कमल पत्ते-सा हरा-भरा गाँव
शाम का रुख देखकर लग रहा है कि सूरज अस्ताचल की ओर मुखातिब हो चला है। पश्चिम के दूर क्षितिज पर लग रहा है मानो किसी स्त्री ने चूल्हे में ढेर सारी लकड़ियाँ एक साथ जला दी हैं। जिनमें मानो वह भुट्टे भून रही है। आग की रेशमी गुनगुनाहट के साथ आकाश से लेकर धरती तक लालिमा पसरती जा रही है। वहीँ पूरब की ओर से संध्या ने अपना स्लेटी आँचल खोलकर लहराना शुरू कर दिया है। हवा वृक्षों की फुनगियों से उलझ-उलझ कर बहनापा दिखा रही है। इतने में हवा के एक कोमल झोंके पर सवार होकर मेरा छुटपन का मन छलाँगें मारता हुआ महानार से दूर उत्तर प्रदेश की औरैया तहसील में बसा एक कमल पत्ते-सा हरा-भरा गाँव अटा जा पहुँचा। वहाँ ये समय मक्की की आखरी खेप आने का होता है। बरसात विदा हो चुकी होती है। कांस घास बम्बा और कूलों पर फूलकर सहर्ष उसे विदाई दे चुकी होती है लेकिन धरती और खेतों की मिट्टी में वर्षा की नमी बची रहती है, जिसके साथ मिलकर पवन मौसम में ठंडक घोलने लगता है। बरसात के दिनों में दीवारों पर जमी काही धूप से चटकने लगती है। दिन सुनहरे और रातें ओस से भरीं होने लगती हैं।
इन दिनों की शामों में कुछ लोग भोजन करते हैं तो कुछ भुट्टे भुनवाकर खाते है। गाँव के अपने रँग रूप होते हैं। कितने ही शहर वाले वहाँ आयें-जायें गाँव किसी की नकल नहीं करता है। वह तो अपने आमों के बागों में और बरगद के नीचे लगी चौपालों में तीन पीढ़ी की कहानियों का लेन-देन इतने चाव से करता है कि दूर से देखने वालों को लगे कि बड़ी जरूरी चर्चा चल रही है। मेरा बचपन का घर गाँव के बाहर की ओर आम के बड़े से बाग में बना है। वहाँ लान में पड़े तखत पर बैठ कर शाम भुट्टे खाने का आनन्द कुछ और ही होता था। लान में लगे अशोक,गुलमोहर,अमरूद,हरसिंगार,कनेर और घर के आस-पास नीम-आम के बड़े-बड़े पेड़, जिनकी डालियों पर साँझ होते छोटे पंछी न के बराबर दिखते थे।शायद वे अपने घोंसलों में या शाखों के दुबग्घे में छिपकर सोते होंगे इसीलिए सिर्फ मोरें ही ऊँची डालियों पर निडरता से बैठ कर ऊँचाई का अकेले आनन्द उठाती थीं। पक्षियों के घर लौटने का क्रम शाम के साढ़े चार-पाँच के बीच प्रारम्भ हो जाता था। उनके संध्या विश्राम के बाद जितनी देर उजाला रहता वे चुपचाप बैठी रहतीं और जैसे ही माँ ने दीपक जलाया नहीं कि उधर मोरें भी मेहों मेहों मेहों की गुहार लगाकर संझाती गाने लगतीं थीं। हाँलाकि गाते तो सारे पंछी होंगे लेकिन मोरों की तीखी आवाज़ में नन्हीं आवाजें दब जाती थीं। माँ की आरती "ओम जय जगदीश हरे...के बोल ठाकुर जी की अलमारी से होते हुए तुलसी के घरुये के पास आकर शांत हो जाते। निर्मल आकाश के नीचे तुलसी के पास जलता छोटू-सा दीया मन में अपार श्रद्धा भर देता था और दिन के उस समय तक आते-आते माँ भी अपने बालों को ठीक से चोटी में गूँथ लेती थीं इसलिए माँ के गोल चेहरे पर लगी कत्थई बिंदी मेरे मन को प्रेमिल सुरक्षा के भाव से भर देती थी। उस समय मुझे अपनी माँ बेहद खूबसूरत लगती थीं। आरती-भजन के बाद सभी अपने काम में लग जाते लेकिन मैं थोडा और झुरपुटा होने का इन्तजार करती। वहीं तखते पर जमी रहती। उन दिनों मुझे तारों से भरा आसमान और टूटता हुआ तारा देखने का एक चस्का लग गया था। क्योंकि मेरी सहेलियों ने बताया था कि टूटते तारों से जो मांगों, पूरा हो जाता है। इसलिए ये गतिविधि तब और ज़ोर पकड़ती जब मेरे इम्तहान नजदीक आने को होते। घंटों तारा टूटने का इंतजार करती यदि भाग्य से तारा टूटा तो मन्नत माँग भी लेती और पूरी हो जायेगी ये विश्वास भी कर लेती।
