रुके क़दम, यूँ आगे बढ़ें...

मेरा सौभाग्य है कि देश की चर्चित साहित्यकार  उषा राजे सक्सेना जी की कहानी को अपने ब्लॉग पर लगाने का अवसर मिला है | आज की परिस्थियों में जिस प्रकार अवसाद अपनी पैठ बनाता जा रहा है; वह बेहद दुखद है | उषा जी ने उससे उबरने की नायब तकनीक अपनी कहानी में बुनी है | इस तरह के साहित्य की इस वक्त अति आवश्यकता |

***

स्वरांगी, अभी कमरे में पहुँची ही थी कि आदित्य का टैक्स्ट आ गया कि वह कल सुबह भोपाल पहुँच रहा है. स्वरांगी को आश्चर्य हुआ....बहुत कोशिश करने के बावजूद यूँ भी उसे एक सप्ताह से अधिक छुट्टी नहीं मिल पाई थी. अतः उसने परिवार में किसी को भी अपने आने की भनक नहीं लगने दी थी. आदित्य को कैसे पता चला? वह चकित थी. 

रात काफ़ी हो चुकी थी अतः उसने सोचा, सोने से पहले लैप-टॉप चार्ज करने को लगा दूँ. ‘अरे! मैं दो पिनों वाला प्लग तो रखना ही भूल गई. खैर.. अब तो रात काफी हो चुकी है.’ उसने सोचा, ‘अब कल सुबह देखेगी...’ अतः सुबह आठ बजे उठते ही स्वागत कक्ष में आकर काऊँटर पर बैठे कर्मचारी से ‘टू-पिन प्लग’ लेकर मुड़ी ही थी कि   

‘बुआ जी, प्रणाम.’ कहते हुए आदित्य ने झुक कर स्वरांगी के दोनों पैरो को हाथों से स्पर्श किया. सुशांत के हाथ उसे ज़रा ठंडे और नम लगे थे.  

‘अकेले ही आए हो या और कोई है तुम्हारे साथ...’ स्वरांगी ने प्रेम से उसे दोनों हाथों से उठा कर गहरा आलिंगन देते हुए कहा,

‘कौन साथ होगा, बुआ जी..’ उसके कहने में सीलन सी थी. ‘पापा अपने सांसदों के साथ व्यस्त, एक मोटी रकम हर महीने मेरे खाते में डाल देते हैं. मम्मी अपने सामाजिक संगठनों में व्यस्त, हर हफ्ते खाने-पीने का सामान बहादुर के हाथ भेजवा देती हैं. मुनिया से कभी-कभी लैंड लाइन पर जब-तब बात हो जाती है. नौकर-चाकरों की वजह से फोन पर ताला लगा रहता है.’ वह माता-पिता के व्यवहार से खिन्न, कुछ अनमने स्वर में बोला.

‘मैं उनकी बात नहीं कर रही हूँ पगले! तेरी गर्ल-फ्रैंड की बात कर रही हूँ. तू इस क़दर ब्राइट है. इतना प्यारा...टॉम क्रूज़ की तरह हैंडसम. ऑल इंडिया प्री मेडिकल टैस्ट (AIPMT) में दूसरे नम्बर पर आया था. आजकल तो ऐसे लड़कों को लड़कियाँ झट लपक लेती हैं....फिर ऐसे चिपकी रहती हैं कि कहीं ज़रा इधर-उधर हुईं नहीं कि कहीं और कोई ना उड़ा ले उसे.’ वह हँसी तो आदित्य भी हँस पड़ा पर उसकी हँसी में वह खनक नहीं थी जो एक जिंदादिल युवा की हँसी में होती है. कुछ तो बात है? स्वरांगी ने उसके चेहरे को ध्यान से देखा. 

होटल के स्वागत कक्ष में बहुत से लोग बैठे हुए ज़ोर-ज़ोर से बातें कर रहे थे. लोगों का आना-जाना लगा हुआ था. बेल-ब्वॉय अतिथियों का सामान ट्रॉली पर रख कर उन्हें कमरे में ले जाने में व्यस्त थें.

अतः स्वरांगी ने सायास कहा, ‘चल, कमरे में चलते हैं यहाँ आधी बात सुनाई देती है आधी  नहीं. वहीं ब्रेक-फ़ास्ट मँगवा लेते है.....बता तुझे कैसे पता चला कि मैं आ रही हूँ.’ 

ऐलिवेटर में ऊपर जाते हुए आदित्य ने उस बताया, ‘बुआ जी, मैंने तो हिंदी के अखबार में, सम्मानित साहित्यकारों की सूची में आपका नाम और फ़ोटो देखा तो प्रबंधकों को फ़ोन किया. प्रबंधकों ने  बताया कि विदेशों से आए सभी प्रतिनिधियों के ठहरने का प्रबंध पलाश होटल में किया गया है.’ 

‘तू तो बड़ा होशियार है रे! कैसे पकड़ लिया बुआ को...’ वह फिर हँसी पर आदित्य नहीं हँसा. 

 ‘होशियार वगैरह कुछ नहीं बुआ जी. मैं तो बिहारी हूँ. ना?’ उसने विद्रूप हँसी के साथ कहा.

‘क्या? मैं समझ नहीं पाई....’ स्वरांगी ने चाय का कप और उपमा की प्लेट उसकी ओर सरकाते हुए आश्चर्य और कौतूहल से उसके चेहरे पर एक गहरी दृष्टि डालते हुए पूछा.  

‘हिंदी का अखबार पढ़े बिना चैन जो नहीं पड़ता है. इसलिए आप के आने की ख़बर मिल गई. पूरे छात्रावास में हिंदी का अख़बार सिर्फ मेरे कमरे में आता है. मज़ाक भी खूब उड़ता है. बिहारी बाबू का...’   

‘ अरे! तू यू.पी. का है बिहार का नहीं है. तू उन्हें बताता क्यों नहीं है.’

‘किस-किस को बताऊँ बुआ जी, कोई सुने तब तो. उनके लिए तो वह सब लोग जो अन्य प्रांतों से आए हुए होते हैं वे सब बिहारी होते है.’ उसकी आवाज़ में गहरी उदासी और निराशा पुती हुई थी.

