चिर सजग आँखें उनीदीं आज कैसा व्यस्त बाना...

गरमी की छुट्टियाँ जहाँ ढेर सारी मौज लेकर आती हैं। वहीं पर धुकधुकी भी कम नहीं लातीं! क्योंकि यही बोर्ड परीक्षाओं के परिणाम घोषित होने का भी समय होता है।इसी क्रम में मेरी स्मृतियों के बस्ते में एक बहुत गाढ़ा अनुभव बंद है। जो बचपन की उन गहरी यादों की थाती में शुमार है, जिनमें सुख और दुःख दोनों निहित हैं। सच कहें तो मेरा ये अनुभव आज भी उतना ही ताज़ा है जितना कि तब था, जब ये घटित हुआ था। वैसे यदि मैं कहना चाहूँ तो मेरा जीवन आज भी परीक्षाओं से रिक्त नहीं है।पलपल मेरे जीवन में अनचाहा कुछ न कुछ घटता ही रहता है। लेकिन जो बात मैं आपके साथ साझा करने जा रही हूँ वो है मेरी पहली बोर्ड परीक्षा की। मैं अपने मामाजी के घर रहकर पढ़ती थी तो जिस दिन दसवीं की परीक्षा का आखरी दिन था उसी दिन माँ के कहे अनुसार मामा जी ने मुझे अपने घर के लिए सरकारी बस से रवाना कर दिया था। परीक्षा का आखिरी दिन होने के कारण मैं जैसी स्कूल से लौटी थी वैसी ही दो चोटी किये, युनिफ़ॉर्म में आसमानी कुर्ता सफेद सलवार-दुपट्टा और काली जूतियाँ पहने कंधे पर बैग लादे अपने घर के लिए निकल पड़ी थी। परीक्षा अच्छे से पूरी होने के  कारण ख़ुशी मन को भीतर तक सुकून दे रही थी। बस में घुसते ही मैंने इधर-उधर देखा तो बड़ी मुश्किल से भरी बस में खिड़की वाली सीट ले पायी। बैग को पैरों में दबाकर दुपट्टे के किनारों से पसीना पोंछकर जैसे ही एक लम्बी साँस खींची तो बस में बैठे हुए धूल-मिट्टी और पसीने में लथपथ लोगों के कपड़ों से उठ रही अजीब दुर्गन्ध नाक में भरती हुई-सी महसूस हुई। मैंने चट से दुपट्टे को नाक पर रख अपना रूमाल खोलकर मुंह पर डाला कि जैसे मेरी सहेली बंदना गुप्ता के रूमाल से सेंट की खुशबू हमेशा आती रहती थी, मेरे से भी....। लेकिन मेरे रूमाल में कुछ भी खुशबूनुमा न लगाने की माँ की सख्त हिदायत थी तो उससे महक आने का तो कोई सवाल ही नहीं था। जब कुछ समझ नहीं आया तो मैंने बस का शीशा ही खोल लिया। मेरे इस उपक्रम से मुझे थोड़ी राहत की साँस आई। वैसे भी तब तक  दोपहर ढलान पर चल चुकी थी सो थोड़ी ही देर बाद मन में ठंडक घुलने लगी और जो कुछ बैचेनी बची थी वह भी खिड़की खुली होने के कारण हवा के झौंके के साथ रफूचक्कर हो गयी। सांवले से ठंडे-गर्म झौंके मौसम को हिलोरने लगे। मन को राहत मिलने से मेरी पलकें अधमुंदी हुईं तो पवन उनको थपकने लगा। अब सुबह जल्दी उठने के कारण नींद से मेरा सर भारी होने लगा। लेकिन "सफर में सचेतना से रहना ही हितकर होता है" माँ की बात कान में बजने लगती। उसी  बात के बिना पर मैंने अपने मन को बहलाने के लिए उसे सड़क के किनारों पर खड़े पेड़ों को गिनने में लगा दिया। पेड़ थे कि आँख मिचौली खेल रहे थे। छोटे-बड़े सारे पेड़ मानो बस के साथ दौड़ने में मशगूल हो गये थे। देखकर लग रहा था कि वे मेरी बस से होड़ कर रहे थे। ये दृश्य मेरे बचपन के रोमांचित करने वाले क्षणों में दर्ज है। 

