आज़ादी के रोज़
"सुनो दमयंती, मैंने इस्त्री गर्म कर दी है।मेरा कुर्ता आयरन कर दीजिए।" पति ने बड़ी विनम्रता से कहा।
"अब रहने भी दो, क्या दीजिए-वीजिए लगा रखी है! जैसे हो वैसे ही रहो।" दमयंती ने खुद को सामान्य रखते हुए बोला।
"अरे श्रीमती जी आप तो नाराज़ हो गईं। दरअसल आज एक विद्यालय में ध्वजारोहण के लिए मुझे बुलाया गया है।" पति ने बत्तीसी दिखाई।
"अच्छा तो फिर जाइये महोदय! देर किस बात की लेकिन अपना कुर्ता स्वयं आयरन कर लीजिए। मैं आज बहुत व्यस्त हूँ।"
दमयंती ने भी शब्दों से खेला, जिसे सुनकर दमयंती का पति लड़ाकू बिल्ली की तरह पंजों पर आ गया।
"तू, बेटाइम मेरा भेजा क्यों खाती है रे! कुर्ता प्रेस करती है या बताऊँ तेरे को ?" पति खा जाने वाले स्वर में बोला।
"अब तो बिल्कुल मैं कुर्ते को हाथ नहीं लगाऊँगी,आयरन तो दूर की बात है।" दमयंती बोली।
"आज़ादी का मतलब ये नहीं कि मैंने तेरी नाथ काट दी है,रुक अभी मैं...।" पति ने दमयंती की ओर हाथ बढ़ाया ही था कि उसने झपटकर गर्म इस्त्री उसके आगे कर दी और बोल पड़ी।
"कब तक लोगों को अपने शब्द आयरन करके ठगते रहोगे ? जैसे हो वैसे ही रहो।" दमयंती का इतना कहना था कि एक तगड़ी गूँज के बाद दमयंती का चेहरा लाल था और पति बर्फ़ के पानी में उँगलियाँ ठंडी कर रहा था।
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जागरूकता, स्वतंत्रता......
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