तुम करो मंत्रणायें जीने कीं

तुम करो मंत्रणायें जीने कीं 
हम करते हैं, प्रार्थनाओं में प्रार्थनाएँ
तुम्हारे लिए
और सोई हुई उन तमाम वीर बालाओं के लिए
जिनके चलने से स्पंदित हो उठेंगी
आत्माएँ हमारीं
तुम चलो कि तुम्हारे संग चले पड़ें
हज़ार-हज़ार सोये मन 
भरो हुंकार की जाग उठे
हठी स्त्री की नींद में समोया रहने वाला
जिद्दी आदमख़ोर आलस्य
तुम देखो निगाह में भरकर
बाघिन के शौर्य को
कि छटपटा उठे मारिचिकाओं का
जल शावक
कि मिला दें अपना होना दिशाएँ
तुम्हारी दूर दृष्टि में
तुम उठाओ कदम
कि दौड़ पड़ें बिछने को कमल
तुम्हारे कदमों में
छोड़कर कमल ताल के उस कीचड़ को
जो होता होगा औरों के लिए कीचड़
किन्तु
कमल जानता है उसकी कीमत
अमृत जितनी
तुम जागोउठोभूलो अपनी देह को

जैसे भूल जाती है एक नागिन केंचुल को
कहीं छोड़ने के बाद
क्योंकि तुम सिर्फ देह नहीं 
देह के उस पार और इस पार सिर्फ़ तुम हो 
तुम्हारी देह तुम्हारे बाद है 
देह परिधान है आत्मा का
याद करो गीता के उस कथन को

तुम संसार को वैसे ही महसूस करो
जैसे करती है एक कली
सूरज के प्रथम दर्शन के समय 

तुम्हारे ध्यान में होना होगा आनन्द 
पूर्ण खिलने का
फूल ,पराग ,तितली और भौंरे
करेंगे अपना काम
स्वयं ही अपने भर
उसके लिए तुम्हें ठहरने जरूरत नहीं

तुम उठो,बढ़ो,चलो छूलो श्री शिखर को
जहाँ पर तुम रहती आई हो अपनी 
यात्रा के पहले से 

तुम्हारे नाम करते हैं हम
वे तमाम अबोध मुस्कुराहटें
जिनमें तुम दिखती हो पूनो की
चन्द्रमा की तरह दूधिया 

वे फ़लदायी मुरादें
जो भर देती हैं योद्धाओं में जीत का
अपरिमित भाव

सुहागिन की सुहाग कामनाएँ
विद्यार्थी की एकाग्रता भरा मन
जो लिया है उसने बगुले से

हिमालय की बेपरवाह अडिगता
नदियों का कोमलता भरा मगर उग्र बहाव
समुद्र का गर्वीला विस्तार

और उन तमाम पंछियों के उड़ने का हौसला
जिन्होंने धरती से ऊपर उठने की सोची थी 
उस पर आकाश का उन्हें स्वीकार्य लेने का भाव
क्षितिज का समग्र वह बोध
जिससे पंछियों को मिलती है सहूलियत
उन्हें लगती है पृथ्वी अपनी उड़ानों के नज़दीक

तुम उठो स्त्री कि हम तुम्हारे साथ हैं
और हमारे होने में सिर्फ हम ही नहीं
हमने सम्हाला है
धरती और आसमान के बीच होने वाली
हर क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं
के आवेग को

तुम जागो कवि रिल्के के जीवन में उठते
भाव-बोध की तरह
की जब तुम पढ़ी जाओ तो लग सको
कविता के प्रथम शब्द जैसी
जिसपर टिका होता है
कवि का पूरा अस्तित्व |
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