खैर, मन में माँ से मिलने की उमंग लिए जब मैं अपने घर के आँगन-पहुँची तो मुझे देखकर माँ का मुख कचनार-सा खिल उठा।  बाकियों के लिए मैं जितनी महत्वपूर्ण थीवे लोग उतना हँसे-बोले और अपने-अपने काम में लग गए। शाम का वक्त हो, अपना आँगन और उसके ऊपर तना साँझ का पनीला आसमान साथ में दो प्रेमिल नयन लिए मेरी माँ का संग-साथ मेरे लिए किसी भावुक कवि की तरह झील का वो किनारा होता था जहाँ बैठकर वह रचना मग्न हो संसार को भूल जाता है।   

प्यार जताने का नायब तरीक़ा झट से गले लगाने का रिवाज तब शायद गाँवों तक नहीं पहुँचा था। तब लाड़ आने पर अपने बच्चों के सिर पर हाथ फिराया जाता था और बहुत हुआ तो पीठ ठोंक दी। माँ ने भी मुझे अपने पेट से चिपका लिया। मेरा बैग उतार कर किनारे रख दिया और हाथ  पकड़कर आँगन में पड़ी चौकीजिसके पाँव बालिश्त भर ऊँचे थे। उसी पर माँ की बैठकी सजती थी... बैठा लिया। बहुत देर तक मुझे देखती और सिहाती रहीं फिर ध्यान से मेरी आँखों में आँखें डालकर पूछने लगीं। परीक्षा कैसी हुईमामा-मामी को परेशान तो नहीं कियाऔर सबसे बड़ा प्रश्न परीक्षा स्थल पर नकल लेकर तो नहीं गईंउड़नदस्ता देखा? माँ के अनेक प्रश्नों में से उड़नदस्ता का नाम सुनते ही मुझे वह घटना याद आ गई जिसकी धुकधुकी आज भी महसूस होने लगती है।मेरा तीसरा पेपर थामुझे क्या पता कि परीक्षा हाल में मेरी ही बगल में बैठा हुआ एक बच्चा नकल करते पकड़ा जाएगा। उड़नदस्ता की आव़ाज कान में पड़ते ही उसने नकल के बड़े-से फर्रे का गोला बनाया और मुँह में भर लिया। थोड़ी देर में उसकी आँखें बाहर को निकने लगीं। कक्ष-निरीक्षक को लेने के देने पड़ गये। जो महाशय उड़नदस्ता बनकर आये थे उन्हीं ने उसको पानी पिलाया और परीक्षा की नोटबुक समेत उसे अपने साथ भी ले गये। ये बात सुनकर माँ भी घबरा गाई थीं।

