प्रथम का द्वंद्व

पहला शब्द जितना महत्वपूर्ण होता है,उतना ही धुकधुकी  भरा भी होता है। एक स्त्री जब पहली बार माँ बनती 
है तो उसके मन को एक नहीं कई आशंकाएँ घेरे रहती हैं जैसे क्या उसका प्रशव सुरक्षित होगा? क्या उसके पेट में पल रहे शिशु के समस्त अंग दुरुस्त होंगे ? क्या शिशु संवेदनशील होगा? क्या वह माँ की भाँति दिखेगा या पिता की भाँति? क्या आने वाला बच्चा कुल का रक्षक होगा या विध्वंशक ? क्या वह हमारी कुल परम्पराओं का वाहक बनेगा ? क्या बुढ़ापे की लाठी बनेगा ? क्या मानवीय गुणों से युक्त होगा? इतना सब सोचने के बाद भी माँ प्रथम  के बारे में सोचना बंद नहीं करती है।
 जब ऊपर लिखी बातों के लिए दिन -रात देवी-देवता मना-मना कर मन को पुख़्ता कर लेती है और उसे लगने लगता है कि उसके द्वारा की गईं प्रार्थनाएँ परमात्मा ने पूर्णरूपेण सुन भी ली हैं और पूरा भी कर देगा। 
तब वह कुछ और नया सोचना शुरू करती है ।अब उसकी नजर जाती है अपने और पति के बचपन की ओर । छानबीन पूरी होने के बाद अब बारी आती है ,सपने पूरे करने की ।जितने-जितने खड्डे या रिक्त स्थान जो उसने अपने होने से नहीं भर पाए थे ,उसके लिए प्रार्थनाएँ आरम्भ हो जाती हैं । क्या मेरा बच्चा कुल खानदान की नाक ऊँची करने वाला होगा ? एक दिन मन्दिर में डॉक्टर बनने की अर्जी दे आएगी दो दूसरे दिन माफी के साथ कोई नया पेशा या नौकरी के लिए अर्जी देने चली जाएगी या एक नया पेशा की मनौती कर आएगी | यहाँ भी प्रथम के दवाब में रहेगी और पहले शब्द से स्त्री को छुटकारा नहीं मिलेगा । 
बच्चे के जन्म के बाद माँ के संवेदनशील हृदय में "प्रथम शब्द " का अतिक्रमण बन्द नहीं होता बल्कि बच्चे साथ एक नया द्वन्द्व जन्म लेता है  ।अब बारी है नवजात शिशु को आदर्श पुरुष या आदर्श महिला बनाने की | जितने नियम, कायदे,कानून उसने अपने बढ़ने के दौरान सुने ,सीखे और देखे वे और जो अपनी बुद्धि के अनुसार समाज -वातावरण से लिये वे सब उस नवांकुत के ऊपर लागू किए जाने लगते हैं । जिस शिशु की सीखने की क्षमता में माँ को जानना और अपनी भूख का इज़हार करना भर होता है ।उसे पढ़ाई लिखाई और नित्यक्रिया जैसे जटिल नियम भी सिखाए जाने लगते हैं ।
बिना इस बात की सोच रखे कि जिस जीव को पृथ्वी पर लाने के लिए वह माध्यम बनी है आख़िर उसके अपने भी तो कुछ कर्मपुंज होंगे | उसके अपने रास्ते होंगे और अपनी मंज़िलें होगी ।
अब स्त्री धीरे-धीरे अनुभवशीला होने लगेगी लेकिन प्रथम का आतंक कम नहीं होगा |  उसी प्रकार पहले पुत्र की शादी के समय बहू और पुत्री की शादी के समय दामाद की चिंता माँ के साथ-साथ समस्त परिवार को ऐसे घेरे रहती है, जैसे सूखा रोग। उनके गृह पदार्पण से पहले ही ढेरों अपेक्षाएँ अपनी बाँहें फैलाए सदरद्वार पर उन्हें प्रतिक्षारत मिलती हैं ,बिना नवयुगल के कच्चे-पक्के अरमानों को ध्यान में रखते हुए ।
इस प्रथम में आखिर इतना आकर्षण क्यों है ?क्यों हम एक बार मिलकर ही किसी अपरचित के लिए अपने मन में उसके स्वभाव के लिए पक्की राय बना लेते हैं ? क्यों हम पहले बच्चे के सिर पर सवार रहते हैं और दूसरे -तीसरे को ये कहकर छोड़ देते हैं कि अभी बच्चा है,बड़ा होगा तो सब समझ जाएगा ।
मुझे तो अब ये लगने लगा है कि रचनाकार-लेखक भी इस प्रथम शब्द से भयभीत रहता है जब उसकी पहली कृति लोकार्पित होती है |

पहली कृति के लोकार्पण से कुछ दिन पहले लिखा गया लेख |

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