बोलने की आज़ादी
शीना की आँख तड़के ही खुल गई। उसने इधर-उधर देखा घर संतोष लिए सो रहा था। उसने दोनों हथेलियाँ जोड़कर अपने चेहरे को छुआ। उसे भोर अस्फुट-सी लग रही थी लेकिन सोने का मन भी नहीं था। थोड़ी देर सोच-विचार के बाद उठकर वह पार्क में घूमने चली गई।
मैदान में चारों ओर शांति फैली हुई थी। कुछ पक्षी सो रहे थे कुछ जाकर डालियों पर झूल रहे थे। शीना भाव विभोर होती जा रही थी।
“हवा में यह किसकी खुशबू है? उसने स्वयं से पूछते हुए घड़ी देखी। समय काफी हो चुका था। मॉर्निंग वॉक पूरी कर वह घर लौट आई थी।घर में अभी भी कोई जागा नहीं था सो बिना खटपट किये अपने लिए एक प्याला कॉफी बनाकर सीधे स्टडी में आ गई। थोड़ी देर बाद खिड़की से थोड़ी-थोड़ी रौशनी झाँकने लगी थी।कॉफी पीते हुए उसकी दृष्टि दीवार पर टंगी सुभाष चंद्र बोस की तस्वीर पर जा कर अटक गई। देखते-देखते वह उन्नीस सौ सैंतालिस से लेकर आजतक की आजादी की समीक्षा में उलझती चली गई।
“गुड मॉर्निंग मम्मा !” शीना के बेटे ने बीनबैग में बैठते हुए कहा
“गुड मॉर्निंग बेटा! उठ गया मेरा शोना?” शीना ने घड़ी की ओर देखते हुए चश्मा उतारा और एक छोटी सी अंगड़ाई लेते हुए आँखें बंद कर लीं।
“मम्मा पता है आपको ? आज चौहत्तर साल हो गए हमें आजाद हुए।” अलसाई मुस्की में बेटे ने कहा जो शीना को सुनकर बहुत अच्छा लगा।
“हाँ बेटा, आज हमारी आजादी की दुल्हन चौहत्तर बरस की हो गई।” शीना ने साहित्यिक मूड में कहा तो बेटा मित्रों की तरह खिलखिला पड़ा।
“अच्छा मेरे पापा की दुल्हन !” कहते हुए उसने माँ का
माथा चूम लिया
“शुभ हो।”
शीना की आँखों में ममता उमड़ पड़ी। भोर की आज़ाद ताज़गी ने स्टडीरूम को देखते ही देखते भर दिया।
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बढ़िया
ReplyDeleteबहुत सुंदर लघुकथा।
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