आत्मसम्मान
बगीचे में ‘ट्रंपिट वाइन’ बेल लहरा रही थी। कुछ जलवायु का असर और कुछ उसकी आगे निकलने की होड़ ने वसंत आते-आते उसे इस काबिल बना दिया कि उस पर नारंगी आभा लिए हजारों फूल एक साथ खिल पड़े। तेज धूप से ज़मीन पर बनी अपनी परछाईं जब-जब वह देखती, बेल आत्ममुग्ध हो नाच उठती। लगाने वाले का मन हरा हो जाता। बेल का रंग-रूप देखकर मालिक ने उसकी बाजू पर काला धागा बाँध दिया। बाँह पर नजरबट्टू बंधा देखकर तो बेल का दिमाग़ सातवें आसमान पर जा लगा है।
प्रकृति प्रेमी शिवबालक के बगीचे में खड़े आम, इमली, अशोक और आँवले के वृक्षों को ‘ट्रंपिट वाइन’ बेल अपने पाँव की धूल समझने लगी। बड़े-बड़े पौधों के हँसने, बोलने और मुस्कुराने पर भी वह उनको भाव न देती। ‘समय-समय की बात है’ अन्य पेड़-पौधे अपने मन को शांत कर लेते।
“माना कि हम देर में फलते-फूलते हैं लेकिन एक ही बगीचे में रहकर हम किसी को हीनता से नहीं देख सकते कि दूसरे का मनोबल ही टूट जाए। है न दद्दू!"
कलमी आम का नया पौधा 'अमोला' कुंठित होकर बोला, जो बगीचे में सबका प्यारा था। बड़े-बड़े दरख्तों ने अमोला के उदास स्वर पर आपस में मंत्राणा की और मनुष्यों द्वारा बोली जाने वाली लोकोक्ति “अधजल गगरी छलकत जाय” बच्चे को सअर्थ सुनाकर उसको सांत्वना दी। बड़ों की बातों पर पूरा विश्वास कर अमोला ने अभी आँखें मीचीं ही थीं कि उसको कराहने की तेज-तेज आव़ाज सुनाई पड़ी। उसने इधर-उधर सिर घुमाकर देखा तो उसके अपने तो सब मौन निद्रा में लीन थे।
"फिर ये कौन है जो दर्द से मरा जा रहा है?" अमोला ने सोचा और सिर उठाकर ऊपर की ओर देखा। बेलरानी ख़ुशी से उछल-उछल हवा में इतरा रही थी।
“फिर ये कराहने की आवाज आख़िर आ कहाँ से रही है?” अलसाये हुए अमोला ने बहुत कोशिश की लेकिन कोई सुराग उसके हाथ न लगा। थककर उसने पलकें झुकाई तो उछल पड़ा। बेल देवी के दस-बीस नारंगी फूल घायल अवस्था में उसके इर्दगिर्द फैले पड़े कराह रहे थे।
“अरे! तुम्हारी ऐसी हालत किसने कर दी? तुम सब तो इतनी सुंदर माँ के पुत्र हो। उसकी गोद छोड़कर नीचे कूदने की क्या जरूरत थी?” अचम्भित होकर अमोला बोला।
“तुमने ठीक कहा अमोला भाई! काश! ज़िद्दी हवा से मेरी माँ मुकाबला न करती तो असमय हम यूँ
टूट कर न गिरते।” घायल फूलों में से एक बोला।
“मैं समझा नहीं, प्यारे फूल!”
