सहनशीलता


भारत की भूमि सहनशीला है । जिसकी कीमत सृष्टि के दोनों ध्रुवों को चुकानी पड़ती है | किसी एक को नहीं क्योंकि सृष्टि के चक्र वृत्ति पर जब दोनों समानता से घूमते हैं तो एक से सहनशक्ति की ज्यादा अपेक्षा करना बेमानी है |
सहन के अपने अर्थ होते हैं -पहला, सहने की क्रिया,सहिष्णुता,बर्दाश्त करने की क्षमता । दूसरा- आँगन या चौक ,घर के आगे का खुला भाग,बड़ा थाल ,रेशमी कपड़ा । अब अगर सहन के साथ शक्ति को भी जोड़ दिया जाए तो  अर्थ  में क्या अंतर आएगा ? सहन के साथ जैसे ही शक्ति को जोड़ा गया, उसका एक ही अर्थ निकलकर सामने आया और वह है,सहने का सामर्थ्य या सहन करने की ताकत ।
हमारे भारतीय समाज में तुलसी बाबा की ये चौपाई बहुत ही प्रचलित है कि धीरज,धरम, पुत्र अरु नारी,आपद काल परिखिअहिं चारी |अर्थात अपने साथ रहने वाले की सहनशक्ति की जाँच यदि करनी हो तो अपने जीवन के मुश्किल समय का इन्तजार करना होगा | सुख-दुःख भले ही अति विपरीत लगते हैं लेकिन इनमें गजब का सामंजस्य है | ये एक दूसरे के पूरक हैं क्योंकि सुख कितना भी गाढ़ा क्यों न हो वह छीजता जरुर है और उसके छीजने में अपने -पराये का भान आपको आरम से हो जाएगा | आपत्तिकाल बड़ा ही उबाऊ समय होता है | अच्छे अच्छों की पेशानी पर पसीना झलक आता है | ऐसी हालत में आपके हितैषी, मित्रों और परिवार के लोगों के चरित्र  खुलकर सामने आ ही जाते हैं । फिर चाहे आपका अपना धैर्य हो या जिस धर्म में आपका जन्म हुआ है, उसके नियम कायदे कानून या अपने ही पुत्र की क्रिया कलाप और स्त्री की सच्चरित्रता उसकी नियति को आप खुलकर देख और महसूस कर सकते हैं । परेशानियों में कोई बिरला धैर्यवान ही अपना आपा देकर किसी दूसरे की मदद करने के लिए सामने आता है | फिर चाहे मानसिक सहायता हो या आर्थिक ।
आगे की तीनों बातों को यदि छोड़कर देखें तो  समाज ये भी कहा जाता है कि एक स्त्री का धैर्य पुरुष की जेब में रहता है | जब तक पुरुष की जेब भरी है स्त्री सदानीरा बनकर बहती रहेगी और जहाँ पुरुष की जेब खाली हुई नहीं, सदानीरा का जल भी वाष्पित होकर सूखने लगता है | मतलब एक धैर्यवान स्त्री भी अपना धीरज खोने लगती है और जो इन मुश्किल घड़ियों में भी नहीं सूखती, समाज उसी को सही मायने में सहधर्मिणी कहता है।इस परीक्षा में कभी -कभी स्त्री को अपना पूरा जीवन भी खोना पड़ता है | उसके मरने के बाद श्रद्धाभाव से उसके अपने बच्चे उसे याद करते हैं |
भारतीय परंपरा में एक स्त्री को ही भार्या, वामा, सहधर्मिणी ,आदि नामों से पुकारा जा सकता है | पुरुष को नहीं लेकिन वह तब भी अपने मन के सहन में स्त्री समता और समज्या बनाए रखती है । वह अपने लिए सच में सिर्फ़ मोहनी,सतरूपा,विश्वमोहिनी आदि नाम ही नहीं सुनना चाहती लेकिन फिर भी  हमारे  समाज में स्त्री को ही सहनशक्ति की परिधि पर ज्यादा कसा और इंगित किया जाता है क्यों ? उससी से ज्यादा अपेक्षाएं रखी जाती हैं। क्यों? जबकि ये गुण तो दोनों में ही बराबर मात्रा में होने चाहिए, बल्कि सहनशक्ति ज्यादा मात्रा में होना तो पुरुष में चाहिए क्योंकि गृहस्थी की गाड़ी वही ज्यादा खींचता है, कहते हुए उसको पाया जाता है । खैर...
अब बात आती है आज के भौतिक जीवन की तो आज के समय में पग-पग पर आपको संभ्रांत दिखने वाले लोगों को भी चापलूसी,मक्कारी,छल,कपट,प्रपंच ,धोखेवाजी आदि करते हुए सहज ही देखा जा सकता है । तो क्या हम वैसे ही हो जायें ? जैसे को तैसा देने वाले | और यदि वैसे न हों तो क्या अपना शोषण करवाते रहें ? बड़ा द्वंद्व सामने आकर खड़ा हो जाता है ।तब हम अपने समाज में प्रयोगित युक्तियों पर विचार करते हैं | हम कुछ कविताएँ ,कहानी की पंक्तियाँ ,मुहावरे या लोकोतियाँ ढूंढने लगते हैं | साम-दाम-दण्ड भेद किसी भी तरह से हम अपने मन को मनाने लगते हैं |
एक उदाहरण से समझने कोशिश करते हैं- अपने समाज में सहन करने को लेकर बड़ी कहानी-किस्से कहे-सुने जाते हैं | जिनका अंत किया ही नहीं जाता है या किया जाता है तो पात्र के अनुसार अपने ढंग का | अब एक कहानी देखते हैं - एक बार एक सन्यासी नदी पर स्नान करने गये  थे | उन्होंने नदी के जल में एक बिच्छू को बहते हुए देखा | संन्यासी का हृदय करुना से भर गया | सन्यासी ने बिच्छू को निकालने का विचार किया | वह उसे बाहर निकालने के लिए बार-बार जल समेत बिच्छू को अपनी अँजुरी में भरते और वह बेरहमी से सन्यासी के हाथ में डंक मार देता | लेकिन ऋषि ने अपना काम तब तक नहीं छोड़ा जब तक बिच्छू को किनारे पर नहीं रख दिया.....और कहानी कहने वाला मौन हो जाता है |
लेकिन उस कहानी वाचक से पूछो कि भाई अभी आधी कहानी कहना बाकी है | वो ये कि क्या सन्यासी बिच्छू के असंख्य डंकों से डंकित होकर जिंदा बचा होगा ? या उस सन्यासी को अपना जीवन त्यागना पड़ा होगा ? या बिच्छू ने ऋषि की सहनशक्ति को देखकर अपना विष त्याग दिया होगा ? इसका वर्णन कहानी सुनाने वाले ने कभी किया ही नहीं | इस बात को कहते हुए मुझे वो लोकोक्ति याद आ रही है कि जो अति का सीधा होता है वह अपना नाश कराता है, गन्ने को तो देखो भाई कोल्हू में पेरा जाता है । आज का समय द्वंद्व का समय है इसलिए हल ढूढ़ने में बड़ी मशक्क्त करनी पड़ती है | हमारे लिए क्या अच्छा है क्या बुरा | समझने के लिए दिमाग को मथना पड़ता है क्योंकि शेर की खाल में  शेर कम भेड़िये ज्यादा छिपे मिलते हैं |
चापलूसी ,धोखाधड़ी जैसे तमाम गुण-धर्म  कलियुग के विशेषण हैं या ये कह सकते हैं कि कलियुग के प्राणतत्व है। आज के समय में जो व्यक्ति जितना मशीनी होगा,वह उतना ही उक्त गुणों को धारण करने वाला होगा क्योंकि इन गुणों के बिना कलियुग की मशीनें चल ही नहीं सकतीं। कलियुग की मशीनों में उक्त गुण तेल का काम करते हैं | मशीनी कलपुर्जे इससे चिकने होकर उन्हें अच्छी गति देते हैं |
अब जब ये बात समझ आ जाए तो यहाँ व्यक्ति को अपना आँकलन स्वयं ही करना होगा कि उसको अपने मन के भीतर कितना संसार घुसाना है| कितने संसार को अपने लिए चुनना है या कितने संसार को वर्जित समझकर कभी देखना ही नहीं है । 
वैसे देखा जाए तो संसार से हम उसी प्रकार प्रभावित होते हैं जिस प्रकार हवा जब चलती है तो दूब घास से लेकर बरगद -पीपल तक सब उसकी रवानगी में रम जाते हैं और जब हवा तूफ़ान का रूप लेती है तो सभी स्वयं को बचाने में लग जाते हैं या उसी की धुन में आकर टूटकर बिखर जाते हैं लेकिन कई बार एक कमजोर पेड़ तूफ़ान से प्रभावित तो होता है लेकिन बगल में खड़ा हुआ बड़ा पेड़ उसे सहारा देकर बचा लेता है लेकिन उसी तूफ़ान में कई मजबूत दरख्त भी ढह जाते हैं जो ये समझते हैं कि हमें किसी की आवश्यकता नहीं । 

