सफल उड़ानों में सपनों के रंग


अभी भोर होना बाकी है। कालिमा इधर-उधर छितराई है। धरती सो रही है सुख की नींद लेकिन उसके आँगन में खड़े स्ट्रीट लैम्प अपलक किसी टॉर्च मैन की तरह अपनी निष्ठापूर्ण नौकरी में मग्न हैं । कितना जरूरी होता है अपने कर्तव्यों में निमग्न होना फिर चाहे कोई हमें देखे या न भी देखे। लैम्पों से झरती रौशनी के कारण दूब घास पूरी तरह से ओस से नहा नहीं सकी है इसे देखते हुए लगा कि रौशनी के इन दीयों ने शहर को उजाला तो सौंपा है किंचित रूखा-सूखा भी बना दिया है इसे ये बात इस लिए कह रही हूँ कि इस भागते-दौड़ते महानगर में अभी भी कुछ स्थान रात के सन्नाटे और अँधेरे की रजाई में पूरी तरह दुबक कर सोते हैं जब कभी उन जगहों पर जाने को मिला तो उनका लालित्य देखते ही बना| उसको देखकर लगा मानो सुबह की थाली में प्रफुल्लित मन लुच-लुच गेंदे के फूल रखे हों खैर

आज की बात करूँ तो लगता है कि हवा छुट्टी पर गयी है; तभी तो वृक्षों की डालियाँ, अभी चार बजने को हैं और वे सो रही हैं पत्तियाँ हिलना-डुलना भी चाहें तो सिवकाई में खलल पड़ेगी इसलिए वे भी नतनयन किये डालियों से चिपकीं सोने का अभिनय कर रही हैं पंछियों के घोसलों में रात और सपने अभी बाकी हैं; तभी तो कोई भी पंछी जागा हुआ नहीं दिख रहा है सपने देखना जरूरी होता है उड़ान भरने के लिए सफल उड़ानों में सपनों के रंगों के व्याकरण को पंछी भी जानते हैं अभी घर के पास में खड़े अनेक बड़े वृक्षों में से मेरी आँखें नीम को ताक़ ही रही थीं कि अचानक एक चिहुँक-सी उठी और पंछियों ने अपने पंख फड़फड़ाये | पादपों के सिर पर पड़ी रात की चादर का कोना पंछियों ने अपने पंजों में पकड़ा और देखते -देखते चले गए खींचते हुए क्षितिज की ओर । इधर पखेरू उड़े रात को अपने परों पर लेकर उधर लगा किसी ने हाथ में लेकर चुटकी भर अक्षत-रोली छिड़क दिए बसुधा के द्वार के आगे | 

पंछियों ने छोड़ा अपना लदावन क्षितिज अटारी पर तो उसने सहजता से सहेज लिया रात,अँधेरा,चाँद,तारे,नींद और सभी के अच्चे-कच्चे सपने गोया जैसे सहेज लेती है एक माँ; अपने बच्चे के द्वारा लाया बेकार से बेकार सामन और रद्दी अखबार का एक टुकड़ा भी। इस कारीगरी के बीच धरती झटपट उठी और कर्मठ माँ की तरह अपना चौका बुहारा । दरवाजे पर फूलों की वंदनवार सजाई; सम्भव-असंभव सभी से राम जौहर किया और अपने मन मन्दिर में सूरज को उतारने के लिए हो गयी खड़ी एक टाँग पर । जैसे गुलज़ार साहब बैठ गये हो किसी नज्म को क़ागज पर उतारने के लिए। 

इधर संसार को संचालित करने के लिए किरण-परियाँ उतरीं तो उधर पेड़ों के साथ-साथ दिन ने भी ली अंगड़ाई और चला गया गंगा-जमुना स्नान के लिए | स्नानकर अपने गीले बदन को उसने पवन-अंगौछे से अंगौछा और झटपट श्रृंगार के लिए सरोवर के दर्पण में मुख निहार लगा लिया गेरुआ टीका मस्तक के बीचों-बीच । पूरब दिशा ने अपना हाथीद्वारा नुमा फाटक खोल फैलाई बाँहें तो बिछौना समझ बैठ गया आसन जमा नया दिन और हो गया  तपमग्न | ये सब हो ही रहा था कि तब तक एक-आध घरों की खिडकियों से झाँकने लगी रौशनी कुछ बालकनियों में निकल आये अल्साये हुए एक-दो जोड़े | रसोई ने जाग कर उबासी भरी तो किसी कामकाज़ी गृहणी ने चाय के पानी में अपनी नींद घोलकर चढ़ा दिया पतीला गैस स्टोब पर अब गिने जायेंगे काम जो रात ने लिखे थे पूरे मनोयोग से पर्ची पर देखते-देखते बदलने लगी दिन की रंगत | लगा किसी रूपवती स्त्री ने जो अपने स्वास्थ्य का विशेष ध्यान रखती हैउसने अपने लिए बनाई हुई काली चाय में आधा नींबू निचोड़ दिया हो और ऐसे सांवले भोर को मिल गया मौका सुनहरा होकर खिलने का|