गरमी के दिन हों और मेरे घर मेहमान न आयेऐसा तो हो ही नहीं सकता था। हमारे घर में आम,कटहल आदि के कई एक बगा-बगीचा हैं। जिन रिश्तेदारों के घर पेड़ नहीं होते थे वे लोग अचार रखने या टपका (आम) खाने मेरे घर गरमी भर आते-जाते रहते थे। आम के दिनों में बेसन की पुड़ियाँ,दाल-पीठी की कचौड़ियाँ और बेसन के चिल्ले हर दूसरे दिन बनाने का आयोजन बना रहता। दोपहर और रात्रिभोजन के साथ दस लीटर की पीतल की बाल्टी भर कर टपके भिगोए जाते थे। मज़ा तो तब आता जब सब लोग आम खाने की होड़ कर आम खा-खाकर गुठलियों के ढेर लगा देते थे। लेकिन मेरी माँ हमेशा इस प्रतियोगिता में हार ही जाती थीं। क्योंकि वे एक आम को इतने इत्मीनान से खातीं कि देखने वाले को उसके खट्टेपन का भी अंदाजा नहीं होता। माँ टपके को खूब घुलातीं फिर बहुत देर तक चूँसतीं और जब गुठली से रेसा-रेसा खा लेतीं तब उसके बाद छिलके में गुठली डालकर उसको कूड़े के तसले में फेंकतीं। उनका मानना था खुली गुठलियों पर मक्खियाँ बहुत भिनभिनाती हैं। जब तक माँ इतना करतीं तब तक दादी और बाबूजी दस-दस आम खा जाते लेकिन वे तब भी अपने तरीके से विचलित नहीं होती थीं। इसी तरह वे न ही मेरी जल्दी से तारीफ़ करती थीं और न ही बुराई। उनके जीवन जीने के इस अंदाज को मैं बहुत बुरा मानती थी जो कि बहुत दिनों बाद समझ पायी थी कि संतुलित जीवन जीने के यही लक्षण होते हैं क्योंकि मैं अपने पिता के बात- व्यवहार से ज्यादा प्रभावित रहती थी।बचपन में मैं उन्हीं जैसा बनना चाहती थी। 

आपको बतायें एक और बहुत बड़ा दुःख जो गाँव के हिस्से आता है वो सदैव मुझे खटकता रहा कि आदमी चाहे बीमार हो या बूढ़ा उसको गृहकार्यों में सहायता करके के लिए कामवाली नहीं मिल सकती। बड़े-बड़े कामों के लिए तो खेतों में काम करने वाले साझेदार,नाउन,धोबिन,मालिन आदि मिल भी जाती थीं लेकिन घर की झाड़ू,खाना और बर्तन सब कुछ घर की गृहणियों को ही बनाना-करना पड़ता था। जब गर्मियों के दिन आते तो जितना ज्यादा काम अपने साथ बटोरे लिए आते उतना ही स्त्रियाँ घमौरियों से लदकर लाल हो जाती थीं। गाँव की वे बहुएँ भले ही खुश रहतीं होगीं जिनकी सासें दयालु स्वाभाव के कारण उनका हाथ बँटवा लेती थीं। या अपने भर कार्य करने का अपना दायित्व समझती थीं। लेकिन मेरी माँ के भाग्य इसमें भी हेठे ही निकले क्योंकि जैसे ही वे चौदह साल की उम्र में ब्याह कर पिता के घर आईं उनकी सास पैंतीस वर्ष की उम्र में घोषित बूढ़ी हो खाट के जिम्मे आ गई थीं और मेरी माँ चलती-फिरती एक जीवित मशीन। जिसे थकान के बाद भी मुस्कुराना पड़ता था। क्योंक्योंकि उनकी सास को हँसती-बोलती बहुएँ ही पसंद थीं।

हर आदमी के जीवन जीने के अपने-अपने नियम होते हैंवैसे ही मेरी माँ ने स्वयं के लिए बड़े कठोर नियम बनाए थे। उन नियमों पर वे अपनी आखिरी साँस तक चलती रहीं। जैसे घर-आये मेहमान से काम की उम्मीद बिल्कुल न की जाए। चाहे उसके आने से काम के अंबार ही क्यों लग गये हों। भले ही बुरा लगे लेकिन सत्य ही बोला जाए,दूसरों की मदद उतनी ही की जाए जो वापस की चाहना न रहे और काम को काम की तरह नहीं, पूजा की तरह से ही किया जाए। इन नियमों के साथ घर में उन दिनों अमिया-टपका और अचार का काम जोरों पर चल रहा था। मेहमान भी आ-जा रहे थे।उसी बीच मेरी परीक्षा का परिणाम भी घोषित होने का दिन भी आने वाला था। सारा दिन घंटी-सी मैं माँ के आगे-पीछे दौड़ते-भागते दिन को कब लाँघ जाती पता न चलता।