‘ओह! यहाँ अपने देश में भी वही नस्ल-भेद.... रंग-भेद और लिंग-भेद, तो मैं वैसे भी खूब भोग ही चुकी हूँ.’ कहते हुए स्वरांगी की आँखों में अपने विवाह के प्रसंग को लेकर आज-तक के देशी-और विदेशी रंग-भेद, नस्ल-भेद, लिंग-भेद की व्यक्तिगत और सामाजिक घटनाएँ कौंध गईं. लड़के वाले उसे देखने आए और पसंद कर गए उसकी दो वर्ष छोटी गोरी- चिट्टी बहन को, जिसने इसी वर्ष बी.ए. प्रथम वर्ष में प्रवेश लिया था. 

अपनी इस छोटी बहन शिवांगी को वह कितना प्यार करती थी किंतु उसने अपने विवाह का एक बार भी विरोध नहीं किया, ना ही मम्मी-पापा ने. इस बात से उसका दिल कुछ ऐसा टूटा कि बहुत दिनों तक अवसाद में रही. हर वक़्त हीन-भाव और अपने लोगों के स्वार्थी प्रवृत्तियों और छल का अहसास होता रहता था. उसका भरोसा सब पर से उठ गया था. 

दिन में तो हर किसी के सामने स्वाभिमान के कारण हँसती और खिलखिलाती कहती,  ‘मैं तो पहले ही कह रही थी कि मैं आगे पढ़ना चाहती हूँ. मुझे चूल्हे-चौके और बच्चों की लंगोटियाँ धोने का कोई शौक़ नहीं है.’ और रात को दुःख-स्वप्नों से पीड़ित उठ-उठ कर बैठ जाती और गहरी सांसे भरती हुई आँसुओं से तकिया भिगोती और घर छोड़ कर कहीं भाग जाने की सोचती.

फिर एक दिन जब घर के सारे सदस्य आँगन में बैठे शिवांगी का दहेज सजा रहे थे तो वह देहरी पर खड़ी हो दोनों हाथ कमर पर रख कर ज़ोरदार शब्दों में सब को सुना आई कि वह साहित्य में एम.ए. करेगी उसके पश्चात शोध करेगी और फिर अपनी योग्यता के बल पर विदेश जाएगी.’ और वह पलट कर दनदनाती हुई,  डबडबाई आँखों के साथ कमरे से बाहर आ गई. पीछे से सुना पापा कह रहे थे. उसे समय दो सुनंदा, जितना चाहेगी पढ़ाऊँगा. स्वरांगी मुझे शिवांगी से अधिक प्रिय है....  

सुना तो दिया सब को उसने पर जब कभी वह अकेली होती तो अपमान का दंश उसके बरदाश्त के बाहर हो जाता. ऐसे में वह मोटे-मोटे आँसू बहाती नाक पर तकिया रख कर दबाने लगती. कई बार उसने पंखे से ल़टक जाने की या टॉयलेट साफ करने वाले ब्लीच को पी जाने की सोची. एक दिन वह चूहे की दवा भी ले आई और गद्दे के नीचे लाकर छिपा दिया. अजीब सी मनोदशा हो गई थी. कभी खूब उत्साह में होती और दिन-रात पढ़ाई करती तो कभी निराशा के गहन गर्त में गिरती हुई रात-रात भर रोती और कराहती.    

बी.ए. परीक्षा का परिणाम निकला तो जाने कैसे मेरिट लिस्ट में थी. उसे यक़ीन ही नहीं हो रहा था फिर सोचा, शायद पहले का पढ़ा-लिखा और परिश्रम से किया ‘सेशनल-वर्क के प्रॉजेक्ट’ वगैरह काम आ गए होंगे. सब ने उसकी खूब-खूब सराहना की. 

अचानक उसके पंख निकल आए, उड़ने लगी. तभी पापा ने हिंदी साहित्य और दर्शनशास्त्र में उसकी विशेष रुचि जानते हुए भी उसका प्रवेश अंग्रेजी साहित्य में करा दिया और साथ में धमकी भी दे दी कि अगर उसे आगे पढ़ना है तो अंग्रेज़ी में मास्टर्स करे अन्यथा घर बैठे. वह भी क्या करती? रो-पीट कर किसी तरह उसने दूसरी श्रेणी में मास्टर्स कर लिया. अंग्रेज़ी में मास्टर्स करने के बाद भी उसका हिंदी साहित्य के प्रति प्रेम समाप्त नहीं हुआ. 

इसी बीच उसने ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में अपराजिता के नाम से ‘एक काली लड़की’ शीर्षक से धारावाहिक लिख कर अपनी हीन-ग्रंथियों को खोलना शुरू कर दिया, जिससे उसका मन हलका होने लगा. पाठकों में उसकी लोकप्रियता बढ़ने लगी. धीरे-धीरे वह सहज होती चली गई. अँग्रेज़ी की प्राध्यापिका होने से पास-पड़ोस और घर-बाहर उसका मान-सम्मान ऐसा बढ़ा कि उसे अपना काला रंग दिखना बंद हो गया. वह खुद से प्यार करना सीख गई और एक दिन अपनी खूबसूरत देह-यष्टि और बड़ी-बड़ी कजरारी आँखों को देखते हुए उसने ख़ुद से कहा, 

‘ मैं, अपराजिता हूँ. चुनौतियों का सामना करूँगी या विकल्प खोज कर उनसे निपटूँगी. ‘आई ऐम अ फाइटर, सो फाइट वन मोर...’ उसने ज़ोर से कहा. ‘जोदी तोमर डाक शूने कोई ना, आशि तोबे एक्ला चालो रे’ उसने इस पंक्ति को बार-बार गुनगुनाया. गुरुदेव का यह गीत, चुनौतियों का सामना करना और विकल्पों की खोजना और उनसे निबटना ये तीन उसके जीवन के गुरुमंत्र बन गए. 

‘बुआ जी आप तो लंदन चली गई. यहाँ की सांप्रदायिकता,  ईर्ष्या-द्वेष और छोटी सोच से आपको निजात मिल गई. मैं तीसरे वर्ष का छात्र हूँ पर पिछले दो वर्षों से मैं एनॉटमी में फेल हो रहा हूँ?’ 

