जीवन के गाढ़े रंग



शारदीय नवरात्रियों के पवित्र दिन चल रहे हैं। इन दिनों हवा भी गंगा स्नानकर चलती है। बेसाख़्ता पौधों पर फूल खिले हुए हैं। मन की खुशी सब ज़ाहिर करते हैं ,पंछी भी। गुमसुम दिखने वाले कबूतरों की गोल आँखें भी आजकल कानों की ओर खींची-सी दिखाई पड़ती हैं। मानो वे भी हँसकर पर्यावरण की निर्मलता का जश्न मना रहे हों । चारों ओर हवा में हवन सामग्री की सुगन्ध फैली रहती है। माता के भजन तो नहीं लेकिन 'अम्बे तुम हो जगदम्बे कालीजय दुर्गे खप्पर वालीतेरे ही गुण गायें भारतीओ मैया...।" आरती की धुन कभी-कभी हवा की छन्नी से छनकर मेरे कानों तक पहुँच जाती है । मेरी बालकनी में एक कबूतर के जोड़े ने अपनी जचकी फैला रखी है। आते-जाते मैं भी उनकी खुशी में शरीक हो जाती हूँ । नवांकुत के आने की खुशी हम इंसानों को ही हर्ष प्रदान नहीं करती,उन दोनों कबूतरों के चेहरों पर भी साफ़ देखी जा सकती है। औलाद शब्द न जाने अपने भीतर कितनी मिस्री के भाव समेटे होते हैं। बालकनी के कोने में घोंसले पर रखे दो अंडों पर बैठ कर उनको कभी पतली गर्दन गढ़े रंग वाला कबूतर सेयता हैतो कभी मोटी गर्दन हल्के रंग वाला कबूतर बड़े रोब में सेयता है। उसके हाव-भाव पिता जैसे ही जान पड़ते हैं। जिन पंछियों को साधारण कभी अपनी गुटरगूँ से फुरसत नहीं मिलती थी वे आज बड़े शांत और मौन भाव से अपनी-अपनी ड्यूटी में तल्लीन दिखाई पड़ रहे हैं । कर्तव्यबोध का सच्चा दृश्य मेरी आँखों के सामने फलता-फूलता दिख रहा है ।

वैसे तो इन पंछियों को ज़्यादा किसी चीज़ की आड़ लेकर या कहीं भीतर घुसकर अपना घोंसला बनाते नहीं देखा जाता है,ये तो बस आड़ी-टेढ़ी बीस-पच्चीस लकड़ियाँ जुटाकर अपना घर बना लेते हैंवो भी बिल्कुल खुली जगहों पर । मेरी बालकनी में भी एक कोने में कबूतर ने दो अंडे दिए हुए हैं। नवरात्रियों की वजह से हमारी सहायिका घर सफाई का कुछ ज़्यादा ही ध्यान रखती है । उसी के चलते आज सिरे से बालकनी की सफाई का अभियान उसने छेड़ा हुआ है। वो अपने काम में व्यस्त हो गई और मैं अपनी स्टडी में आ गयी। थोड़ी सी हिदायत देते हुए, "हमारी बालकनी में कबूतरों ने अंडे दिए हैं। उनको क्षति पहुंचाये बगैर काम करें तो अच्छा होगा ।" अभी थोड़ा ही समय बिता था कि अचानक वह दौड़ते हुए फ़िर मेरे पास आ गई और बोली मैमएक बार आओ तो देखोकबूतर ने एक घोंसला प्लाई के पीछे भी बनाया है और उसी में आपके दो मास्क भी बिछे पड़े हैंजो आप कई दिनों से ढूंढ रही हैं । मैममुझे लगता है कबूतर उसके पास नहीं जाता है क्योंकि घोंसले पर धूल जम चुकी है और अंडा भी बेतरतीबी से लुढ़का पड़ा है। एक साँस में उसने ढेर सारा कौतूहल मेरे मन में भर दिया । दौड़कर जाकर देखा तो सच में एक घोंसले में मेरे दो कॉटन के मास्क जो धोकर सुखाए गए होंगे और उन्हें उपयोग में ले लिया गया था।खैरये बात इतनी आश्चर्य की नहीं थी मेरे लिए ।आश्चर्य तो मुझे ये देखकर हो रहा था कि एक अंडा लावारिस पड़ा था और उसके एक मीटर की दूरी पर दो अंडे माता-पिता के द्वारा सेये जा रहे थेतो क्या ये दूसरे कबूतर पंछी का अंडा है ?

यदि है भीतो उसको यूँ छोड़कर वह उड़ क्यों गयाया फिर सामने बैठे उन्हीं कबूतरों का है...।जहाँ हवा,धूप,दिन-रात दोनों जगहों पर बराबर मात्रा में जाते -आते हैं लेकिन एक जगह सघन उदासी का डेरा है और एक जगह नेह की उल्लसित गुनगुनाहट... क्यों

क्या सामने बैठी माँ ने अंडे को त्याग दिया हैक्या इसमें कोई बीमारी लग चुकी हैजबकि इसको किसी ने छुआ तक नहीं था । अभी मैं उस अकेले पड़े अंडे को ध्यान से देख ही रही थी कि मन में ममता उमड़ने-घुमड़ने लगी। माँ तो माँ होती है इसी बिना पर न जाने कैसी-कैसी गोया ममता भरीं हिलोरें मेरे मन को भिगोने लगी थीं । कई एक प्रश्न मन में बजने लगे। क्या इस अंडे में कुछ ख़राबी हैक्या इसमें बच्चा बनने की संभावना नहीं हैकबूतरी माँ इतनी निष्ठुर क्यों हो गयी हैजो उन दो को छाती से लगाये बैठी है और ये पड़ा है बिना किसी के जैसा।

या जो उड़ गई है इसे छोड़कर वह लौटी क्यों नहीं ? क्या किसी शिकारी के हत्थे चढ़ गई होगी ? या जानबूझकर उसने ये कदम उठाया है ? इसी जगह यदि हम इंसान होते तो क्या छोड़ते या समाज हमें छोड़ने देता इस प्रकार अपने बच्चे को ? हम तो लायक हो या नालायकजीवन पर्यंत अपनी ज़िम्मेदारी समझते हैं औलाद के प्रति। कहाँ छोड़ पाते हैं हम,अपने बच्चों को। ये कुछ ऐसे प्रश्न-उत्तर थे जिनके उचित जवाब-सवाल मेरे पास नहीं थे। मन उदास हो चला था। ये कैसा नियम है प्रकृति का।ये किसको क्या सिखाती हैपता नहीं चलता। अभी भी दोनों की स्थिति पहले जैसी ही है ।सहायिका को बालकनी जैसी हैवैसी ही पड़ी रहने दो। कह कर मैंलौट आई हूँ अपने कक्ष में लेकिन मन अशांत है। मन की अशांति पानी की अशांति की तरह नहीं होती जो सबको तरंगित होते हुए दिखाई पड़ेगी।मन उसी को आंदोलित करता है जिसका वह होता है । 

***

१९.१०.२०२० 

 

 

Comments

  1. कभी-कभी कुछ घटनाएँ मन को उद्वेलित कर देती हैं। उस अकेले अंडे का क्या हुआ होगा, बार बार यही सोच रही हूँ।

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

एक नई शुरुआत

आत्मकथ्य

बोले रे पपिहरा...