ध्यान से देखा जाए तो प्रकृति से सब कुछ सीखा जा सकता है । प्रकृति के सभी उपादानों में से दूब घास मुझे अति प्रिय है । मैं इसी के गुणों को अपने और अपनों के लिये चुनना चाहूंगी क्योंकि उसे झुकने में शर्म नहीं आती लेकिन अपना अस्तित्व भी नहीं छोड़ती । उसे न बरगद से होड़ होती है न उपवन में लगे हुए उस चमेली के पौधे से जिसके ऊपर दिन-रात भौंरे ,तितलियाँ और मधुमक्खियाँ प्रेम में भरकर मंडराया करती हैं | शायद  इसीलिए  वह पुरवाई और तूफ़ान दोनों में सुरक्षित बची रह जाती है ।
मानव को सजीवता प्रदान करने के लिए जितने भी गुण हैं, वे आत्मा के अलंकार हैं और शरीर संसार की धरोहर । आत्मा परमात्मा का अंश है और शरीर संसार से उपजता है | मतलब पाँच तत्व जो हमें दिखते हैं  वे सूक्ष्म नहीं हो सकते इसलिए उसमें स्थूलता तो अनायास ही समाहित हो जाती है और जहाँ स्थूलता है वहां रोग है । स्थूलता चाहे शरीर की हो या बुद्धि की। सूक्ष्मता शुद्ध है और स्थूलता अशुद्ध है | हम देख सकते हैं कि जो शरीर जितना स्थूल होगा वह रोगों को उतने ही जल्दी ग्रहण कर लेगा । वही सूत्र बुद्धि के लिए भी लागू होता है जो बुद्धि जितनी स्थूल होगी उतनी हतबुद्धि होगी या संसारी बुद्धि होगी ।वह ईश्वर की उपासक हो ही नहीं सकती, भले घण्टी बजाने और सत्संग सुनने का उपक्रम करती रहे । वह तो ईश्वरीय माया की उपासक होगी ।जिसका काम ही जीव को संसार के आवागमन में फँसाए रखना है । वैसे देखा जाए तो सहनशीलपन या लचीलापन उतना ही अच्छा होता है जितना कि व्यक्ति आत्मग्लानि से न भरने पाए । जितना वह अपना स्वाभिमान का हनन होने से स्वयं को बचा ले | आत्मरक्षा करते हुए यदि सहनशक्ति को भी धारण करनी पड़े तो उसमें में कोई बुराई नहीं ।