‘हैं..., यह क्या कह रहा है तू? ऐसा कैसे हो सकता है? तू इंटेलिजेन्ट है. परिश्रमी है. मेरिटोरियस है. अपने ट्यूटर से बात की तूने...और सुन...तुझे क्या पता कि तेरी बुआ ने लंदन के जातिवादी और भाव-भेद वाली दुनिया में कैसे-कैसे दंश झेले हैं...और कैसे-कैसे पापड़ बेले हैं.’

जवाब में उसने कहा, ‘बुआ जी. ट्यूटर से भी बात की थी. उन्होंने मेरे नोट्स वगैरह देखे, फिर कहा, ‘तुम थोड़ा और परिश्रम करो. डॉ. माहौर का स्तर बहुत ऊँचा है.’

स्वरांगी को लगा कि आदित्य उसकी पूरी बात ना सुन कर केवल वही सुन रहा है जो वह सुननी चाहता है. वह थोड़ी सतर्क हुई.  

‘फिर....?’

‘फिर क्या? शायद आप अभी भी नहीं समझीं बुआ जी. हमारे यहाँ प्रादेशिकता और सांप्रदायिकता इतनी बढ़ गई है कि आए दिन कोई ना कोई धरने पर बैठ जाता है. ट्यूटर की बातों से मुझे नहीं लगता है कि वे कुछ करेंगे. वे जानते हैं कि मैं एक ब्रिलियंट स्क़ॉलर हूँ, स्कॉलरशिप होल्डर हूँ पर मैं स्थानीय नहीं हूँ. यू.पी. का भईय्यन हूँ. ये लोग नहीं चाहते हैं कि उनके प्रदेश के बाहर का कोई छात्र यहाँ के छात्रों ज़्यादा आगे हो.’ 

आदित्य की बात समझते हुए भी, उसका जवाब ना दे कर, स्वरांगी ने सायास प्रश्न किया, 

‘अच्छा, तो अब तक तो तू अपने यहाँ की स्थानीय भाषा बोलने में माहिर हो गया होगा?’ 

‘क्यों, मैं कुछ समझा नहीं बुआ जी? स्थानीय भाषा बोलने न बोलने की क्या बात आ गई. क्या अंतर पड़ता है. स्थानीय भाषा बोलने ना बोलने से...’ आदित्य कुछ विभ्रमित सा बोला और फिर थोड़ा खीझते हुए आगे कहा, ‘यहाँ मेडिकल कॉलेज में सब अँग्रेज़ी बोलते है और मैं सबसे अच्छी अँग्रेज़ी बोलता हूँ. मैंने सारी पढ़ाई अंग्रेज़ी माध्यम से की है.’ 

स्वरांगी ने आदित्य के चेहरे को ध्यान से देखा, उसे उसके चेहरे में स्थानीय लोगों के प्रति वितिष्णा और अपनी विशिष्ट योग्यता का अहंकार दिखा. ठीक वैसा ही जैसा लंदन में वर्षों पहले उसे अँग्रेज़ों के बीच महसूस होता था. ‘ओह!....आदित्य, मन ही मन आदित्य का मनो-विश्लेषण करती स्वरांगी समझ गई कि उसका भतीजा ठीक उसकी ही तरह इस समय श्रेष्ठता के दंभ यानी हीन-ग्रंथि से पीड़ित है. उसे महसूस हुआ कि जैसे उसके ही इतिहास की पुनरावृत्ति हो रही है.

फिर भी वह अपने रुष्ट से भतीजे के संपूर्ण मनोविज्ञान को समझने की थोड़ा और कोशिश करते हुए बोली, 

‘तो फिर क्या बात है,  जो तू ट्रॉन्सफर चाहता है. यह मेडिकल कॉलेज तो बहुत प्रसिद्ध और नामी है.’

‘बुआ जी बताया तो कि दो सालों से मुझे एनॉटमी में फेल किया जा रहा है. यह मेरे इंटेलिजेन्स और योग्यता का अपमान है. मेरा एनॉटमी का टीचर जान-बूझ कर मेरे आत्म-सम्मान को तोड़ रहा है. मेरे साथी छात्र मेरा मज़ाक उड़ा रहे हैं कि मैंने रिश्वत देकर योग्यता प्राप्त की है.’ वह खीझा हुआ सा बोला.

‘ओह माई गॉड’ अपना सिर दोनों हाथों से पकड़ कर स्वरांगी दुखी स्वर में बोली,

‘मुझे तुझसे पूरी सहानुभूति है, मेरे बच्चे. मुझसे अधिक तेरी पीड़ा और कौन समझ सकता है?  सोच,  मैं स्वयं इस स्थिति से गुज़र चुकी हूँ. हम दोनों मिल कर इस समस्या का निदान खोज सकते हैं.’

‘.... कोई निदान नहीं है, बुआ जी. डैडी का इतना रसूख है, इतनी जान पहचान है. बस फोन उठा कर कहने भर की देर है. कितनी बार कहा है कि वे मेरा ट्रॉन्सफर कानपुर, वाराणसी, लखनऊ, गोरखपुर कहीं भी करा दें. पर वे सुनते ही नहीं है.’ आगे उसने कुछ सोचते हुए कहा,

‘आप केवल पापा को समझा दे बुआ जी कि मेरा ट्रान्सफर यू.पी. के किसी भी मेडिकल कॉलेज में करवा दें. बस फिर सब ठीक हो जाएगा. नहीं तो....’ उसकी आवाज़ में तेज़ निराशा और अवसाद के साथ एक धमकी भी थी. किसे और क्या धमकी दे रहा था वह! स्वरांगी सिहर उठी.

लड़का ज़िद्दी और बिगड़ा हुआ है. संभवतः वह आत्म-घात की अवस्था से बहुत दूर नहीं है. भाई भी पापा की तरह ही स्वाभिमानी हैं...लड़के की इस मामले में कोई मदद नहीं करेंगे. वे अपने मान-सम्मान के प्रति बहुत सावधान रहते हैं.  

