महकतीं मुँड़ेरें
"आज राखी है| भाई
को अभी तक आ जाना चाहिए था न! क्या जरूरत थी वाया ससुराल अपने घर आने की।"
मोहिनी माँ से
शिकायती लहजे में बोली |
"जरूरत थी बिटिया!
जैसे तुम सब अपने भाई को दो सालों बाद आता देख उससे मिलने के लिए उतावली
हुई जा रही हो वैसे तेरी भाभी के भाई-बहन उससे मिलने के लिए तडप रहे होंगे |”
"हाँ तो ठीक है न
माँ !भाभी को छोड़कर तो आ सकता था इसीलिए ही मुझे बच्चों को विदेश भेजना अच्छा नहीं लगता |"
उसने अपनी खीझ उतारते हुए कहा |
उसने अपनी खीझ उतारते हुए कहा |
"अच्छा ठीक है
मोहिनी चल माँ के साथ काम निपटा लें फिर बातें…|"
बड़ी बहन ने कहा
तो छोटी दोनों बहनों ने माँ के साथ मिलकर भाई के पसन्द के ढेरों पकवान बनाये ।घर
की सेटिंग उसकी पसन्द की और ये सब करते हुए दोपहर हो चुकी थी। तीनों बहनें बार
-बार मोबाइल देखे जा रही थीं| राखी-थाल में जलता दिया मानों
जलते-जलते थक चला था। उसमें घी डालने की बात हो ही रही थी कि अचानक फोन बज उठा ।एक
साथ सभी बहनें फोन पर झपट पड़ीं ।
"मम्मी आप बात
कीजिये मोहिनी की बड़ी बहन बोली।"
"हाँ ठीक है।
मुन्ना,कहाँ तक पहुँचा बेटू ?"
माँ की बातें और
चेहरे की उड़ी रंगत देख सभी का दिल धड़क उठा ।
"क्या हुआ मम्मी ?"
तीनों ने पूछा ।
"कुछ नहीं,
मुन्ना आज नहीं कल तक घर आ पायेगा ।"
"कल्लSS...
राखी तो आज है माँ SS...अब क्या करेंगे हम?"
"जीवन भर से जो
मैं करती आ रही हूँ, वही ।"
"क्या माँ SS...।"
"सही कह रही हूँ | तुम लोगों के चार
मामा हैं | कोई भी विदेश में नहीं बसा; सब यहीं हैं |
फिर भी कभी त्योहारों पर नहीं आते | अपनी किस्मत का दोष कहूँ किआज के समय का ?"
माँ की बातें
सुनकर सभी उदासी के झूले पर एक साथ झूल गए|
"ऐसे मुँह लटका कर
मत बैठो | चलो मेरे साथ तुम सब भी राखी बाँधो ।"अपना दुख ज़ब्त करते हुए माँ बोली|
"लेकिन किसको ..।"
तीनों तरफ से आवाज़ें गूँज उठीं ।
"कृष्णातुलसी की
डाली पर और किसको।"
मोहिनी कभी आँगन
में लहलहाती तुलसी को देखती तो कभी माँ के अंतस में उठती दर्द की हिलोर को महसूस
करने की कोशिश करती लेकिन कोई अपनी जगह से हिल नहीं रहा था |
"हेल्लो माय डियर
सिस्टरस !"सन्नाटे में आव़ाज ईको हो उठी |
"अरे मुन्ना तूSS.,
तूने तो ...।"
"हाँ माँ कहा था
क्योंकि मैं आप सभी को थोड़ा नहीं बहुत ज्यादा खुश देखना
चाहता था ।"कहते हुए उसने बाहें फैला दीं | माँ के साथ बहनों ने भाई को गले से लगा लिया |
“तुम सबका स्नेह यूँ ही
फलता-फूलता रहे |” कहते हुए पिता ने दीपक की टिमटिमाती लौ को
ऊँचा कर दिया |
-कल्पना मनोरमा
२.८.२०२०
अति सुंदर। मन प्रसन्न हो गया इस लघुकथा को पढ़कर !
ReplyDeleteबहुत बढ़िया बधाईयाँ।
ReplyDeleteबढ़िया
ReplyDeleteबढिया लघुकथा। सार्थक सोच को दर्शाती ।
ReplyDelete- रेखा
मन प्रसन्न हो गया
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