कमल पत्ते-सा हरा-भरा गाँव

अभी दीवाली के दिन आये नहीं हैं और हवा में ठंडक आ गयी हैये बदलाव प्रकृति के समृद्ध होने का सूचक कहा जाएगा अभी तो ये आते हुए सितम्बर की शाम है बहती हवा में सर्द खुनक दौड़ रही है मन हो रहा है कि एक खादी का सूती दुपट्टा ओढ़ लें, थोड़ा मोटा कपड़ा होता है न खादी के दुपट्टे काचाय का कप लिए आज ऐसे ही बालकनी में आने का मन हो गयाचारों ओर नहाए-धोये पेड़-पौधे ख़ुशी में सर हिला- हिला कर झूम रहे हैंकोरोना ने आदमी को कितना ही दुःख क्यों न दिया हो लेकिन प्रकृति को बड़ा संतोष प्रदान किया हैबालकनी में फैली मालती की बेल की हौंस देखकर भला कौन कहेगा ये दुखी हैइसकी प्यारी छटा से लगभग बालकनी भर चुकी हैमुझे दीवार के पास खड़ा देखकर मालती की एक लता ने मेरे काँधे पर धप्पा मारा जब मैंने उसे छूने को हाथ बढ़ाया तो हरी-हरी किलकारी मारकर दूर भाग गयीअभी उसकी मनुहार से मन रोमांचित हो ही रहा था कि आसमान की ओर मेरी दृष्टि चली गयीपंछियों की कतारें तो नहीं कह सकती  इस महानगर में लेकिन काफी पंछी अपने नीड़ों  की ओर लौट रहे हैंइक्का-दुक्का गौरैयाँ अभी भी अपने खेल में मगन हैं, शायद उनके घर यहीं आसपास के घरों में ही हैं

शाम का रुख देखकर लग रहा है कि सूरज अस्ताचल की ओर मुखातिब हो चला हैपश्चिम के दूर क्षितिज पर लग रहा है मानो किसी स्त्री ने चूल्हे में ढेर सारी लकड़ियाँ एक साथ जला दी हैंजिनमें मानो वह भुट्टे भून रही है। आग की रेशमी गुनगुनाहट के साथ आकाश से लेकर धरती तक लालिमा पसरती जा रही हैवहीँ पूरब की ओर से संध्या ने अपना स्लेटी आँचल खोलकर लहराना शुरू कर दिया हैहवा वृक्षों की फुनगियों से उलझ-उलझ कर बहनापा दिखा रही हैइतने में हवा के एक कोमल झोंके पर सवार होकर मेरा छुटपन का मन छलाँगें मारता हुआ महानार से दूर उत्तर प्रदेश की औरैया तहसील में बसा एक कमल पत्ते-सा हरा-भरा गाँव अटा जा पहुँचावहाँ ये समय मक्की की आखरी खेप आने का होता हैबरसात विदा हो चुकी होती हैकांस घास बम्बा और कूलों पर फूलकर सहर्ष उसे विदाई दे चुकी  होती  है लेकिन धरती और खेतों की मिट्टी में वर्षा की नमी बची रहती है, जिसके साथ मिलकर पवन मौसम में ठंडक घोलने लगता हैबरसात के दिनों में दीवारों पर जमी काही धूप से चटकने लगती है दिन सुनहरे और रातें ओस से भरीं होने लगती हैं 