वह समझ तो गई कि लड़का आहत है. उसके अहम को गहरी चोट लगी है. वह अंदर ही अंदर तिलमिला रहा है. यह चोट क्यों लगी है?  इसका कारण वह समझ नहीं पा रहा है. यह श्रेष्ठता का बोध, यह दंभ है जो उसे अपने साथियों से दूर, एनॉटमी लेक्चरर तथा ट्यूटर का अप्रिय बना रहा है. इस बात को न समझ पाने के कारण उसके मन में भयानक द्वंद्व उठ रहा है और वह पलायन की राह पर चल पड़ा है. उसे याद आया उसके साथ भी बिल्कुल ऐसा ही हुआ था परंतु उसके पास उसका मित्र जेम्स था जिसने ठीक समय पर उसे सही परामर्श दिया था.  

आदित्य को एक अच्छे संवेदनशील परामर्शदाता यानी काउँसिलर की आवश्यकता है. काश! जेम्स इस समय उसके साथ होता…. 

स्वरांगी, आदित्य की बातें ध्यान से सुनते हुए सोच रही थी कि वह स्वयं भी तो अपने पॉलिटेकनीक के विद्यार्थियों की बीच-बीच में काऊँन्सिलिंग करती रहती है. 

तो क्या वह आदित्य को स्वयं अपने जीवन की तमाम द्वंद्वों, संघर्षों और अवसाद के क्षणों का खुलासा करते हुए, जीवन की सच्चाइयों पर परामर्श नहीं दे सकती है?  बहरहाल  कोशिश तो वह कर ही सकती है कि पलायन करने से समस्याएँ नहीं सुलझतीं हैं. अतः मन ही मन उसके मनःस्थिति और विषय परिवर्तन के बारे में सोचते हुए उसने आदित्य से कहा,    

‘चल अच्छा, अब तू नहा-धोकर तैयार हो जा. बाहर चल कर खाना खाते हैं,  फिर कहीं पार्क वगैरह में बैठ कर बाते करते हैं. सुन परसों दोपहर के सत्र में मेरा और मेरे अन्य मित्रों का प्रवासी भारतीयों की पहली पीढ़ी के अनुभवों पर आधारित – ‘संवेदना के विविध संदर्भ’ सत्र है. उन्हें सुनना, शायद तुझे अच्छा लगे....’  

‘तू चलेगा न?’  स्वरांगी ने पूछा. 

‘इसीलिए तो आया हूँ बूआ जी कि कुछ अलग सा दिन बिताऊँ. सच बूआ जी बहुत थक गया हूँ अपने जीवन से, खुद से लड़ते-लडते.....’

‘अरे! अभी तो तेरा जीवन शुरू भी नहीं हुआ है पगले और तू थक गया है. तूने मेरे बारे में दूसरों से बहुत-कुछ सुना होगा. आज मैं तुझे पूरी निष्ठा से अपने जीवन की सारी सच्चाइयाँ उधेड़ते हुए अपने संघर्षों, दुविधाओं और ग्रंथियों के बारे बताऊँगी फिर भी अगर तू कहेगा तो तेरे ख़ातिर मैं शाम को भाई से बात करूँगी.’

‘ठीक है बुआ जी, नाऊ आई ऐम रादर गेटिंग अ बिट बेटर ऐन्ड एक्साइटेड....’

‘अच्छा चल, इसी बात पर इंटरनेट पर कोई अच्छी सी खाने की जगह खोज, जहाँ बाग-बगीचा भी हो....’ अभी वह अपना वाक्य पूरा कर ही रही थी कि आदित्य बोल पड़ा....

‘मिल गया गया, बुआ जी. एवरग्रीन गार्डेन रेस्त्रां- तालाब के किनारे, रंग-बिरंगे फूलों से लदा हुआ. बिलकुल आपकी पसंद का...’ उसके चेहरे पर आई हलकी सी दमक को स्वरागी ने नोट किया, आशा की पहली किरण.... 

‘मैं जल्दी से शॉवर ले कर आपको लंच पर ले चलता हूँ, बुआ जी.’ स्वरांगी, आदित्य के चेहरे पर आए बदलते मनोभावों को गहराई से देख रही थी....  

‘तू तो नहा-धो कर तैयार हो जाएगा पर क्या तू मुझे हाउस-कोट में लंच खिलाने ले जाएगा.....’ स्वरांगी हँसी, आदित्य भी हँसा इस बार उसकी हँसी कुछ और खुली हुई थी.

‘अरे! नहीं, बुआ जी. पहले आप नहा लें....’ उसने कहा.

‘नहीं, तू आराम से नहा. मैंने कल रात शॉवर लिया था. तेरे बाद मैं भी हल्का सा शॉवर फटाफट मार लूँगी.’

‘फटाफट शॉवर मार लूँगी’ कहते हुए, आदित्य ठठा कर हँसा यह ‘फटाफट शॉवर मारने’ वाला मुहावरा, मैंने पहली बार सुना है, बुआ जी. इसलिए हँसी आ गई.’ वह थोड़ा झेंपते हुए बोला.

‘यह जेम्स की भाषा है…’  

‘ यह जेम्स कौन है बुआ जी?’

‘बताऊँगी... लँच पर चल रहे हैं ना... अपने पास सारा दिन है. कितने बजे का समय दिया है?’  

‘एक बजे टैक्सी आएगी, अभी तो सिर्फ गयारह बजे है....तो फिर मैं जल्दी से शॉवर मार लूँ....’ दोनों देर तक ‘शॉवर मार लूँ’ के मुहावरे पर हो...हो करके हँसते रहें. स्वरांगी आदित्य में आ रहे बदलाव से आशान्वित हो रही थी.

आदित्य शॉवर लेते हुए कोई गीत गुनगुना रहा था. स्वरांगी को एकदम अपना बीस वर्ष पूर्व   का गुनगुनाना याद आ गया.... उसकी काऊँसिलिंग काम कर रही है, सोच कर उसे थोड़ी और आश्वस्ति मिली.  

ठीक समय पर टैक्सी उन्हें एवरग्रीन रेस्त्रां लेकर आ गई. उन्हें रेस्त्रां का परिवेश और वातावरण दोनों ही मनमोहक और आकर्षक लगें. जैसा नाम, बिलकुल उसके अनुरूप चारों तरफ हरियाली और क्यारियों में खिले-खिले रंग-बिरंगे फूल.

