नशा
“बिटिया, बचपन से पढ़ाई के लिए तेरी आनाकानी सुनती चली आ रही हूँ. लेकिन अब तो समझ ले, इस बार बोर्ड की परीक्षा में बैठेगी। कुछ तो पढ़ लिया कर. रिश्तेदारों में बिल्कुल नाक कटवाने पर ही तुली है। एक बाप दूसरे ये बेटी।"
अपने मानसिक तनाव,जर्जर तन और शारीरिक अभावों में दबी-कुचली रबिया ने एक साँस में अपना दुःख और गुस्सा बेटी के ऊपर उड़ेल दिया।
“तो क्या करूँ बोर्ड है ?” बेटी तनतना कर बोली.
“अच्छा! तो अब साहबज़ादी को ये भी बताना पड़ेगा…?” क्षोभ से तिलमिलाती हुई उसकी माँ बोली।
“पढ़ाई के अलावा कुछ और भी पूछा-बताया जाता है अपने बच्चों से; अम्मा!”
“तो आज तू ही बता दे…क्या बाकि है जानना? जिससे मैं अंजान हूँ।”
“जिन क़िताबों से आपको खुशबू आती है न! मुझे न वे सुहाती हैं और न ही अपनी ज़िंदगी। बस हर घड़ी यदि कोई विचार मेरे दिमाग में चलता है तो बस कि इस जहुन्नुम से बाहर कैसे निकलूँ ।"
कहते हुए अदीबा भी सिसक पड़ी।
“हाय अल्लाह! अब क्या होगा? कितनी आस लगाई थी इस लड़की से। चार घरों के बर्तन-पौंछा करती रही कि ये पढ़ लिखकर अच्छे घर चली जाए अब तो ये भी...।”
रबिया धीरे-धीरे दहाड़ें मार-मार कर रोने लगी। अदीबा अब भी चुप एक कोने में सिमटी खड़ी थी।
“क्या गुफ़्तगू चल रही है दोनों में?” नशे में धुत्त डगमगाते पाँव बाहर से आते हुए लड़खड़ाती जुबान से पूछा।
“अब बताइए इनको कि गुफ़्तगू और सिर पटकने में अंतर होता है। कभी-कभी लगता है कि इस घर को ही छोड़ दूँ या मर जाऊँ।” दोनों हाथों से मुँह दबाते और पाँव पटकते हुए अदीबा उठकर रसोई ओर चली गयी।
“इस आदमी ने मेरी सुनी होती तो तेरे सिर पर थोड़े ही सवार रहती सारा दिन मेरी बच्ची।एक शब्द भी बुरा नहीं कहना चाहती थी लेकिन अपने पास बचा ही क्या है। न धन धरम।”
पति खाट पर फ़ैल चुका था.रबिया ने उसकी जेबें देखीं तो खाली थीं.
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