उस दिन घर में मेरी परीक्षा परिणाम की खबर आने के सिवा पके हुए टपकों की चार डलियाँ खोली जा रही थीं। गाँव में जिनके पास आम्रवृक्ष नहीं थे, उनके यहाँ इक्यावन,इक्कीस या एक सौ एक टपकों के थैले तैयार किये जा रहे थे। अचार रखने के लिए सरसों दली जा रही थी। दो किलो हल्दी के टुकड़े हथचक्की से पीसने के लिए सुबह से माँ ने चकिया के दोनों पाटों को धोकर सुखा हुआ था। पीतल की बड़ी-सी परात में केशर,जावित्री,बड़ी-छोटी इलाइचीछोटी-बड़ी हर्रेंमरोरफलीधनियाबड़ी सोंफ,काला-हरा जीराकलौजी आदि आँगन में सुखाये जा रहे थे। गोल लाल मिर्च अधकुटी अलग थाल में सूख रही थी। दादी अचार के मटकों में हींग का छौंका देने की तैयारी में थीं। जिसको देखना मुझे रोमांचक लगता था।ठीक उसी प्रकार जैसे तायते में आग छोड़ता बघार को देखकर लगता था। उसी को देखने की जल्दी में मेरा पाँव मिर्च के थाल में लगा और थाली पलट गई। आँगन कम कडुवा हुआ होगा परन्तु मेरी माँ का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया। वो तो अच्छा हुआ था कि मेरी दादी की भाभी मेहमानी खाने आईं थींबस उन्होंने ने मुझे बचा लिया लेकिन इतने में बाबूजी बाहर से दबे पाँव मेरी परीक्षा का परिणाम लिए आँगन में आ खड़े हुए। जो उन्होंने गाँव के किसी लड़के को भिजवा कर दिखवा मँगवाया था। दादी ने अपने बेटे को आया देख उनपर दुलार जातते हुए मुझे आव़ाज दी,“दिखाय नई परतबाप पानी कों ठाड़े हैं।” मैं कुछ कह पाती उतने में बाबूजी ही बोल पड़े। 

कोई बात नहीं अम्मा! अब इन्हें पानी ही पिलाना है,वो भी जीवन भर सभी को। फ़ेल हो गई हैं...।” 

ठीक तो है,बा में का भवो,चिट्ठी तो लिखवो सीखई लव हुइए इन्ने अभे तक। और कराँव तो इनकों चौकई-बासन है।” 

दादी ने मेरे जैसे लघु जीव के लिए उनका बेटा परेशान न हो इसलिए निश्चिंतता का मौन पर जिन्दा संदेश बाबूजी को बातों ही बातों में पकड़ा दिया। जो माँ समेत मुझे करेंट-सा जैसा लगा। अचानक मेरे मुँह से निकल पड़ा,“मम्मी, एक बात बताऊँनवलकिशोर भैया झूठ बोल रहे हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि मैं फ़ेल हो ही नहीं सकती।” 

हिम्मत जुटाकर कहते हुए पलटी कि देखें बाबूजी का चेहरा अब कैसा बना होगा? लेकिन तब तक बाबूजी जा चुके थे। लेकिन माँ तो मेरे पास ही थी उन्होंने गुस्से से मेरी ओर देखकर कहा,”नवलकिशोर कोई छोटा बच्चा है जो झूठ बोलेगा। तुम से उसकी दुश्मनी है क्या? बस चुप रहो तुम।” माँ की बड़ी-बड़ी अग्नेय नेत्रों में ज्वाला धधक उठी थी। उनकी आँखों में मेरे लिए नाममात्र को भी स्नेह नहीं बचा था। माँ कभी किसी के सामने अपने बच्चों को डांटती नहीं थीं और अकेले में किसी भी गलती पर साधारणत: माफ नहीं करती थीं। इसलिए मौखिक गुस्से से तो मैं बच गई। किन्तु मेरे फेल होने की खबर ने मानो उन्हें आहत कर उनकी नजरों से मुझे गिरा दिया था। वे मुझे साधारण नहीं रखना चाहती थीं शायद! तभी उनका क्रोधित मौन स्वर मुझे चीखता हुआ-सा लग रहा था।  उनका चेहरा देखकर मैं डरी हुई तो थी किन्तु अपनी बात पर भी अड़ी हुई भी थी कि मैंने अपनी दसवीं की परीक्षा अच्छे अंकों से पास की है। 