पूर्व और पश्चिम का एक खूबसूरत समन्वय. अभी दोनों स्वागत-कक्ष में पहुँचे ही थे कि एक स्मार्ट से युवक ने अधखिले गुलाब की डंडी देकर उनका स्वागत किया और पूछा कि वे लोग कहाँ बैठना चाहेंगे. आदित्य ने स्वरागीं की ओर देखते हुए कहा, ‘य़े हमारी मेहमान है, स्वरांगी वात्साययन, लंदन से एक कॉनफ्रेंस में भाग लेने आईं हैं.’ 

‘जी, फिर तो आप हमारी भी अतिथि है. आप संभवतः पिछले दो महीने से चलने वाले ‘विश्व रंग कला महोत्सव’ में आई हैं.’ युवक ने स्वरांगी और आदित्य की ओर देखते हुए पूछा.

‘जी, आप का अनुमान एकदम सही है. ’ धन्यवाद देते हुए स्वरांगी ने प्रशंसात्मक दृष्टि से युवक को देखते हुए कहा, ‘हम बाहर बगीचे में शांत और खुली जगह में चार-पाँच घंटे, टुकड़े-टुकड़े में आराम से भोजन करते हुए बातें करना चाहते हैं. जहाँ थोड़ा एकांत, बहुत अधिक शोर और तेज़ संगीत ना हो... ’ स्वारांगी ने कहा. 

‘आईए...’ एक परिचारिका उन्हें गोल्फ़-कार्ट से तालाब के किनारे बने 20- 20 मीटर की दूरी पर सुसज्जित खूबसूरत ग़ज़ीबों में से एक में आरामदेह कुर्सी पर बैठाते हुए उनके टेबल पर इलेक्ट्रॉनिक मेन्यू रखते हुए बोली,

‘आप अपना मेन्यू इस पर टैप कर दें. समय-समय पर हम आपको वाइन, जूस, स्नैक्स, भोजन, काफी और लिक्योर आदि बिना किसी व्यवधान मेज़ पर देते रहेंगे.’ अभी वह अपनी बात समाप्त कर ही रही थी कि इतने में एक वेटर मेज़ पर शैम्पेन की बोतल और लंबे शैम्पेन गिलास के साथ भुने काजू और बादाम रख गया,

‘यह मैनेजर की ओर से आपके अच्छे स्वास्थ्य के लिए एक छोटी सी भेंट. आपका दिन सार्थक और सुहाना हो.’ कहते हुए वह मुस्कुराई और उनकी स्वीकृति पर उसने उनके गिलास में शैम्पेन डाला फिर दोनों को शुभ-दिन कहते हुए अन्य अतिथियों को आतिथ्य देने चली गई. 

शैम्पेन के गिलास को हल्के से टकराते हुए दोनों ने चीयर्स किया फिर एक-दो सिप लेने के बाद आदित्य सहज उत्सुकता के साथ कुछ आनंदित स्वर में बोला, ‘हाँ, तो बुआ जी अब बताएँ ना जेम्स कौन है?’ 

स्वरांगी मुस्कुरा पड़ी, ‘अभिव्यक्त करना ज़रा मुश्किल है, आदित्य.... वह मेरा ऐसा दोस्त है जो मेरी एक-एक भंगिमा को पहचानता है,  मेरा मित्र, मेरा परामर्शदाता, मेरा पार्टनर है.’

‘वो कैसे? आप उनसे मिली कैसे?’ 

‘सन् उन्नीस सौ पचहत्तर की बात है, आदि. मैं मणिपुर विश्व विद्यालय के एक सेमिनार में पेपर पढ़ने आई हुई थी और वह लंदन से मणिपुर मेडिकल इन्स्टीट्यूट में ‘छात्रों में बढ़ता अवसाद और उनके लक्षण’ विषय पर बीज व्याख्यान देने के लिए आया हुआ था. हम दोनों एक ही अतिथिगृह में आमने-सामने के कमरे में ठहरे हुए थे.’

‘आते-जाते ‘हेलो, गुड-मॉरनिंग, हैव अ गुड-डे आदि कहते-कहते हम शाम के भोजन पर मिलने लगें, फिर धीरे-धीरे आपस में बात-चीत शुरू हो गई. हम दोनों ने मणिपूर के प्रसिद्ध तालाबों, मंदिरों की खूबसूरती को एक साथ देखा और उसे जीया. साथ में सैर करते, संग्रहालय, नृत्य-कला केन्द्र आदि देखते हुए साथ-साथ जीवन के अच्छे-बुरे सभी तरह के अनुभव बाँटते रहें....’ 

‘मुझे उसके भारतीय संस्कृति और इतिहास के ज्ञान पर आश्चर्य हुआ. उसने बताया कि वह भारत कई बार आ चुका है और भारत की कई भाषाओं में हलकी-फुलकी बात-चीत कर सकता है. उसका कहना है आदित्य, कि कहीं भी अपनी जगह बनाने के लिए वहाँ की भाषा और संस्कृति को जानना और समझना आवश्यक है. जब आप वहाँ की भाषा बोलते हैं तो लोग आपको शीघ्र ही अपना लेते है. स्वरांगी ने इस तथ्य पर थोड़ा ज़ोर डालते हुए कहा,

आदित्य ने बादाम की प्लेट उसकी ओर सरकाते हुए सहज ही कहा, ‘बहुत सही कहा उन्होंने इटस वेरी इंटेरेस्टिंग...’. स्वरांगी ने एक बादाम उठाया और फिर उससे खेलते हुए बोली,

‘इसी तरह बातों-बातों में हम अपने व्यक्तिगत अनुभव भी बाँटने लगें. एक दिन जेम्स ने अपने माँ-बाप के झगड़ों और उनके तलाक से दुःखित अनुभवों को बाँटते हुए ड्रग लेने और उससे उबरने की बात बताई. मैंने उसे अपने काले रंग के होने का दर्द बताते हुए गोरी-चिट्टी शिवांगी की शादी के बीच अवसाद में आत्म-हत्या करने के विचार और फिर उससे उबरकर अपने जीवन में लिए निर्णयों के बारे में बताया. हम दोनों के जीवन बहुत साम्यता थी. दोनों ही अवसाद से निकले हुए, जुझारू स्वभाव के होने के साथ-साथ व्यक्तिगत स्वतंत्रता के पक्ष में थे. अतः हम एक दूसरे को पसंद करने लगे..’

