आँसू बहाने वाली चिड़िया

वह भाग रही थी तुड़वाकर रस्सी

कई जन्मों से  

आधे अपंग जीवन की तपस्या का ही फल थी 

उसके दौड़ने की सहज-सुगम सजगता भरी रफ़्तार 

मैदे जैसी मिट्टी से भरे रास्ते पर

पतझड़ के पत्ते-सी लुढ़क रही थी वह 

आनन्द की सूजी मुंदी पलकें लिए  

किन्तु वह महसूस रही थी अपना समूचा वजूद उसमें 


उसे देखकर यूँ मन में फ़ूला-फ़ूला  

फूल पड़ीं थी सूखीं लताएँ बेमौसम

हवा लटक-लटककर डालियों पर

गा रही थी बरसात में वसंती गीत उसके लिए 

हिमालय की चोटियों ने कर दिया था

बर्फ़ का सीना चाक


अचानक दहाड़ने की आवाज़ें पसरने लगी

शांत वातावरण की धड़कन भेदती हुई 

उसके इर्दगिर्द 

सूखी पुलिया के कानों से फूट पड़ा 

गर्म जल का सोता 

सिकुड़ गये चौड़े रास्ते कछुए-से

अपने भीतर 


माँ की गोद में बिलख पड़ा दुधमुँहा

किसी बीज में अँखुआया था जो पल लौट गया 

बीज की आत्मा की ओर  

उसके पीछे दौड़ती-हाँफती भीड़ में से 

चिल्लाया था फिर कोई

"जिसके हाथ लगे पकड़ लेना मज़बूती से उसको

किसी भी कीमत पर भागने न पाए"


किसको पकड़ा जाएगा?

किसने कहा था ये अधम वाक्य?

किसकी रस्सी थी जो टूट चुकी थी?

और कौन था जो तुड़वाकर भाग रहा था ?

किसने बाँधा था उसको ?

और क्यों बंध गयी थी वह ?

जो आज नौबत आ गई रस्सा तुड़वाने की


सवालों के सैलाब में बहता देख खुद को 

चिड़िया घबराई और टपक गया उसी घबराहट में 

आँख से एक आँसू

दौड़ने वाली नहीं सम्हाल सकी 

अपनी आँख का आँसू 


उसने किया इशारा पलटकर

तो एक इशारे पर मुड़ गईं दिशाएँ और भीड़ 

जो बनी थी अभी तक दुश्मन उसकी 

दबोच लिया उसको

जो चिल्ला रहा था पकड़ो, पकड़ो, पकड़ो

जो भाग रही थी अभी तक बेखौफ़-बेसाख़्ता 

अपनी ही रौ में 

किसी की अनचाही-अबूझी मदद से

हो गयी पल में गुमराह और भूल गयी मंज़िल  

 

ये कौन था मददगार ?

जिसने पकड़वाया था चिल्लाने वाले को

और बिंध गयी थी भागने वाली

उसकी फैंकी अदृश्य रस्सियों के जाल में 

क्या भीड़ का उछाला हुआ छल थी  

आँसू बहाने वाली चिड़िया


एक जाग्रत चिड़िया ने किया सवाल

दूसरी डाल पर बैठी सजग चिड़िया से

वे दोनों बाँटती रहीं आपबीती 

करती रहीं इंतज़ार देर रात तक उसका 

दौड़ने वाली नहीं लौट पायी 

फिर कभी अपने आपे में 

जिन्दगी रह गयी हाथ मलते |

*** 

Comments

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (१९-१०-२०२०) को 'माता की वन्दना' (चर्चा अंक-३८५९) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    --
    अनीता सैनी

    ReplyDelete
  2. बहुत बहुत शुक्रिया अनिता जी💐

    ReplyDelete
  3. स्त्री की कहानी अजब है। छल बल से एक ही जीवन वह भी यूँ मिटा दिया जाता है। बहुत सुन्दर लिखा। शुभकामनाएँ।

    ReplyDelete
  4. और क्यों बंध गयी थी वह ?

    जो आज नौबत आ गई रस्सा तोड़ने की..।
    बस बँध ही गयी और बार बार बँधती रही है अपने आप अपनी मरजी से...आज तक बँधी है ...वो न चाहे बँधना को क्या मजाल किसी की जो उसे बाँध पाये...
    बहुत सुन्दर सृजनः

    ReplyDelete
  5. सोचने पर मजबूर, सुन्दर सृजन

    ReplyDelete
  6. आप सभी को कविता पसंद आई ,बहुत आभार आप सभी को |

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

एक नई शुरुआत

तू भी एक सितारा है

संवेदनशील मनुष्य के जीवन की अनंत पीड़ा का कोलाज