शब्द आलोक

बच्चों ने आज प्रसन्ना से अतरंगी खाना खाने की इच्छा जताई थी । उनकी डिमांड पर प्रसन्ना थोड़ी परेशान हुई लेकिन अचानक ही उसके मानस पटल पर हमेशा की तरह एक नई युक्ति चमक उठी । वह जल्दी से दौड़ती हुई रसोई में जा पहुँची । बर्तनों के ढक्कन उठाकर देखा तो दोपहर के खाने में बनी चने की दाल ,केले की सब्जीभरवाँ भिंडी और चावलसभी कुछ थोड़ा-थोड़ा डोंगों में बचा पड़ा था ।उसने जल्दी से एक कटोरी सूजी को घी में भूना और दो हरी मिर्च,दो प्याज़ और धनियाँ बारीक-बारीक करता; सभी सामग्री को एक साथ गूँथकर कटलेट तलने लगी । इतने में बच्चे भी रसोई में दौड़े हुए चले आये ।
"क्या कर रही हो मम्माबताओ न?"
"कुछ खास नहीं; बस तुम लोगों के लिए कुछ अतरंगी बनाने की कोशिश रही हूँ।"
"मम्मीइस डिस का नाम क्या है ?"
 प्रसन्ना की मझली बेटी गिन्नी उछलते हुए बोली ।
"नाम तो मुझे पता नहीं लेकिन इसका स्वाद जरूर तुम्हारी जुबान पर चढ़ जायेगा।"
कहते हुए उसके चेहरे पर थोड़ा अहम-सा उभर आया था।
"मम्मीआप ये कैसे कह सकती हो …?"
"क्योंकि ये मेरी क्रियेशन हैइसलिए गिन्नो रानी ।"
"बहुत सुंदर माँ! फिर हमारे लिए हर वक़्त आसमान सिर पर क्यों उठाये रखती होक्यों आपको हमारे ऊपर डाउट बना रहता है?"
प्रसन्ना की कम बोलने वाली बड़ी बेटी चटनी बनाते हुए बोली और ही ही ही हँस पड़ी।
"मतलब ?"
हल्की-बक्की प्रसन्ना ने बेटी की ओर घूरते हुए देखा।
"मतलब ये मम्मी !...हम भी तो आपकी ही क्रियेशन हैं न!"
बड़ी बहन की बातों की पुष्टि करते हुए गिन्नी बोल पड़ी। अवाक प्रसन्ना कढ़ाई में उठते-गिरते तैलीय बुलबोलों में अब स्वयं के अस्तित्व को खोज रही थी ।
 
-कल्पना मनोरमा
19.6.2020
 
 


Comments

  1. कितनी सहजता से जीवन के एक सत्य को रख दिया ... सुंदर भाव ...

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  2. सागर में गागर !!! बढ़िया !!!

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  3. अच्छी कथा , सबसे हटकर ।

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