भय का भूत
"अजी सुनते हो ?" प्रमिला की माँ ने अपने पति को लगभग चिल्लाते हुए आवाज़ लगाई । पत्नी की आवाज़ के भावावेग ने उन्हें दौड़ने पर मजबूर कर दिया ।
"क्या हुआ भाग्यवान! तबियत तो ठीक है न!'
प्रमिला के बाबू जी ने हड़बड़ाकर पूछा तो प्रमिला की माँ टेढ़ी मुस्की के साथ बोल पड़ी ।
"हमें कुछ नहीं हुआ है जी ।अपनी पम्मी, अब अच्छी कविता लिखने लगी है ।आज तो गजब ही हो गया । देखो किताब में उसकी कविता और अपने गाँव का नाम छपा है ।" कहते हुए प्रमिला की माता जी दौड़कर पैसा कोड़ी ले आईं और किताब के साथ प्रमिला का उतारा कर बोली "नजर न लागे हमरी बिटेऊ को हमरा कुल उज्जर कर दीन्ह।"
"प्रमिला ज़रा अपनी अम्मा को पानी तो पिलाओ, लगता है आज ज़्यादा ही भावुक हो गई हैं।"
"अच्छा बाबूजी !अभी लाये।"
प्रमिला माँ को पानी का गिलास पकड़ा कर मुड़ी तो बाबूजी ने उसे रोक लिया।
"देखो बिटिया,खूब लिखो और खूब छपो, हमें कुछ मतलब नहीं लेकिन यदि मंचों की ओर पाँव बढ़ाया तो फिर हमें भूल जाना !"
"बाबूजी ,आप ऐसे क्यों बोल रहे हैं ?"
"बसSS पम्मी हम जो कहे, सो गाँठ बाँध लो ...।"
अपनी बात कहकर बाबूजी तो चले गए लेकिन प्रमिला मंच और कविता की अनसुलझी गुत्थी में फँस गई।
-कल्पना मनोरमा
19.6.2020
समसामयिक लघुकथा
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