वे काम करती जातीं और आँखों ही आँखों में मुझसे प्रश्न भी करती जातीं। ऐसा मुझे बार लगता कि जैसे वे पूछ रही हैं कि आखिर तुमने कैसे पढ़ाई की...जब भी मुझे उनकी चितवन प्रश्न भरी लगती तो मेरी आँखें भी उत्तर देने को आतुर हो जातीं कि मैं फ़ेल नहीं हूँचाहे दुनिया इधर से उधर क्यों न हो जाए। शायद मेरी इस धृष्टता से तंग आकर उन्होंने दो किलो हल्दी के टुकड़े जो नाउन अजिया पीसने आने वाली थीं; का पतीला मेरे हाथों में थमा दिया और कहा,“इसे पीस डालो।माँ के वचन कभी खाली नहीं जाने देने वाली मैंने दो मिनट सोचा और झट से पतीले को पकड़ लिया। चकिया के पाटों को मिला दिया गया। अब मैं अपने द्वंद्व में या चकिया न चलाने की कमअक्ल में हल्दी के चार टुकड़े उसके मुँह में डालती और गन्ना-फन्नाकर उसे चला देती। चकिया धड़धड़ा कर हल्दी उड़ाने लगी। घर के एक कोने में पीली आँघी-सी उठ चली थी।  जो मुझे सिर से रंगने लगी। 

उतनी देर घूमते-फिरते दादी ने देखा तो मुझे शऊर बताने चली आईं,“ चकिया के मुँह भर-भर कें कौर डारोजैसे अपयें मुँह डारती हों।” जब ऐसा किया तो चकिया एक हाथ से चलना बंद हो गयी अब मैंने दोनों हाथों से उसको घुमाना आरंभ किया। गरमी और परेशानी के बीच मेरा गोरा-सा चेहरा लाल टमाटर की तरह हो चला था। बाबूजी की मामी से जब मेरी हालत देखी न गई तो बोल पड़ीं,”दुल्हिनबिट्टी को अब जान देव; जाव खेलो जाय...। अब लिआव हम हरदी पीस दें।” 

अरे मामी! आप हल्दी पिसोगी? बिल्कुल नहीं। आप तो जानती हैं कि नाउन बड़ी अम्मा पिसती...। लेकिन हल्दी ही क्या अब घर के सारे काम भी ये ही करेंगी। क्योंकि इनको पढ़ना-लिखना तो है नहीं। कम से कम घर के कामों में ही निपुण बनें।” 

कल्पना मनोरमा 

दरअसल आप को बाताएं यदि तो मेरी माँ अपने जीवन को संतुलित रखने के लिए  हरिवंश राय बच्चन की कविता अग्निपथ की कुछ पंक्तियाँ अपने दिल से लगाये जीवन पर्यंत बैठी रहीं,“वृक्ष हों भले खड़े हों घने हों बड़ेएक पत्र छाँव भी, माँग मत, माँग मत, माँग मतअग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ। तू न थकेगा कभी, तू न थमेगा कभी, तू नाम मुड़ेगा कभीकर शपथ, कर शपथ, कर शपथअग्निपथ अग्निपथ…।शायद इन्हीं पँक्तियों को वे मेरे जीवन का भी पर्याय बनते हुए देखना चाहती थीं। तभी तो वे कहती थी,"अपने मन की लगाम को कसकर पकड़ कर रखो। छूट गयी तो सम्हाल न पाओगी।" 