‘सच बुआ जी, क्या आपने भी आत्महत्या की सोची थी? ’

‘तो क्या तू समझता है कि तू ही ऐसा सोच सकता है? ’ 

‘आपने कैसे ‘सस आउट’ कर लिया बुआ जी...’

स्वरांगी मुस्कुराई, ‘आदि, तू अभी इतना स्मार्ट नहीं हुआ है कि तेरी बुआ तेरे अंदर ना झांक सके. बता सच है कि नहीं.’

संकुचित सा आदित्य सिर झुंका कर भरे गले से बोला, ‘जी, बुआ जी.’

शैम्पेन खतम हो चला था. अतः वेटरने आ कर उनके उनकी प्लेट में सलाद, क़बाब, कोफ़्ते, चॉप्स आदि रखते हुए उनकी पसंद की वाइन से गॉबलेट में भर गया. 

एक बार फिर गिलास खनके चीयर्स हुआ.....बुआ जी रुकिए मत.. मैं आप दोनो के जीवन के संदर्भों से अपने लिए जीवन के तमाम पहलुओं से जानकारी बढ़ा रहा हूँ....मेरे अनुभव का दायरा कितना छोटा है....

‘पैशन फ्रूट जूस. प्लीज़.’ उसने वेटर की ओर देखते हुए कहा. 

‘बूआ जी,  आपका लंदन जाने का कार्यक्रम कैसे बना?’

‘ हाँ तो, उन दिनों ब्रिटेन में श्रमिकों की आवश्यकता थी अतः एशियन माईग्रेशन बड़ी तेज़ी से बढ़ रहा था. स्कूल, कॉलेज में शिक्षकों के साथ मेडिकल और अन्य सेवाओं के लिए भी प्रोफेशनल्स की आवश्यकता बढ़ रही थी. माइग्रेशन का कोटा खुला हुआ था. अतः मैंने भी आवेदन पत्र दाख़िल कर दिया साथ ही मैंने जेम्स को भी पत्र लिख दिया कि मैंने शिक्षक कोटे में माइग्रेशन के लिए आवेदन पत्र डाल दिया है. अगले हफ्ते हाई कमीशन में साक्षात्कार है.’ 

जेम्स बहुत प्रसन्न हुआ. उसने तमाम ज़रूरी हिदायतों के साथ उत्तर देते हुए लिखा अपने हाई स्कूल के सर्टिफिकेट के साथ बर्थ सर्टिफिकेट आदि भी लेती आना. उन दिनों फोन की व्यवस्था अत्यंत शोचनीय थी. अतः हमें चिट्ठियों पर ही आधारित होना पड़ता था.

जब मैं लंदन आई तो वह एयर-पोर्ट हर पीले गुलाब के गुच्छ के साथ खड़ा था. वह मुझे सीधा अपने फ्लैट पर ले आया. मेरे आने से वह बहुत खुश था.

उसने कहा, ‘जब तक मुझे नौकरी नहीं मिल जाती मैं उसके साथ फ्लैट शेयर कर सकती हूँ और यदि मुझे ठीक ना लगे तो वह मेरा बंदोबस्त पास के इंडियन वाई,एम.सीए में भी करा सकता है.’ 

मैं पिछले कई वर्षों से मैं मित्रों के साथ फ्लैट शेयर कर ही रही थी. मुझे घर से बाहर रहने फ्लैट शेयर करने आदि के साधारण नियम वगैरह पता थे फिर भी लंदन आने से पूर्व मैंने ब्रिटेन के जीवन स्तर, अदब- क़ायदे, रीत-रिवाज के बारे में ‘रफ़ गाइड’ नाम के पुस्तक में पढ़ लिया था. अतः मैंने कहा, ‘मैं फ्लैट शेयर करूँगी परंतु घर खर्च, किराया आदि सब फिफ्टी-फिफ्टी.’ जेम्स राज़ी था, 

आदित्य सारी बातें बहुत ध्यान और कौतूहल से सुन रहा था. बीच-बीच में वह स्वरांगी की प्लेट में कुछ-ना-कुछ डालता रहता था इस बार स्वरांगी ने प्लेट को हाथ से ढकते हुए आगे कहा, ‘बस और नहीं, आदि,’ 

‘फिर बुआ जी, आपको वहाँ जाते ही नौकरी मिल गई! पापा ने बताया था.’

‘हाँ आदित्य, वे शुरू-शुरू के दिन थें.  लंदन आते ही क्वालिफिकेशन वैरिफिकेशन के बाद, जेम्स के सही निर्देश के कारण मुझे सहज ही अपनी योग्यता के आधार पर एक पॉलिटेकनीक में प्राध्यापिका की नौकरी मिल गई. मुझे अपने आप पर बहुत गर्व हुआ, गर्व तो कम, घमंड बहुत ज्यादा हो गया. ब्रिटिश शिक्षण-क्षेत्र में मैं अपनी स्थानीय साथियों की तुलना में कहीं ज़्यादा ‘क्वालिफाइड’ थी. अतः मेरा वेतन भी सब से अधिक था. मैं अपने को उन सबसे श्रेष्ठ प्रमाणित करने लिए अपने साथी शिक्षकों से दूरी बना कर रखती थी और उनसे सिर्फ काम की बात करती. इधर-उधर की बातें तो उनसे बिल्कुल ही नहीं करती थी.’ 

आदित्य, एकाग्र हो कर स्वरांगी की बातें सुन रहा था... 

‘थोड़े ही दिनों बाद मुझे लगा कि मेरे साथी अध्यापक मुझसे बचने का प्रयास कर रहे हैं. वे लोग युवा थे मैं उम्र में उनसे बड़ी थी. मुझे लगा कि वे मुझे वह मान-सम्मान नहीं देते हैं जो मुझे मिलना चाहिए.’