“मतवाली वसंती हवा ने माँ से रास्ता माँगा था लेकिन मेरी माँ उस के आगे तनकर खड़ी हो गयी। वे चाहती तो ‘जैसी चले बयार पीठ तब तैसी दीजे’ के अनुसार थोड़ी-सी झुक जाती तो हम सब बच जाते।” एक फूल ने लरजती आवाज़ में बोलते-बोलते दम तोड़ दिया।
अमोला ने दूधिया चाँदनी में खुद को देखा फिर सिर उठाकर अपने कुनबे के वृक्षों को, जो रात्रि के सन्नाटे में अपनी शाखाओं पर चाँद को झुला रहे थे। पहली बार अमोला ने अपने दिल को रिद्म में धड़कते हुए महसूस किया।
बगीचे में ‘ट्रंपिट वाइन’ बेल लहरा रही थी। कुछ जलवायु का असर और कुछ उसकी आगे निकलने की होड़ ने वसंत आते-आते उसे इस काबिल बना दिया कि उस पर नारंगी आभा लिए हजारों फूल एक साथ खिल पड़े। तेज धूप से ज़मीन पर बनी अपनी परछाईं जब-जब वह देखती, बेल आत्ममुग्ध हो नाच उठती। लगाने वाले का मन हरा हो जाता। बेल का रंग-रूप देखकर मालिक ने उसकी बाजू पर काला धागा बाँध दिया। बाँह पर नजरबट्टू बंधा देखकर तो बेल का दिमाग़ सातवें आसमान पर जा लगा है।
प्रकृति प्रेमी शिवबालक के बगीचे में खड़े आम, इमली, अशोक और आँवले के वृक्षों को ‘ट्रंपिट वाइन’ बेल अपने पाँव की धूल समझने लगी। बड़े-बड़े पौधों के हँसने, बोलने और मुस्कुराने पर भी वह उनको भाव न देती। ‘समय-समय की बात है’ अन्य पेड़-पौधे अपने मन को शांत कर लेते।
“माना कि हम देर में फलते-फूलते हैं लेकिन एक ही बगीचे में रहकर हम किसी को हीनता से नहीं देख सकते कि दूसरे का मनोबल ही टूट जाए। है न दद्दू!"
कलमी आम का नया पौधा 'अमोला' कुंठित होकर बोला, जो बगीचे में सबका प्यारा था। बड़े-बड़े दरख्तों ने अमोला के उदास स्वर पर आपस में मंत्राणा की और मनुष्यों द्वारा बोली जाने वाली लोकोक्ति “अधजल गगरी छलकत जाय” बच्चे को सअर्थ सुनाकर उसको सांत्वना दी। बड़ों की बातों पर पूरा विश्वास कर अमोला ने अभी आँखें मीचीं ही थीं कि उसको कराहने की तेज-तेज आव़ाज सुनाई पड़ी। उसने इधर-उधर सिर घुमाकर देखा तो उसके अपने तो सब मौन निद्रा में लीन थे।
"फिर ये कौन है जो दर्द से मरा जा रहा है?" अमोला ने सोचा और सिर उठाकर ऊपर की ओर देखा। बेलरानी ख़ुशी से उछल-उछल हवा में इतरा रही थी।
“फिर ये कराहने की आवाज आख़िर आ कहाँ से रही है?” अलसाये हुए अमोला ने बहुत कोशिश की लेकिन कोई सुराग उसके हाथ न लगा। थककर उसने पलकें झुकाई तो उछल पड़ा। बेल देवी के दस-बीस नारंगी फूल घायल अवस्था में उसके इर्दगिर्द फैले पड़े कराह रहे थे।
“अरे! तुम्हारी ऐसी हालत किसने कर दी? तुम सब तो इतनी सुंदर माँ के पुत्र हो। उसकी गोद छोड़कर नीचे कूदने की क्या जरूरत थी?” अचम्भित होकर अमोला बोला।
“तुमने ठीक कहा अमोला भाई! काश! ज़िद्दी हवा से मेरी माँ मुकाबला न करती तो असमय हम यूँ
टूट कर न गिरते।” घायल फूलों में से एक बोला।
“मैं समझा नहीं, प्यारे फूल!”
“मतवाली वसंती हवा ने माँ से रास्ता माँगा था लेकिन मेरी माँ उस के आगे तनकर खड़ी हो गयी। वे चाहती तो ‘जैसी चले बयार पीठ तब तैसी दीजे’ के अनुसार थोड़ी-सी झुक जाती तो हम सब बच जाते।” एक फूल ने लरजती आवाज़ में बोलते-बोलते दम तोड़ दिया।
अमोला ने दूधिया चाँदनी में खुद को देखा फिर सिर उठाकर अपने कुनबे के वृक्षों को, जो रात्रि के सन्नाटे में अपनी शाखाओं पर चाँद को झुला रहे थे। पहली बार अमोला ने अपने दिल को रिद्म में धड़कते हुए महसूस किया।
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार (०८-०८-२०२०) को 'मन का मोल'(चर्चा अंक-३७८७) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है
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अनीता सैनी
बहुत खूब......,बेहतरीन अभिव्यक्ति,सादर नमन
ReplyDeleteबहुत खूब,
ReplyDeleteवाह बेहतरीन प्रस्तुति
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