सब जानते हुए कि माँ का ये गुस्भीसा खत्म भी होगा और मैं पढूंगी भी लेकिन मेरे बालमन पर घर गृहस्थी के कथित रूप से ही सही अचानक आए बोझ से मेरे कंधे झुके-से जा रहे थे। अपनी इस मानसिक पीड़ा में भी मैं एक ही बात की रट लगाए पड़ी थी कि किसी दूसरे को भेजकर मेरा रिजल्ट पता फिर से करवाया जाए। मेरे पास बैठीं दादी की भाभी से जब मेरा दुःख देखा न गया तो उन्होंने फाटक की कड़ी बजाकर बाबूजी को बाहर से बुलवाया और कहा,“लला एक दांय और नैक अखबार दिखवाय लेव,का पता मोड़ी सही कहत होय कि वा पास है।” बाबूजी को अपनी मामी की बात सही लगी याकि मेरी पीड़ा से वे द्रवित हो गयेउन्होंने कहा,“कल देखा जाएगा माँईं” और बाहर चले गये। दिन का किस्सा खत्म हुआ तो रात का शुरू हो गया। खा पी कर सभी छत पर सोने गये तो मैंने देखा माँ के पलंग के पास एक पतली सी बाँस की खटोली भी डाल दी गयी थी। 

माँ ये किसके लिए हैमैं तो आपके साथ ही सोती हूँ।” सोचा माँ का गुस्सा ठंडा हो गया होगा। “हाँ,सोती थीं लेकिन आज से तुम अकेली सोओगी और मैं तुमसे बात भी नहीं करूँगी।ये वाक्य उन दिनों मेरे लिए असहनीय पीड़ादायक होता था। हाँलाकि ये बात उन्होंने बुदबुदाकर ही कही थी, क्योंकि थोड़ी दूरी पर दादी की भाभी भी लेटी थीं लेकिन उनकी बात सुनकर मुझे ऐसा लगा जैसे किसी ने मुझे छत से धकेल दिया हो।इतना दुख तो हल्दी पीसते वक्त भी नहीं हुआ था जितना माँ के इस संकल्प से मुझे हुआ था। मुझे मालुम था कि जितनी वे दयालु थीं उतनी ही जिद्दी भी। बाँस की खटोली पर रोते-हुसकते आँसू भरी आँखों में धुंधले किरन फूटते तारों को देखते और शिकायत करते नींद कब आ गई पता न चला। जो माँ नित्य सुबह महादेवी की पंक्तियाँ,“चिर सजग आँखें उनींदी आज कैसा व्यस्त बाना,जाग तुझको दूर जाना...।” बोलकर जगाने वाली माँ चुपचाप मुझे बिना बताए नीचे उतर गई थी। वो तो सूरज ने जब मेरी पलकें थपथपाईं तो आँख खुली लेकिन जब मन उदास होता है, और अपना कोई रूठ जाता है तो सुनहरा दिन भी काँसे की थाली-सा ही लगता है। उस दिन का भोर भी मेरे लिए कुछ ऐसा ही था।

नीचे उतरी तो सब अपने कामों में व्यस्त थे कोई मुझसे नहीं बोला। मैंने सीधे पूजा वाले कमरे की देहरी पर माथा टेका और याद से मामी दादी को समाचार पत्र की याद दिला दी। उन्होंने बाबूजी से दबे स्वर में कह दिया तो दैनिक कार्यों से निपटकर बाबूजी ने किसी को भेजकर परीक्षाफल वाला समाचार पत्र जो बच्चों के हाथों में पड़-पड़कर बिलकुल लुचुरपुचुर लत्ते-सा हो गया थामँगवा लिया। सभी लोग घिर कर चौकी पर आकर बैठ गये। मेरा अनुक्रमांक माँ को पहले से याद था सो बताना नहीं पड़ा और वे अखबार देखने लगीं। मैं मन ही मन भगवान से प्रार्थना करने लगी,“हे भगवान मुझे पास कर देना नहीं तो मेरी माँ मुझसे कभी बात नहीं करेगी और यदि माँ न बोली तो मैं ज़िंदा भी कैसे रहूँगी।” इतने में माँ ने अचानक चौड़ी आँखों से दो बार मेरी ओर देखाअब तो मेरे प्राण पूरी तरह से सूख गये। लगने लगा क्या मैं सच्ची में फेल हूँ