इन दिनों की शामों में कुछ लोग भोजन करते हैं तो कुछ भुट्टे भुनवाकर खाते हैगाँव के अपने रँग रूप होते हैं। कितने ही शहर वाले वहाँ आयें-जायें गाँव किसी की नकल नहीं करता हैवह तो अपने आमों के बागों में और बरगद के नीचे लगी चौपालों में तीन पीढ़ी की कहानियों का लेन-देन इतने चाव से करता है कि दूर से देखने वालों को लगे कि बड़ी जरूरी चर्चा चल रही है। मेरा बचपन का घर गाँव के बाहर की ओर आम के बड़े से बाग में बना है। वहाँ लान में पड़े तखत पर बैठ कर शाम भुट्टे खाने का आनन्द कुछ और ही होता था लान में लगे अशोक,गुलमोहर,अमरूद,हरसिंगार,कनेर और घर के आस-पास नीम-आम के बड़े-बड़े पेड़, जिनकी डालियों पर साँझ होते छोटे  पंछी न के बराबर दिखते थेशायद वे अपने घोंसलों में या शाखों के दुबग्घे में छिपकर सोते होंगे इसीलिए सिर्फ मोरें ही ऊँची डालियों पर निडरता से बैठ कर ऊँचाई का अकेले आनन्द उठाती थीं। पक्षियों के घर लौटने का क्रम शाम के साढ़े चार-पाँच के बीच प्रारम्भ हो जाता थाउनके संध्या विश्राम के बाद जितनी देर उजाला रहता वे चुपचाप बैठी रहतीं और जैसे ही माँ ने दीपक जलाया नहीं कि उधर मोरें भी मेहों मेहों मेहों की गुहार लगाकर संझाती गाने लगतीं थींहाँलाकि गाते तो सारे पंछी होंगे लेकिन मोरों की तीखी आवाज़ में नन्हीं आवाजें दब जाती थीं माँ की आरती "ओम जय जगदीश हरे...के बोल ठाकुर जी की अलमारी से होते हुए तुलसी के घरुये के पास आकर शांत हो जातेनिर्मल आकाश के नीचे तुलसी के पास जलता छोटू-सा दीया मन में अपार श्रद्धा भर देता था और दिन के उस समय तक आते-आते माँ भी अपने बालों को ठीक से चोटी में गूँथ लेती थीं इसलिए माँ के गोल चेहरे पर लगी कत्थई बिंदी मेरे मन को प्रेमिल सुरक्षा के भाव से भर देती थी उस समय मुझे अपनी माँ बेहद खूबसूरत लगती थीं  आरती-भजन के बाद सभी अपने काम में लग जाते लेकिन मैं थोडा और झुरपुटा होने का इन्तजार करती वहीं तखते पर जमी रहती। उन दिनों मुझे तारों से भरा आसमान और टूटता हुआ तारा देखने का एक चस्का लग गया थाक्योंकि मेरी सहेलियों ने बताया था कि टूटते तारों से जो मांगों, पूरा हो जाता है इसलिए ये गतिविधि तब और ज़ोर पकड़ती  जब मेरे इम्तहान नजदीक आने को होतेघंटों तारा टूटने का इंतजार करती यदि भाग्य से तारा टूटा तो मन्नत माँग भी लेती और पूरी हो जायेगी ये विश्वास भी कर लेती

बाग़ के किनारे-किनारे चुआ हरे लम्बे-लम्बे बाँसों के बड़ी-बड़ी कोठियाँ हैं लेकिन उन बाँसों के बीच बिरला ही पंछी अपना नीड़ सजाता होगा क्योंकि जब हवा भी उनके बीच से निकलने की कोशिश करती तो वह भी चीख़ उठती और एक नीरव जादू सा वातावरण में फैल जाता अब बाँस को ये बात कौन बताये कि आपकी ऊँचाई से कोई प्रभावित नहीं होता जब तक कि आप उसको मिलने के लिए अपने हाथों को आगे नहीं बढ़ाते और विनम्रता से थोड़ा झुक नहीं जाते तब तक कौन आपकी ओर आकर्षित होगाएक मन की प्रेमिल बातें, दूसरे मन को बतानी नहीं पड़तीं वे बातें तो वह बिना बोले ही  सुन लेता हैलेकिन ये बात बाँस महाशय नहीं समझते वे तो बस ऊँचे उठने की होड़ में अपने अगल-बगल किसी की ओर देखते तक नहीं हैं खैर... 

ग्रामीण रातों के शांत वातावरण में तीख़ी आवाज़ के रूप में यदि कुछ सुनाई पड़ता तो पंछियों के कंठ की कोरी पुकारें या गायों का अपने बछेरुओं के लिए रंभाना।

गाँव की रात इतनी काली होती जैसे नवसिखिया माँ ने अपने बच्चे की आँखों में ऊँगली भर काजल आँज दिया हो और जब कोई उस बच्चे को देखता तो उसे सब  काला-काला ही दिख रहा होता हैकृष्णपक्ष में माँ एक लेम्प, लालटेन या एक मिट्टी के तेल का दीपक देहरी पर जलाकर हमेशा रखती थीं फिर भी मुझे घर अँधेरे से भरा लगता रहता  और इस  लगने में मुझे डर भी बहुत लगता थावहीँ  जब शुक्लपक्ष होता तो चाँद इतनी रौशनी छोड़ता कि यदि कोई करना चाहे तो चावल भी साफ़ करलेगाँव की सन्नाटे वाली रातों में दरवाज़ों की खुलन और झिंगुरी की झनझनाहट या पेड़ों पर बैठे पखेरूओं की बोली जो कि वे पहर बदलने पर बोलते हैं, जब सुनाई पड़ती थी तो मेरे छुटकू से मन के लिए नीम सन्नाटे में आतीं आवाज़ें रोंगटे खड़े कर देने वाली हो जाती थीं खैर...

आज सर्द-सी खुनक शाम में महसूस हुआ कि महानगर होशियार हो सकते हैं लेकिन भावुक नहीं।

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Comments

  1. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार ( 7 सितंबर 2020) को 'ख़ुद आज़ाद होकर कर रहा सारे जहां में चहल-क़दमी' (चर्चा अंक 3817) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    --
    -रवीन्द्र सिंह यादव

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  2. बहुत सुन्दर

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  3. बहुत सुन्दर संस्मरण...
    प्रकृति की छटा बिखेर दी मनोमस्तिष्क में।

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  4. बहुत सुंदर संस्मरण

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  5. बहुत सुंदर।
    अभिनव शैली।

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