‘क्यों बुआ जी’

‘वही तो बता रही हूँ, आदित्य. मुझे बहुत बुरा लगता. मैं अपने देश में बहुत मान-सम्मान या कहूँ कि एक तरह से जी-हज़ूरी की आदी थी. अतः मैंने मन-ही-मन धारणा बना ली आदित्य कि मेरे साथ के सारे अध्यापक-अध्यापिकाएँ नस्ली हैं, रंग-भेद करने वाले हैं. वे लोग आपस में मुझे गुलाम देश का वासी कह कर अपने आप को श्रेष्ठ प्रमाणित करते रहते है.’ 

‘ओह!’ आदित्य भौंहें वक्र हुई... स्वरांगी ने नोट किया.

‘अतः मुझसे कोई आगे बढ़ कर बात नहीं करता है. इसलिए मैं स्टाफ रूम में कम जाने लगी. वर्करूम या पुस्तकालय में बैठी अगले दिन के लिए नोटस् तैयार करती या कापियाँ जाचँती अथवा पढ़ने-लिखने में अपने आपको व्यस्त रखती थी. मुझे अपने चारों ओर एक षड़यंत्र सा होता दिखाई देता था. लगता जैसे लोग मेरे ही बारे में कनबतियाँ करते रहते हैं. अभी तक मेरा कोई मित्र नहीं बना. धीरे-धीरे मैं थकने लगी, मेरा मन उचाट होने लगा.

आदित्य, चकित सा स्वरांगी को देखता रहा जैसे बुआ जी अपरोक्ष रूप से उसकी कहानी उसे ही सुना रही हों पर वह कुछ बोला नहीं, बस चुपचाप सुनता रहा...   

‘जेम्स, मेरा पार्टनर बहुत दिनों से मेरे स्वभाव में आए बदलाव को देख रहा था कि उसकी शांत  स्वभाव की दोस्त स्वरांगी किसी बात से पीड़ित और उद्वेलित है. वह प्रतीक्षा में था कि मैं स्वयं उससे अपने मनोभावों के बारे में उससे बात करूँ....’ 

प्लेट में परसी स्पेगेटी-बोलोनोएज़ पामीज़न चीज़ और लाल मिर्च की नन्हीं-नन्हीं पपड़ियों को डालने के बाद काँटे में फंसा कर लपेटते हुए बोली, 

‘एक दिन मैंने विचलित मनःस्थिति में जेम्स से कहा कि मैं नौकरी से त्यागपत्र देना चाहती है. यहाँ विभाग के लोग मेरी भारतीय उच्च-योग्यता को नीची नज़र से देखते है. इस पॉलिटेकनीक के लोग रेसिस्ट हैं. वे मेरा मज़ाक उड़ाते हुए आपस में कनबतियाँ करते है. 

जेम्स ने मेरी मनःस्थिति को पूरी तरह समझते हुए सहज भाव से कहा, 

 ‘जल्दबाज़ी मत करो, स्वरांगी. संभवतः तुम इस नए परिवेश में सहज नहीं हो पा रही हो. यह समस्या इतनी उग्र नहीं है कि उसका समाधान ना निकल सके. पिछले दिनों की हमारी आपसी बात-चीत से मुझे ऐसा लग रहा था कि यह समस्या तुम्हारी खुद की बनाई हुई है और तुम इसे पनपने का अवसर दे रही हो....’ 

मैं उत्तेजित हो उठी थी. 

‘क्या बात करते हो जेम्स? यह मेरी समस्या है! तुम भी कहीं यह तो नहीं कह रहे हो कि मैं मंद बुद्धि, पिछड़ी हुई गुलाम जाति की हूँ.’

‘नहीं स्वरा, मैं यह सब नहीं कह रहा हूँ. यह तुम कह रही हो. मैं नहीं. मैं, तो तुमसे सिर्फ़ आत्मावलोकन यानि अपने अंदर झांकने की बात कर रहा हूँ कि तुम स्वयं देखो कि समस्या की जड़ कहाँ है.’ 

‘वही बात है, तुम घुमा-फिरा कर मत कहो. सीधे-सीधे बात करो. ’ 

‘ठीक है, अभी तुम उत्तेजित हो प्रिये हूँ. तुम जल्दी से शॉवर मारो तब तक मैं काफ़ी बनाता हूँ.’ जेम्स ने सहज स्मित हास्य के साथ मेरे कंधों को बाहों में लपेटते हुए फ्रेंच विन्डो से आकाश में फैली लालिमा की लहरें दिखाते हुए बोला,   

‘देखो स्वरा, शाम ढल रही है. आकाश में लाली उतर आई है जैसे तुम्हारा लाल दुपट्टा लहरा रहा हो.....उस दिन तुमने भी तो नीले सलवार-क़मीज़ पर लाल दुपट्टा गले में डाल रखा था.’ पहली मुलाक़ात की ताज़गी और स्मृतियों से मैं सहज ही अनुराग रंजित हो उठी.... 

और फिर उस शाम जेम्स से बातें करते हुए मुझे स्पष्ट हुआ कि वास्तव में समस्या मेरी अपनी बनाई हुई थी. इस नए अँग्रेज़ी माहौल से, अँग्रेज़ों के उस बड़े समुदाय से, उनके भाईचारे और उनके आत्म-विश्वास से मैं घबरा उठी थी. अंग्रेजों की धीमी आवाज़, उनकी फर्राटेदार अंग्रेज़ी, अनजाने मुहावरों का मुझ पर उलटा असर पड़ रहा था. साथ ही उनकी गोरी देह, उनकी भद्रता, अलग मुझे आतंकित कर रही थी. मेरे अंदर एक अजीब सा डर और भय (नर्वसनेस) पैदा होने लगा था. मेरे अंदर अंदर बनने वाले रसायन में अवसाद का रिसाव होने लगा था जिसके कारण मैं हीन-ग्रंथि (सुपिरियोरिटी कॉम्प्लेक्स) से ग्रसित होने लगी थी. मेरा अपना व्यवहार धीरे-धीरे श्रेष्ठता के बोध से अकड़ा सा रहने लगा था. मेरी सहजता पर अवांछित गंभीरता हावी होने लगी थी. 

