नब्बे की अम्मा

नब्बे सीढ़ी उतरी अम्मा
मचलन कैसे बची रह गई।।

नींबू,आम ,अचार मुरब्बा
लाकर रख देती हूँ सब कुछ
लेकिन अम्मा कहतीं उनको
रोटी का छिलका खाना था
दौड़-भाग कर लाती छिलका
लाकर जब उनको देती हूँ
नमक चाट उठ जातीं,कहतीं
हमको तो जामुन खाना था।।

जर्जर महल झुकीं महराबें
ठनगन कैसे बची रह गई।।

गद्दा ,तकिया चादर लेकर
बिस्तर कर देती हूँ झुक कर
पीठ फेर कर कहतीं अम्मा
हमको खटिया पर सोना था
गाँव-शहर मझयाये चलकर
खटिया डाली उनके आगे
बेंत उठा पाटी पर पटका
बोलीं तख़्ते पर सोना था

बाली, बल की खोई कब से
लटकन कैसे बची रह गई।।

फगुनाई में गातीं कजरी
हँसते हँसते रो पड़ती हैं
पूछो यदि क्या बात हो गई
अम्मा थोड़ा और बिखरती
पाँव दबाती सिर खुजलाती
शायद अम्मा कह दें मन की
बूढ़ी सतजुल लेकिन बहकर
मन से मन तक खूब बिसुरती

जमी हुईं परतों के भीतर
विचलन कैसे बची रह गई?

-कल्पना मनोरमा
18.6.20

Comments

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार(२१ -०६-२०२०) को शब्द-सृजन-26 'क्षणभंगुर' (चर्चा अंक-३७३९) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    --
    अनीता सैनी

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  2. गज़ब ..एक पूरी तस्वीर उतारकर रखदी आपने कि मुझे दादी की याद आगई . वे भी ऐसा ही कुछ करती थीं . बहुत ही खूबसूरत रचना . बधाई कल्पना जी .

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  3. वाह!!!
    बहुत सुन्दर सृजन

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  4. वाह गजब!!
    बहुत बहुत सुंदर मन को लुभाती ।
    एक यथार्थ का दर्शन करवाती सुंदर कविता ।

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