एकदम ताज़े-टटके और अछूते बिम्बों की संरचना

आदरणीय कुमार रवीन्द्र जी के साथ में कल्पना मनोरमा 
मेरी पहली कृति "कब तक सूरजमुखी बनें हम"को पढ़ते हुए दादा कुमार रवीन्द्र जी की गयी टिप्पणी :


हिन्दी गीतकविता का समकालीन परिदृश्य काफी समृद्ध है।  उसकी विविध नई-नई भंगिमाएँ इस परिदृश्य को रोचक बनाती हैं। इधर के वर्षों में जिन युवा गीतकवियों ने अपनी सुष्ठ सहज कहन से हिन्दी नवगीत में नये आयाम जोड़े हैंं, उनमें एक महत्वपूर्ण नाम है सुश्री कल्पना मनोरमा का। पिछले कुछ समय से पत्रिकाओं और फेसबुक जैसे सोशल मीडिया मंचों के माध्यम से उनके गीतों से परिचित होना मेरे लिए अत्यंत सुखद रहा। और अब उनका प्रवेश गीत-संग्रह 'कब तक सूरजमुखी बनें हम' मेरे सामने है।
 
संकलन के गीतों का मुख्य स्वर आत्मीय संलाप का है। आत्मा के अहसासों को पूरे मनोयोग से कवयित्री ने इन गीतों में वाणी दी है। किन्तु युग-यथार्थ के भी संकेत इस संग्रह की बहुत सी रचनाओं में पूरी शिद्दत से उपस्थित मिलते हैं। इन गीतों के बीच से गुज़रते हुए मुझे इनकी सहज कहन के साथ भाषा के वैविध्य ने विशेष प्रभावित किया है। 'अनुशासन की फसलें, चारों पहर सिले गुदड़ी में, दिशाएँ मोरपंखी, झुकी भित्तियों को अपना कर, आधा सोया-जागा आँगन, राजघरानों के कूपों, निबल सवेरा, अश्व दौड़ा पवन का...चाँदनी की एड़ पर, क्रुद्ध निहाई, वृन्दावन के गीत पावने चकिया गाती' जैसे कुछ भाषिक प्रयोगों के माध्यम से एकदम ताज़े-टटके और अछूते बिम्बों की संरचना इस संग्रह को विशिष्ट बनाती है। हमारे देशज संस्कारों की विविध बिम्बाकृतियाँ इन गीतों में उपस्थित दिखाई देती हैं। घरेलू प्रसंगों के गीत बड़े चित्ताकर्षक बन पड़े हैं।

समग्रतः संकलन की रचनाएँ समकालीन गीतकविता की एक अलग किसिम की भाषिक भंगिमा की ओर और उन संभावनाओं की ओर इशारा करती हैं, जिनसे गीतकविता के नये आयाम परिभाषित होंगे। मुझे पूरी आशा है कि कल्पना के इस संग्रह को सुधी पाठक अपना पूरा दुलार देंगे।

--- कुमार रवीन्द्र
क्षितिज 310 अर्बन एस्टेट-2 हिसार
हरियाणा-125005                             

             

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