रिश्तों में रिश्ते

 

आज २७ सितम्बर बेटी दिवस पर ये एक अनोखी बात हो सकती है, देखने-सुनने और पढ़ने वालों के लिए लेकिन ये बात मेरे लिए बेहद सच्ची और अपनी सी है । ये जो दो बेटे मुझे ईश्वर की कृपा के रूप में मिले हैं, ये दोनों मेरे लिए मेरी बेटियाँ, माँ, पिता और मित्र भी बन जाते हैं| जब इनको पिता की याद में या पिता के स्नेह की कमी खलने पर मैं छोटे डैडी और बड़े डैडी कहकर पुकारती हूँ तो इनका हृदय ममता से प्लावित होते भी देखा है मैंने । मेरी पुकार के प्रतिउत्तर में ये मुझसे कहते हैं " ओ माय स्वीटी डॉटर! आ जा मेरी प्यारी बेटी आओ तुझे गले से लगा लें और ये कहते-कहते उनकी निश्छल खिलखिलाहट से मेरा घर गूंज उठता है!" ये वाक्य भले मजाक में बोले जाते हैं लेकिन इन मुझे इन दोनों की संवेदना का परिचय फिर-फिर मिलने लगता है...मेरे मन के लिए वे सुकून भरे पल होते हैं और जब कुछ मन की बात कहने का मन हुआ तो चट से ये स्नेहिल बेटियाँ बन जाते हैं और इतने ध्यान से मेरी बातें सुनते हैं कि मेरा भारी मन हल्का हो जाता है । अब ये कैसे न बताऊँ कि ये बेटे मेरी माँ का और मित्र का रोल कैसे अदा करते हैं। तो आपको बताऊँ जब मैं समाज की ऊँचे-नीचे रास्तों पर चलते-चलते, लोगों के उपहास और तीखे लफ़्जों में अटक जाती हूँ और किसी की कोई बात मुझे समझ नहीं आने लगती है और मन को बेहद कष्ट  पहुँचाने वाली लगती है तब ये दोनों मेरी माँ की भूमिका अदा करते हैं| ये दोनों मुझे इतनी सुंदर सलाह देते हैं जैसे कोई समाज शास्त्री हों| इनकी सलाह से मेरा भला तो होता ही है, साथ में किसी का भी नुक्सान नहीं होता और मित्र, इस नाते कि इनके सामने या इनके साथ मैं अपनी बात कहने के लिए पूर्ण रूप से स्वतन्त्र हूँ। एक सबसे ख़ास बात बताना चाहूँगी ये बच्चे बिल्कुल ममा ब्यॉज नहीं हैं। इनकी अपनी स्वतन्त्र और मौलिक आधुनिक सोच है। जब ये मुझे थका हारा देखते हैं तो दोनों मिलकर मेरे लिए हिपहॉप भी करते हैं तब मेरा खूब मनोरंजन होता है। दुनिया के सारे दुःख भूल जाते हैं...भले ही ये बात हँसी मज़ाक लगे सभी को लेकिन इन बच्चों का साथ, साथ फूलों का है... मेरे लिए। मुझे लगता है दुनिया की प्रबुद्ध आधी आवादी इनके रूप में मेरे साथ रहती है। चिरंजीवी हों मेरे प्यारे...तुम्हीं से रौशन हैं मेरी आँखें !! :):):):)



























जिन्दगी के वे लम्हें जिनमें अनेक ख़ुशियों के पल बिंधे पड़े हैं | जिनसे गुजर कर मैं कभी यूँ न देख पाती जिस तरह से वक्यत के वे नन्दिहें टुकड़े यूँ मुकुराहटें मेरे सामने बिखरे हैं! किसी माँ के बेटे ने कैमरा रूपी यंत्र की कल्पना न की होती तो क्या होता! समझ के परे....मैं तो बस उस माँ को ढेरों दुवाएँ भेजती हूँ जिसने इतनी बुद्धिमान संतति को जन्म दिया होगा जिस बच्चे ने लीक से हटकर कैमरा रूपी सौगात हम मनुष्यों के हाथों में सौंपी है!
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