु,व्यक्ति और परिस्थितियों को स्वीकारने की अद्भुत क्षमता दी है| जहाँ व्यक्ति अपना टेलर, धोबी और सब्ज़ी वाला तक बदलने में सकुचाते हैं वहीं हम हवा-पानी से लेकर सब कुछ बदलकर नये होते रहते हैं |खैर..!

हमारे लिए घर जमाना वैसे ही होता रहा है जैसे छोटे बच्चे का ककहरा सीखना । जब तक वह उसे सीख नहीं पता तब तक ककहरे के नाम से दूरी और जब सीख लेता है तो उसकी जुबान से कहाँ उतर पाता है लेकिन मेरा स्थान परिवर्तन का भाव सीखे हुए ककहरे जैसा कभी हो ही नहीं पाया। हम तो नए स्थान को अपनाने और छोड़ने का दंश अपने हृदय में सहेजे हुए चलते हैं। जमी जमाई एक-एक वस्तु को उठाना और नये सिरे से उसे जमाना। नये शहर की मिट्टी से तालमेल बैठाना, उसके रूखे हाव-भाव झेलना आम बात है हमारे लिए। यहाँ तक बदले हुए घरों की छतें कई-कई दिनों तक अपनी नहीं होतीं और जब हो जाती हैं तो सुकून से भर देती हैं । उन्हीं दर-ओ-दीवारों को जब छोड़ने की नौबत आती है तब लगता है कि देह से चमड़ी खींची जा रही है। हमारी परिस्थियाँ हमको अपनी ओर खींचती हैं और घर के ओने-कोने अपनी ओर। उस दर्द को हम लोग तब और बढ़ा लेते हैं जब उस घर की बालकनी या किचन गार्डन में अपनी पसंद के पौधों को उगा लेते हैं। शहर बदलते हुए जब पौधे छूटते हैं तो लगता है अपनी गोद के बच्चे को अंजान हाथों में छोड़ने का अपराध हुआ जा रहा है|

नए शहर में पहला कदम रखो तो लगता है किसी अजनबी के घर हम ज़बरन ही घुस आए हैं । हमारी आँख बचाकर उस घर की दीवारें ऐसा मुँह बिचकाती हैं कि मन भांय भांय बज उठता है ।बचपन वाला घर याद आने लगता है | ससुराल वाला स्थाई पता अचानक प्रिय लगने लगता है | वहाँ की इंच इंच जगह परायेपन से भरी होती है । वैसे हम स्त्रियों के लिए ये कोई नई बात नहीं है। हमको तो सदैव बदलाव के लिए तैयार रहना, ईश्वर के द्वारा निर्विरोध आदेश है। उसपर पति यदि तबादलों के साथ अर्थोपार्जन करता हुआ मिला तब समझो सोने पर सुहागा हो गया। झेलो बेटा।

हमें सारे देवताओं को पीछे छोड़कर स्थान देवता की पूजा करनी पड़ती है । वो भी एक बार नहीं,बार-बार| वैसे चिड़ियों को भी बदलावों का कम दुःख नहीं झेलना पड़ता होगा। उनकी हर सन्तति के जन्म के साथ नया घोंसला बनाना। हर नए घोंसले के साथ नया बाग,नया वृक्ष,नई जगह और नए खतरों को चुनना और उनके बीच सामंजस्य बनाना। क्या उनके मनोबल का ही पर्याय नहीं कहा जायेगा| वे अपने घर के साथ-साथ जब पत्तियों की हरियाली के बीच अपने कर्मों का ललछौंहापन मिलाती हैं तो उगता-ढलता सूरज भी आकर्षित होकर उनसे थोड़ा-सा लाल रंग माँगने उनके द्वारे पहुँच ही जाता है। पंछियों के मन जैसी पारदर्शिता की प्रशांति कहाँ है हमारे पास? वे तो वसन्तहीन होते वातावरण में भी अपनी जिजीविषा त्यागते नहीं हैं। आत्महीना प्रकृति के मन में प्रतिदिन वे एक नई आशा का सितारा टाँक ही देते हैं।

घुमक्कड़ी नौकरी-पेशा वाले लोगों को ये हुनर शायद बया जैसे जीव से ही मिला होगा। वे लगातार शहर-दर-शहर अपने स्थान तो बदलते रहते हैं लेकिन बतकही अपने निजत्व से ही करते चलते हैं। एक तरह की वासन्ती श्लेषात्मकता अमूर्त रूप से उनके मन को घेरे रहती है। वे अपने बदलावों के परिवृत्त में ऊबते-चूभते बिल्कुल नहीं हैं।“ऑल इज वेल” वाला वाक्य उनके जीवन का प्रथम वाक्य बन जाता है, माँ शब्द के बाद | हम जब तबादले के 'मोड' में आते हैं तो भूत-भविष्य का आर्तनाद सिर चढ़कर बोलता है लेकिन फिर भी कोई भी द्वन्द्व हमारे वर्तमान की दिशा भंग नहीं कर पाता। ये फ़ौलादी इरादे भी हमें उन पंछियों से ही मिले हैं जो कुछ समय के अंतराल में अपने स्थान बदल कर मौसम और प्रकृति को धता बताते रहते हैं। वे करें भी तो क्या यही उनके जीवन का अंतिम सत्य होता है।

***

 


Comments

  1. यह तो अच्छा है कि नई जगह, नए लोग, नया वातावरण, नया परिवेश, सब कुछ नया नया मिलता रहता है। लुत्फ़ उठाइए।

    ReplyDelete
  2. आप की उपस्थिति प्रिय लगने लगी है । बहुत शुक्रिया मित्र शबनम 💐💐

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

एक नई शुरुआत

आत्मकथ्य

बोले रे पपिहरा...