बाग़ के किनारे-किनारे चुआ हरे लम्बे-लम्बे बाँसों के बड़ी-बड़ी कोठियाँ हैं लेकिन उन बाँसों के बीच बिरला ही पंछी अपना नीड़ सजाता होगा क्योंकि जब हवा भी उनके बीच से निकलने की कोशिश करती तो वह भी चीख़ उठती और एक नीरव जादू सा वातावरण में फैल जाता। अब बाँस को ये बात कौन बताये कि आपकी ऊँचाई से कोई प्रभावित नहीं होता जब तक कि आप उसको मिलने के लिए अपने हाथों को आगे नहीं बढ़ाते और विनम्रता से थोड़ा झुक नहीं जाते तब तक कौन आपकी ओर आकर्षित होगा। एक मन की प्रेमिल बातें, दूसरे मन को बतानी नहीं पड़तीं वे बातें तो वह बिना बोले ही सुन लेता है। लेकिन ये बात बाँस महाशय नहीं समझते वे तो बस ऊँचे उठने की होड़ में अपने अगल-बगल किसी की ओर देखते तक नहीं हैं। खैर...
ग्रामीण रातों के शांत वातावरण में तीख़ी आवाज़ के रूप में यदि कुछ सुनाई पड़ता तो पंछियों के कंठ की कोरी पुकारें या गायों का अपने बछेरुओं के लिए रंभाना।
गाँव की रात इतनी काली होती जैसे नवसिखिया माँ ने अपने बच्चे की आँखों में ऊँगली भर काजल आँज दिया हो और जब कोई उस बच्चे को देखता तो उसे सब काला-काला ही दिख रहा होता है।कृष्णपक्ष में माँ एक लेम्प, लालटेन या एक मिट्टी के तेल का दीपक देहरी पर जलाकर हमेशा रखती थीं। फिर भी मुझे घर अँधेरे से भरा लगता रहता और इस लगने में मुझे डर भी बहुत लगता था। वहीँ जब शुक्लपक्ष होता तो चाँद इतनी रौशनी छोड़ता कि यदि कोई करना चाहे तो चावल भी साफ़ करले।गाँव की सन्नाटे वाली रातों में दरवाज़ों की खुलन और झिंगुरी की झनझनाहट या पेड़ों पर बैठे पखेरूओं की बोली जो कि वे पहर बदलने पर बोलते हैं, जब सुनाई पड़ती थी तो मेरे छुटकू से मन के लिए नीम सन्नाटे में आतीं आवाज़ें रोंगटे खड़े कर देने वाली हो जाती थीं खैर...
आज सर्द-सी खुनक शाम में महसूस हुआ कि महानगर होशियार हो सकते हैं लेकिन भावुक
नहीं।
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नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार ( 7 सितंबर 2020) को 'ख़ुद आज़ाद होकर कर रहा सारे जहां में चहल-क़दमी' (चर्चा अंक 3817) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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-रवीन्द्र सिंह यादव
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत सुन्दर संस्मरण...
ReplyDeleteप्रकृति की छटा बिखेर दी मनोमस्तिष्क में।
बहुत सुंदर संस्मरण
ReplyDeleteबहुत सुंदर।
ReplyDeleteअभिनव शैली।
सुन्दर प्रस्तुति !
ReplyDeleteसुन्दर संस्मरण।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
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