कल्पना मनोरमा 


२३.६.२०२०


Comments

  1. बहुत अच्छी तरह परिभाषित किया ।

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  2. बहुत सटीक लेखन

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  3. सहनशीलता का सन्दर्भ परिस्थितियों पर निर्भर है. इसे स्त्री या पुरुष में बाँटा नहीं जा सकता है.

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  4. बात रखने का रोचक अन्दाज़ ...
    अच्छे विषय को बख़ूबी लिखा है ...

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  5. पुरुष हो या स्त्री सभी को दूब की तरह होना चाहिए, जिसमें अपार सहनशक्ति होती है। बहुत विचारणीय लेख।

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  6. धीरज,धरम, पुत्र अरु नारी,आपद काल परिखिअहिं चारी || अर्थात अपने साथ रहने वाले की सहनशक्ति की जाँच करनी हो तो अपने जीवन के मुश्किल समय का इन्तजार करना होगा क्योंकि आपत्तिकाल बड़ा ही उबाऊ समय होता है | अच्छे अच्छों की पेशानी पर पसीना झलक आता है |ऐसी हालत में आपके हितैषी, मित्रों और परिवार के लोगों के चरित्र खुलकर सामने आ ही जाते हैं । चाहे अपना धैर्य हो या जिस धर्म में हमारा जन्म हुआ है
    बहुत ही बढ़िया ,एक अहम बिषय
    ...........

    मैं वो किस तरह से करूँ बयां
    जो किये गये है सितम यहां
    सुने कौन मेरी ये दास्तां
    कोई हमनसी है न राजदा ,
    मेरी जात ज़र्रा ये बेनिसां
    मेरी जात ज़र्रा ये बेनिसां
    कभी भीगी पलकों से जागना
    कभी बीते लम्हों को सोचना
    मगर एक पल है उम्मीद का
    है मुझे खुदा का जो आसरा
    नहीं मैने कोई गिला किया
    नही मैने दी है दुहाइयाँ
    मेरी जात ज़र्रा ये बेनिसां
    मैं बताऊ क्या मुझे क्या मिले
    मुझे सब्र का ही सिला मिले
    किसी याद ही की किरदा मिले
    किसी दर्द का ही सिला मिले
    बस यही है सब्र
    कुछ इसी तरह होती है सहनशीलता, सहनशक्ति

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  7. भूमि,धरा सहनशीला है तो गगन भी सहनशील है।
    पुरुष शारीरिक रूप से सहनशील है तो स्त्री मानसिक रूप से सहनशीला है। फिर भी स्त्री सहनशीलता की प्रतिमूर्ति है। क्योंकि वो जननी है।और जननी की सहने की क्षमता ही उसे महान और सहनशीला बनाती है। किन्तु आज के सन्दर्भ में हर रूप के अपवाद हैं। इंसान परिस्थितियों का दास है।

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