सुनो स्त्री!

 


थरथराता हुआ उजाला

उतरा जब आसमान से

पेड़ ने साध लिया पहले कंधों पर

फिर धीरे से उतार दिया

धरती पर

जैसे झुनझुना पकड़ा कर

सुला देती है पालने में शिशु को

पनिहारिन माँ

तूफान में कांपते विकल पेड़ों को

थाम लेती है पृथ्वी

जैसे बरसाती आवारा बूंद को

पी लेती है अधचटकी सीप

सुनो स्त्री!

तुम किसके बल बूते

हंसने की हिम्मत जुटाती हो?

न न न बताना मत!

मौलिकता का अपहरण हो जायेगा

मैंने तो सिर्फ प्रश्न पूछकर

तुम्हें, तुम्हारा होना याद दिलाया है

जैसे

रोटी नहीं बनी है क्या?

पूछकर मां से

याद दिला देते थे बाबा

मुझे, भूख की

उत्तर की मारकता

प्रश्न के विस्तार में निहित है

तुम्हें चौकन्ना रहना होगा।

Comments

  1. तुम किसके बल बूते

    हंसने की हिम्मत जुटाती हो?

    न न न बताना मत!

    मौलिकता का अपहरण हो जायेगा

    मैंने तो सिर्फ प्रश्न पूछकर

    तुम्हें, तुम्हारा होना याद दिलाया है.

    बेहतरीन अभव्यक्ति ।

    ReplyDelete
  2. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार 01 जुलाई 2022 को 'भँवर में थे फँसे जब वो, हमीं ने तो निकाला था' (चर्चा अंक 4477) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

    ReplyDelete
  3. वाह! गहनता लिए सराहनीय सृजन।

    सुनो स्त्री!
    तुम किसके बल बूते
    हंसने की हिम्मत जुटाती हो?
    न न न बताना मत!
    मौलिकता का अपहरण हो जायेगा... वाह! गज़ब कहा दी 👌

    ReplyDelete
  4. मौलिकता का अपहरण !!!
    वाह!!!
    क्या बात...
    बहुत ही लाजवाब सृजन।

    ReplyDelete
  5. बेहतरीन भावाभिव्यक्ति।

    ReplyDelete
  6. संगीता जी, रविन्द्र जी, अनीता सैनी जी, सुधा जी और स्वेता सिन्हा जी आप सभी का बहुत धन्यवाद!!

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

कितनी कैदें

बहस के बीच बहस

आत्मकथ्य