जेम्स को काऊँसिलिंग में अधिक परिश्रम नहीं करना पड़ा. मुझे बहुत जल्दी समझ आ गया कि मैं अपने आपको अन्य अध्यापिकाओं से अलग कर, मन ही मन एक ऊँची कुर्सी पर बैठने की कोशिश कर रही हूँ. मुझे समझ में आ गया कि मुझे उनसे मिलकर, दोस्ती का हाथ बढ़ा कर उस समूह का हिस्सा बनना है. पहले मुझे उनके तौर-तरीकों और रुचियों को समझ उनके तल पर आना होगा....

स्वरांगी ने देखा. आदित्य का चेहरा, उसकी आँखें और नाक सुर्ख हो रहे थे वह कई बार स्वरांगी की नज़र बचा कर उन पर टिशू लगा चुका था. 

इतिहास की पुनरावृत्ती हो रही है मेरे बच्चे, तू अभिजात्य वातस्यायन परिवार का इकलौता वारिस, फिल्मी हीरो सा खूबसूरत AIPMT में तीन सौ प्रतियोगियों में दूसरे नम्बर पर आया बालक, श्रेष्ठता के बोध से ग्रसित है. आदित्य वात्स्यायन तुझे अपना साधारणीकरण करना होगा. तूने अभी तक लेना ही सीखा है मेरे बेटे, देना नहीं. तुझे यहाँ स्वयं अपना किरदार बनाना होगा. सामाजिकता, स्नेह और सौहार्द्र का महत्व समझना होगा. जहाँ अहंकार और स्वार्थ विलीन होता है वहीं से सद्भावना इंसानियत की शुरूआत होती है. 

स्वरांगी, आदित्य के चेहरे पर आते-जाते भावों को ध्यान पूर्वक देखती जा रही थी. उसके मन-मस्तिष्क और हृदय में उठते ज्वार को शीर्ष पर ले जाने का प्रयास ही उसका चर्म प्रयास था. आदित्य के गले में गुठली अटक रही थी. उसकी आँखें बार-बार भर आतीं परंतु वह स्वरांगी की आँखे बचा टिशू से सुखा लेता.

चाइना, जापान, रूस और स्पेन जाने से पहले छात्र उस देश की भाषा का क्रैश कोर्स करते है. हर प्रदेश का अपना गौरवपूर्ण इतिहास होता है. स्थानीय समाज से जुड़ने के लिए उसे उनकी भाषा ही नहीं संस्कृति और संस्कारों को भी आत्मसात करना होता है. उस प्रदेश के गुरु और शिष्य की परंपरा को समझना होता है. अपनी श्रेष्ठता के बोध में हो सकता है तूने एनॉटोमी के प्रोफेसर का अनादर कर दिया हो....इतनी कम उम्र में तूने इतना कुछ हासिल कर लिया कि तुझसे अपनी सफलता का बोझ संभल नहीं रहा है. अपनी बुद्धि और योग्यता के आगे तुझे अन्य सभी उसे बौने लगते है....’

चुप बैठा आदित्य, हिला नहीं. वह अपने आँसुओं को रोकने की बेहतरीन कोशिश कर रहा था.  

अतः आदित्य को भावनात्मक सहारा देने के लिए स्वरांगी, उसके बगल वाली कुर्सी पर आ बैठी उसे अपने दाहिने हाथ के घेरे में लेते हुए देर तक उसके पीठ को सहलाते हुए उसे सांत्वना देती रही फिर उसके हाथ में छोटे लिक्योर के गिलास को पकड़ाते हुए बोली, ‘चीयर्स टु अ न्यू, वाइज़र ऐन्ड अ सोशेबल आदित्य वात्साययन......’

***

Usharajesaxena@gmail.com

7th. July 2020


लेखिका : उषा राजे सक्सेना 

इंग्लैंड में प्रवासी भारतीय के रूप में जीवन-यापन करने वाली जानी मानी लेखिका उषा राजे का पूरा नाम उषा राजे सक्सेना है। वे सर्जनात्मक प्रतिभा-संपन्न एक ऐसी लेखिका हैं जिनके साहित्य में अपने देश, सभ्यता, संस्कृति, तथा भाषा के प्रति गहरे और सच्चे राग के साथ प्रवासी जीवन के व्यापक अनुभवों और गहन सोच का मंथन मिलता है जिससे एक नई जीवन-दृष्टि विकसित होती है। उषा जी की कहानियाँ घटनाओं के माध्यम से अत्यंत गहरे प्रवासी यथार्थ-बोध का मनोवैज्ञानिक परिचय देती है।

हिंदी के प्रचार-प्रसार से जुड़ी उषा

राजे सक्सेना का लेखन (हिंदी, अंग्रेज़ी) इस सदी के आठवें दशक में साउथ लंदन के स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं एवं रेडियो प्रसारण के द्वारा प्रकाश में आया तदनंतर आपकी कविताएँ, कहानियाँ एवं लेख आदि भारत, अमेरिका, एवं योरोप के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहे। आपकी कई रचनाएँ विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनूदित हो चुकी है। कुछ रचनाएँ जापान के ओसाका विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में भी सम्मिलित हैं।

उषा राजे जी ब्रिटेन की एक मात्र हिंदी की साहित्यिक त्रैमासिक पत्रिका 'पुरवाई' की सह-संपादिका तथा हिंदी समिति यू.के. की उपाध्यक्षा है। तीन दशक, आप ब्रिटेन के बॉरो ऑफ मर्टन की शैक्षिक संस्थाओं में विभिन्न पदों पर कार्यरत रही हैं। आपने बॉरो ऑफ मर्टन के पाठ्यक्रम का हिंदी अनुवाद किया।

प्रमुख कृतियाँ

काव्य-संग्रह : 'विश्वास की रजत सीपियाँ,' 'इंद्रधनुष की तलाश में'
संकलन में : 'मिट्टी की सुगंध' (ब्रिटेन के प्रवासी भारतवंशी लेखकों का प्रथम कहानी-संग्रह)
कहानी संग्रह : प्रवास में, वॉकिंग पार्टनर, वह रात और अन्य कहानियाँ।

संपर्क : usharajesaxena@hotmail.com

   





     

 










 

     

 


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