इतने में देखा माँ मेरी ओर खिसकी और भरे गले से कहने लगी,“कल से मैंने तुम्हें  कितना दुखी किया। क्या माँफ कर सकोगी मुझे?” लेकिन अब तो मेरे रूठे की बारी थी सो बैठे-बैठे ही मैंने अपना मुँह दूसरी ओर घुमा लिया। माँ मेरे कंधे सहलाती रहीं लेकिन मैंने मुड़कर नहीं देखा। इतने दादी मामी बोल पड़ीं। 

देखो जिज्जी बिट्टी सही कहत हती। कैसो बहू ने बाय काम में रधेड डारो।” 

दादी मामी बोलीं तो लड़कियों को न पसंद करने वाली मेरी दादी ने उत्तर दिया,“का गलत करो दुल्हिन ने कल्ल कों इनको ब्याह हुइए तो इनके घरे जाय कें इनको काम को करहे। कराओं तो सब इन्हें ही कों है। अगर इन्हें चौका-बर्तन न कराँव होते तो भगवान इन्हें लड़का बनाय कें न भेजतो!” 

न जिज्जी,इत्तो गुस्सा करबो ठीक नहिं है बहू को। मान लओ चलो कि बिटियन को पराये घरें जवांव परत है, लेकिन का पता कैसो घर मिले? कम से कम महताई-बाप के राज्य में तो सुख से रहबे को तो अधिकार भवो चहियें की नहीं?"

"भौजी तुम हद्द करती हों, बिटियन को राज्य कहाँ धरो!" दादी ने अपने कुंठित मतानुसार अपनी भाभी के विचारों को सिरे से खारिज कर दिया।

"न जिज्जी! हम ऐसो नहीं मानतीं। देखें बिट्टी तुमाये हाथ।” उन्होंने प्रेम से कहा तो मैंने भी अपनी दोनों हथेलियाँ उनके आगे खोल दीं। जो सब ने देखा वही मैंने भी देखामेरे सीधे हाथ की गदेली पर अंडी जैसे दो लाल-लाल छाले फूल आये थे। “हाय मामी ये क्या हुआकैसे पड़ गये छाले बिट्टी के हाथ में।पास में बैठी माँ की आँखें फ़ैल गयीं।

अच्छा बहू! जू सब तुमाओ करो-धरो है।अब  पूछतीं हों...। फूल-सी बिटीना पे तुमने कित्ती कर्री हरदी पिसवाई। तुम्हाए करेजे में नैक पीर न भाई।दादी मामी ने एक साँस में पिछले दिन की गुस्सा निकल डाली। अब तो माँ मेरी हथेली देख फूट-फूटकर रो पड़ीं। दौड़कर गाँव में जो प्राथमिक उपचार हो सकते थे, करने लगीं। पहले हथेली को पकड़कर फूफू करके फूकने लगीं फिर दौड़कर ठंडे दूध की मलाई लेकर लगाई। कच्चे आलू कद्दूकस करके छालों पर थोपे। अब उनके चेहरे पर उनकी नाक-आँखें लाल दिखने लगी थीं।बराबर उनकी आँखों से पानी झरता जा रहा था जो वे अपनी धोती के पल्ले से वे बार-बार पोंछती जा रही थीं। लेकिन अब मुझे बिल्कुल दर्द नहीं हो रहा था। मैं खुश थी कि मैं पास भी हूँ और माँ भी मेरे दुःख में पूरी द्रवित है लेकिन माँ को उस घटना की याद कर आँखें भिगोते मैंने कई-कई बार उनके आख़िरी वक्त तक देखा है। काश! आज माँ मेरे साथ होतीं तो देख पातीं...। बस अब मन में इतना ही आता है कि अच्छी माँयें कोयल नहीं,बया होती हैं। जैसी मेरी माँ थी। 

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