महानगर के एक कोने में एक कॉलोनी और उस कॉलोनी में एक बिल्डिंग और उस एक बिल्डिंग की एक बालकनी में बैठी मैंजिसे न कहीं जाना है और न आना है । सच में इस कोरोना काल ने मेरी शारीरिक तौर सारी यात्राएँ रद्द करवा दीं हैं । यहाँ तक कि मैं विपस्सना तक के लिए भी घर से नहीं निकल सकी लेकिन रूपये के दो पहलू की तरह  समय ने मेरे लिए मानसिक यात्राएँ बड़ी निर्मित की हैं। इन यात्राओं के लिए न बैग पैक करना पड़ा और न ही पुए पकाने पड़े । इस दौर का सबसे बड़ा अनुष्ठान सेनिटाइजर और मास्क बनकर उभरा है । वहीं इस जिद्दी महानगर के कुछ जिद्दी युवा नहींअधेड़ उम्र के कुछ युवक बिना मास्क लगाये टहलने निकल पड़े हैं । वे लोग बिना मास्क के निकले तो निकले एक दूसरे को छू-छूकर वार्तामग्न भी हो रहे हैं लेकिन मैं अपनी आराम कुर्सी में जमी बैठी हूँ, बिना मास्क लगाये|

टहलना हमारे जीवन के लिए कितना लाभकारी होता है। मन बड़ी शिद्दत से इस मानसिक और आत्मिक चर्चा में निमग्न होने लगा था कि सामने शहतूत और सहजन  के वृक्षों पर नजर पड़ी गोया ये तो टहलने कभी नहीं जाते फिर कैसे इतने स्वस्थ्य हैं ? इन्हें देखकर किसी को भी जलन हो जाए | इन दिनों मन को खुद से प्रश्न करने की बुरी लत लग गयी है। खैर... शहतूत की पत्ती-पत्ती तरोताज़ा दिख रही हैजैसे कोई सुंदरी स्नान कर नदी से निकलती आ रही हो बिल्कुल एक सत्य जितना सुंदर दृश्य देखकर मन रोमांचित हो उठा ।

इस मंथन से एक बात सामने आई कि पेड़ भले न घूमने-टहलने जाएँ लेकिन वे अपने संचित आपा को पूरा का पूरा दूसरे पर लुटा देते हैं शायद इसलिए उनकी काया स्थूल नहीं होती। इस बात से देने के भाव की गम्भीरता ऐसे प्रकट हुए जैसे शीशे के टुकड़े पर किरणों से उत्तपन्न रोशनी का एक विशाल पुंज। इस असत्य और घटना प्रधान समय में भी पौधे बचाए हुए हैं अपने भीतर पूर्ण सत्य जो सभी को उसकी हरीतिमा बनकर अपनी ओर आकर्षित कर रहा है | पेड़ों को मौसमबहारें ,ऋतुएँ और वातावरण से ज्यादा अपनी माटी से प्रेम होता है । जहाँ माटी मिलती है वे वहीं जमा लेते हैं अपना अस्तित्व और बना देते हैं बुरी से बुरी जगह को देखने योग्य । सत्य भले ही ऊपर से बदरंग हो  लेकिन सत्य का अंदरूनी भाग बेहद विशिष्ट और सुंदर होता है । गमले में लगे नाटे कद के बरगद को देखकर बिलकुल अभी-अभी महसूस हुआ ।

[आज की चम्पई भोर की डायरी से ]

***


 









 

Comments

  1. कितना सुन्दर !! जैसे कोई भोर की ओस से धुली painting !!

    Loved it!!


    www.turnslow.com

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